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आज का चिंतन

प्रियंका जी ! पटेल के सामने 10 गांधी भी छोटे हैं

यदि सरदार पटेल जैसी निर्भीकता से गांधीजी कार्य करते और अंग्रेजों से उनकी गलतियों को सुधारने के लिए कठोरता से अपना पक्ष रखते तो परिस्थितियां इतनी जटिल नहीं होतीं , जितनी हो गई थीं । गांधीजी की स्थिति तो यह थी कि वह सरदार पटेल को भी निर्भीक होने से टोकते रहते थे। पर अंत में सरदार पटेल की निर्भीकता ही थी , जिसने 1947 के अंतिम दिनों में बनी विस्फोटक परिस्थितियों का निडरता से सामना किया और देश को ‘ एक ‘ बनाने में अपनी इतनी बड़ी भूमिका निर्वाह की कि उसके समक्ष तो 10 गांधी भी छोटे पड़ते हैं।

संभवत: उस समय गांधी जी को यह ज्ञात हो गया हो कि अब निर्भीकता और निडरता की कितनी आवश्यकता है ? जब पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों के रूप में देश के सिरमौर कश्मीर में घुसपैठ की तो समय पटेल ने गांधी जी से कहा कि – ” बापू ! क्या अब सीमा पर कुछ चरखे भेज दिए जाएं ? ” – तो गांधी जी ने परिस्थितियों को समझकर तब शत्रु को उसी की भाषा में उत्तर देने की बात कही थी । कहने का अभिप्राय है कि अहिंसावादी गांधी को इस समय यह पता चला कि जों हमारी एकता और राष्ट्रीय अखंडता के शत्रु हैं , उनके साथ हिंसा का व्यवहार करना ही नीति के अनुकूल है। पर यह तो वही बात थी –

” जीवन निकल गया तो जीने का ढंग आया ।

शमा बुझ गई तो महफिल में रंग आया ।। ”

यदि गांधी जी को यही समझ पहले से आ गई होती तो देश का बंटवारा नहीं होता । सरदार पटेल देश के प्रधानमंत्री नहीं बने , यह देश का दुर्भाग्य था । पर उस दुर्भाग्य के दाता भी गांधी जी ही थे। उस समय देश के कुल 15 प्रांत थे । जिनमें से 12 प्रांतों की कांग्रेस समितियों ने देश का प्रधानमंत्री पटेल को बनाने की सहमति दी थी और दो ने नेहरू के पक्ष में तो एक प्रांत ने राजा जी को देश का प्रधानमंत्री बनाने की बात कही थी । फिर भी गांधीजी ने नेहरू को देश का प्रथम प्रधानमंत्री बनाकर सरदार पटेल की मर्यादा की बलि ले ली थी । वैसे मौलाना आजाद भी सरदार को प्रधानमंत्री बनाने के विरोधी थे। उन्होंने एक अपील 1946 में कांग्रेस के अध्यक्ष के चुनाव के समय जारी की थी कि : – ” कांग्रेस का अध्यक्ष ( जो अध्यक्ष बनता वही प्रधानमंत्री बन जाना था ) नेहरू को बनाया जाए।”

तब भी सरदार पटेल ने गांधी जी से बात की थी तो उन्हें ऐसा लगा कि जैसे गांधी जी नेहरु को ही कांग्रेस अध्यक्ष बनाना चाहते हैं। परिणामस्वरूप पटेल उस समय भी अध्यक्ष पद की दौड़ से अलग हो गए थे। यद्यपि कांग्रेसी उन्हें ही अध्यक्ष बनाना चाहते थे। इससे पूर्व 1936 में भी उन्हें पीछे हटाकर गांधी जी ने कांग्रेस की अध्यक्षता नेहरू जी को सौंप दी थी।

इस प्रकार के अनुचित निर्णयों को ले लेकर गांधी जी ने कांग्रेस को देश के विभाजन की ओर बढ़ाया था । देश में मजबूत इच्छाशक्ति वाले किसी नेतृत्व को पनपने नहीं दिया । जिससे अंग्रेजों और मुस्लिम लीग का काम सरल हो गया। इसी की अंतिम परिणति के रूप में देश विभाजन की पीड़ा को झेलने लगा तो जैसा कि विराज ने कहा है कि : – ” यह कहना सही नहीं है कि एक सिरफिरे हिंदू ( गोडसे ) ने गांधीजी को मार डाला , लुट पिटकर , पिट- पिटकर , आहत , लांछित और त्रस्त होकर उस समय लाखों हिंदुओं का सिर फिर गया था । वह गोलियां भले ही न चला रहे हों , गालियां तो बरसा ही रहे थे । भले आदमी के लिए गाली गोली से कम नहीं होती। ”

कांग्रेस की प्रियंका गांधी को यह भी समझना चाहिए कि यदि आज हिंदूवादी दल सरदार पटेल को सम्मान दे रहे हैं तो वह केवल इसलिए दे रहे हैं कि उन्होंने देश की सामूहिक इच्छा को समझकर उसके अनुरूप उस समय कदम उठाए थे । उनमें देश को मजबूत नेतृत्व देने की क्षमता थी । जिसे गांधी और नेहरू ने हर प्रकार से समाप्त करने का राष्ट्रघाती कार्य किया था । हम लोग आज उस समय के प्रत्येक राष्ट्रघात का और पटेल के प्रति अपमानित स्वर रखने वाले लोगों का विरोध करते हैं और जिस व्यक्ति ने उन राष्ट्रघाती स्वरों का सामना करते हुए विषम परिस्थितियों के झंझावातों को चीरने का श्लाघनीय कार्य किया था , उस की जय जयकार करते हैं । प्रियंका गांधी को इस सच को स्वीकार करना चाहिए।

जहां तक गांधी नेहरू को मार महिमामंडित करने वाले लेखकों और इतिहासकारों का प्रश्न है तो उनके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है :–

हैं रखैलें तख्त की ये कीमती कलमें ।

इनके कंठ में स्वयं का स्वर नहीं होता ।।

यह सियासत की तवायफ का दुपट्टा है,

जो किसी के आंसुओं से तर नहीं होता।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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