भारत के महान क्रांतिकारी आंदोलन में भाई परमानंद जी का नाम एक महान क्रांतिकारी के नाम रूप में दर्ज है । व्यवहार और आचरण से बहुत ही सादगी पसंद भाई परमानंद जी को उनके इन गुणों के कारण देवतास्वरूप भाई परमानंद के रूप में जाना जाता है । आर्य समाज से जुड़े होने के कारण उनके विचारों में बहुत ही दृढ़ता और पवित्रता थी । ईश्वर भक्त और राष्ट्रभक्त भाई जी आजीवन अपने सिद्धांतों के प्रति अडिग रहे । वीर सावरकर जी को हिंदू महासभा में लाने का श्रेय भी देवतास्वरूप भाई परमानंद जी को ही जाता है ।
भाई जी का जन्म 4 नवम्बर 1876 को जिला झेलम (अब पाकिस्तान में स्थित) के करियाला ग्राम के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह वही परिवार था जिसमें भाई मतीदास जैसे महान राष्ट्रभक्त का जन्म हुआ था । जिसने औरंगजेब के समय में देश धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान गुरु तेग बहादुर जी के साथ दिया था ।इनके पिताजी का नाम भाई ताराचन्द्र था।
ऐसे महान क्रांतिकारी परिवार में जन्मे भाई परमानन्द ने 1902 में पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की और लाहौर के दयानन्द एंग्लो महाविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुए।
भारतीयता के लिए समर्पित भाई जी को महात्मा हंसराज जी ने भारतीय धर्म व संस्कृति के प्रचार व प्रसार के लिए 1905 में अफ्रीका भेजा । डर्बन में भाई जी की गांधीजी से भेंट हुई। अफ्रीका में आप तत्कालीन प्रमुख क्रांतिकारियों सरदार अजीत सिंह, सूफी अंबाप्रसाद आदि के संर्पक में आए । अफ्रीका से भाई जी लन्दन चले गए, जहाँ उन दिनों श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा विनायक दामोदर सावरकर क्रान्तिकारी कार्यों में सक्रिय थे।
भाई जी सन् 1907 में भारत लौट आये। सरदार अजीत सिंह तथा लाला लाजपत राय से उनकी निकटता होने के कारण लाहौर उन्हें सन् 1910 में लाहौर में गिरफ्तार कर लिया गया। किन्तु शीघ्र ही उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। इसके बाद भाई जी भारतीय वैदिक संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए फिर अमरीका चले गये। इस बार यहां रहते हुए उनकी भेंट लाला हरदयाल जी जैसे महान क्रांतिकारी से हुई। आप लाला जी के साथ मिलकर उनके क्रांतिकारी दल में सम्मिलित हो गए । करतार सिंह सराबा, विष्णु गणेश पिंगले तथा अन्य युवकों ने आपके विचारों से प्रेरणा लेकर भारत की स्वाधीनता के लिए कार्य करने की प्रतिज्ञा ली । 1913 में आप फिर भारत लौट आए परंतु यहां आकर भी आप क्रांतिकारी गतिविधियों में निरंतर सम्मिलित रहे ।
गदर पार्टी के संस्थापकों में वे भी सम्मिलित थे। सन् १९१४ में एक व्याख्यान यात्रा के लिये वे लाला हरदयाल के साथ पोर्टलैण्ड गये तथा गदर पार्टी के लिये ‘तवारिखे-हिन्द’ (भारत का इतिहास) नामक ग्रंथ की रचना की। इस पुस्तक से अनेकों युवकों को प्रेरणा मिली और वे भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के सदस्य हो गए।
उनके क्रांतिकारी संगठन गदर पार्टी में लगभग 5000 सक्रिय सदस्य क्रांति के लिए समर्पित होकर उनके साथ हो लिए थे। 25 फरवरी 1915 को भाई जी को उनके कई अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया । अमरीका तथा इंग्लैण्ड में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने के आरोप में उन्हें फाँसी की सजा सुना दी गयी। सजा का समाचार मिलते ही देशभर के युवाओं में क्षोभ और आक्रोश का संचार को उठा। अन्तत: भाई जी की फाँसी की सजा रद्द कर उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड देकर दिसम्बर, 1916 में अण्डमान अर्थात काला पानी भेज दिया गया।
इस महान क्रांतिकारी की धर्मपत्नी श्रीमती भाग्य सुधि भीकम महान नहीं थी पति की अनुपस्थिति में वह परिवार का भरण पोषण करने का दायित्व अपने ऊपर लेकर चल रही थी , और साथ ही पति का मनोबल बनाए रखने के लिए भी अपनी ओर से सार्थक प्रयास करती रहती थी ।
अण्डमान की जेल में अंग्रेजों ने भाई जी और उनके अन्य क्रांतिकारी साथियों को अमानवीय यातनाएं देनी आरंभ कीं। गान्धीजी को जब कालापानी में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दिए जाने का समाचार मिला तो उन्होंने 19 नवम्बर 1919 के “यंग इंडिया” में एक लेख लिखकर यातनाओं की कठोर भर्त्सना की। उन्होंने भाई जी की रिहाई की भी माँग की। 20 अप्रैल 1920 को भाई जी को कालापानी जेल से मुक्त कर दिया गया। अपनी जेल की यात्राओं का उल्लेख भाई जी ने “मेरी आपबीती” पुस्तक में किया है । जिन्हें पढ़कर पाठक का ह्रदय द्रवित होता है ।
उन्हीं के द्वारा लाहौर के राष्ट्रीय विद्यापीठ (नेशनल कालेज) में भगतसिंह व सुखदेव आदि को देश के क्रांतिकारी आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया गया था थे। भाई जी ने “वीर बन्दा वैरागी” पुस्तक इन्हीं क्रांतिकारियों के निर्माण के लिए लिखी थी । जो उस समय बहुत चर्चा का विषय बनी थी । हमारे महान योद्धा वीर बंदा बैरागी को पूरे देश ने बहुत सम्मान के साथ देखना आरंभ किया था ।
कांग्रेस तथा गान्धी जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की घातक नीति से वह सहमत रहते थे और इसका कड़ा विरोध करते थे। भाई जी ने “हिन्दू” पत्र का प्रकाशन भी किया था जिसमें वह कांग्रेस की और मुस्लिम लीग की उन नीतियों की आलोचना करते थे जिनसे देश का विभाजन संभावित था । देवता स्वरूप भाई परमानंद जी ने 1930 में ही यह लिख दिया था कि मुस्लिम लीग का अंतिम उद्देश्य पवित्र भारत भूमि का विभाजन करना है । उन्होंने अपने लेखों में यह भी अनेकों बार स्पष्ट किया था कि कांग्रेस का विश्वास करना ठीक नहीं है , क्योंकि एक न् एक दिन यह हिंदू समाज के साथ विश्वासघात कर देश का विभाजन कराएगी।
विचारों से कट्टर आर्य समाजी होकर भी आप पौराणिक पंडित मदनमोहन मालवीय जी के साथ हिंदू समाज के उत्थान के लिए कार्य करते रहे । उन्हीं के साथ रहते हुए आप हिंदू महासभा से जुड़े और सन् 1933 ई. में आप अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अजमेर अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए।
1947 में जब मुस्लिम लीग और कांग्रेस ने देश का विभाजन कराने में सफलता प्राप्त कर ली तो मां भारती के इस सच्चे साधक से वह दृश्य देखा नहीं गया जब देश के नक्शे पर विभाजन की रेखा उभर कर सामने आई और लाखों हिंदुओं को पाकिस्तान से आते – आते काट दिया गया था । अंत में इसी दुख में 8 दिसंबर 1947 को उनका देहांत हो गया । देश की स्वतंत्रता की बलिवेदी पर एक क्रांतिकारी की मौन आहुति लग गई।
आज उनकी जयंती के पावन अवसर पर हम उन्हेंअपनी हार्दिक पुष्पांजलि अर्पित करते हैं ।
डॉक्टर राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत