दीपावली के दिन अयोध्या नहीं लौटे थे श्री राम
आर के आर्य
हमारे यहां दीपावली का पर्व सृष्टि के प्रारंभ से ही मनाया जाता रहा है। इस पर्व का विशेष महत्व है। दीपों का यह प्रकाश पर्व हमारे अंत: करण में व्याप्त अज्ञान अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश करने का प्रतीक पर्व है। हमारे यहां पर प्रत्येक सद्गृहस्थ के लिए आवश्यक था कि घर में अग्नि हमेशा रखनी चाहिए। अग्नि के कई अर्थ होते हैं। अग्नि का एक अर्थ भौतिक अग्नि से है जो कि हमारे भोजन आदि के बनाने में सहायक होती है, दूसरे हमारे खून में गर्मी हो अर्थात यहां अग्नि का अर्थ है कि अन्यायी और अत्याचारी व्यक्ति के खिलाफ आवाज बुलंद करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। तीसरे अग्नि का अर्थ है ज्ञानाग्नि को सदा प्रज्ज्वलित रखना। हृदय मंदिर में सदा अलौकिक प्रकाश का अनुभव करना, इस अग्नि को आध्यात्मिक ज्योति भी कह सकते हैं। ये सारी अग्नियां हर गृहस्थी को उन्नत जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हैं।
प्रकाश पर्व दीपावली एक ऐसा ही पर्व है जो हमारे भीतर ज्ञानाग्नि को प्रकाशित करने अथवा प्रज्ज्वलित करने का काम करता है। सृष्टि प्रारंभ में इस पर्व को नवशस्येष्टि पर्व कहा जाता था। कालांतर में इस पर्व का नामकरण दीपावली के रूप में हो गया। खील और बतासे इस पर्व पर विशेष रूप से बांटे जाते हैं। उनका अर्थ यही है कि जिस प्रकार भुनने के पश्चात खील बनता है उसी प्रकार विपत्तियों में पड़कर के हम खील की तरह और खिलें, यही हमारे लिए उचित है। हमारी खिलखिलाहट में रस घोलने के लिए बतासा मिठास का प्रतीक है, तो दीपक ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है। इतना पावन पर्व है यह दीपावली।
दीपावली को श्रीराम के साथ जोडऩा कि इस दिन वह लंका से अयोध्या लौटे थे, सर्वथा गलत है। इसके लिए हमें रामायण में ही जो तथ्य और प्रमाण मिलते हैं वो इस धारणा को सर्वथा निराधार सिद्घ करते हैं। आप विचार करें कि श्रीराम के वन गमन पर भरत जब उन्हें लौटाने हेतु उनके पास गये और श्रीराम ने भरत के सब प्रकार के अनुनय विनय को सविनय अस्वीकार कर दिया तो भरत को रामचंद्रजी की खड़ाऊं लेकर ही संतोष करना पड़ा। इस समय रामचंद्रजी और अयोध्या के बहुत से लोगों के समक्ष भरत ने कहा था-
चर्तुर्दशे ही संपूर्ण वर्षेदद्व निरघुतम।
नद्रक्ष्यामि यदि त्वां तु प्रवेक्ष्यामि हुताशन।।
अर्थात हे रघुकुल श्रेष्ठ। जिस दिन चौदह वर्ष पूरे होंगे उस दिन यदि आपको अयोध्या में नही देखूंगा तो अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा, अर्थात आत्मदाह द्वारा प्राण त्याग दूंगा। भरत के मुख से ऐसे प्रतिज्ञापूर्ण शब्द सुनकर रामचंद्र जी ने अपनी आत्मा की प्रतिमूर्ति भरत को आश्वस्त करते हुए कहा था-तथेति प्रतिज्ञाय-अर्थात ऐसा ही होगा। उनका आशय स्पष्ट था कि जिस दिन 14 वर्ष का वनवास पूर्ण हो जाएगा मेरे अनुज भरत मैं उसी दिन अयोध्या पहुंच जाऊंगा। रामचंद्रजी अपने दिये वचनों को कभी विस्मृत नही करते थे। इसलिए भाई भरत को दिये ये वचन उन्हें पूरे वनवास काल में भली प्रकार स्मरण रहे। यहां पर हम यह भी देखें कि रामचंद्र जी जब बनवास के लिए चले थे अथवा जब उनका राज्याभिषेक निश्चित हुआ था तो उस समय कौन सा मास था? महर्षि वशिष्ठ ने महाराजा दशरथ से राम के राज्याभिषेक के संदर्भ में कहा था-
चैत्र:श्रीमानय मास:पुण्य पुष्पितकानन:।
यौव राज्याय रामस्य सर्व मेवोयकल्प्यताम्।।
अर्थात-जिसमें वन पुष्पित हो गये। ऐसी शोभा कांति से युक्त यह पवित्र चैत्र मास है। रामचंद्र जी का राज्याभिषेक पुष्प नक्षत्र चैत्र शुक्ल पक्ष में करने का विचार निश्चित किया गया है।
षष्ठी तिथि को ज्योतिष के अनुसार पुष्य नक्षत्र था। रामचंद्र जी लंका विजय के पश्चात अपने 14 वर्ष पूर्ण करके पंचमी तिथि को भारद्वाज ऋषि के आश्रम में उपस्थित हुए थे। ऋषि के आग्रह को स्वीकार करके वहां एक दिन ठहरे और अगले दिन उन्होंने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया उन्होंने अपने कुल श्रेष्ठ भाई भरत से पंचमी के दिन हनुमान जी के द्वारा कहलवाया-
अविघ्न पुष्यो गेन श्वों राम दृष्टिमर्हसि।
अर्थात हे भरत! कल पुष्य नक्षत्र में आप राम को यहां देखेंगे।
इस प्रकार राम चैत्र के माह में षष्ठी के दिन ही ठीक समय पर अयोध्या में पुन: लौटकर आए। इसके अतिरिक्त अन्य बिंदुओं पर भी विचार करें कि सीता जी का अपहरण कब हुआ? कितने काल वह रामचंद्र जी से अलग रावण के राज्य में रहीं? जब सीताजी का अपहरण हुआ तो वाल्मीकि ने रामचंद्र जी की उस समय की विरह वेदना का निम्न शब्दों में वर्णन किया है- हे लक्ष्मण नाना प्रकार के पक्षियों से निनादित यह वसंत सीता से वियुक्त मेरे शोक को और भी वियुक्त कर रहा है। मधुरभाषिणी कमल नयनी निश्चय ही इस बसंत ऋतु को प्राप्त होकर अपने प्राण त्याग देंगी।
इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि बसंत ऋतु में सीताजी का अपहरण हुआ। अपहरण के पश्चात अपने भवन में ले जाकर रावण ने उन्हें अपनी अद्र्घांगिनी बनाने का हर संभव प्रयास किया। किंतु सब भांति से उसे असफलता ही मिली। तब उसने सीताजी को बारह मास का समय देते हुए कहा कि मिथिला की राजकुमारी जानकी मेरी इस बात को सुनो-
हे भामिनी मैं तुम्हें बारह मास का समय देता हूं। हे सीते! यदि इस अवधि के भीतर तुमने मुझे स्वीकार नही किया तो मेरे याचक मेरे प्रातराश (नाश्ता) के लिए तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे।
इसके पश्चात सुंदरकांड 22/8-9 में रावण ने सीता जी से यह भी कहा कि मेरे द्वारा जो अवधि तुम्हें मेरी शैया पर आरोहण करने हेतु दी गयी थी उसमें मात्र दो माह का समय शेष रह गया है। यदि तुमने इन दो मासों में ऐसा नही किया तो मेरे चारक मेरे प्रातराश के लिए तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर देंगे।
ऐसी परिस्थितियों में ही सीताजी के पास हनुमान जी का प्राकट्य हुआ। तब उन्होंने हनुमान जी से कहा था कि मुझे रावण ने कृपा कर के दो माह का जीने का और समय दिया है। दो मास के पश्चात मैं प्राण त्याग दूंगी। सीता जी के इस संदेश को जब हनुमानजी ने रामजी को सुनाया तो उन्होंने भली प्रकार चिंतन करके सुग्रीव को आदेशित किया था-
उत्तरा फाल्गुनी हयघ श्वस्तु हस्तेन योक्ष्यते।
अभिप्रयास सुग्रिव सर्वानीक समावृता:।।
अर्थात आज उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र है। कल हस्त नक्षत्र से इसका योग होगा। हे सुग्रीव इस समय पर सेना लेकर लंका पर चढ़ाई कर दो। इस प्रकार फाल्गुन मास में श्री लंका पर चढ़ाई का आदेश श्री राम ने दिया। सीताजी लगभग 11 माह तक लंका में रावण की दासता में रही।
रावण के सुपाश्र्व नामक मंत्री ने रावण को युद्घ के लिए जो परामर्श दिया था उसका मुहूर्त कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उद्योग आरंभ करके अमावस्या के दिन सेना से युक्त होकर विजय के लिए निकलने का आवाह्न किया था उससे भी यही स्पष्ट होता है कि चैत्र मास की अमावस्या को रावणा मारा गया था। तब रावण की अंत्येष्टि क्रिया तथा विभीषण के राजतिलक के पश्चात रामचंद्र यथाशीघ्र अयोध्या के लिए चल पड़े थे। इस प्रकार रामायण की अंत:साक्षी से सिद्घ होता है कि रामचंद्रजी कार्तिक माह में नही अपितु चैत्र के माह में ही अयोध्या लौटे थे। उनकी लंका विजय का समय भी चैत्र माह में ही अभिनिर्धारित होता है, किसी और माह में नही। इसके उपरांत भी हमारे यहां दीपावली पर्व के साथ राम के अयोध्या पुन: आगमन की घटना को जोड़कर देखा जाता है। यह सर्वथा दोषपूर्ण है। दीपावली पर्व नवशस्येष्टि पर्व है। कार्तिक माह की नई फसल अर्थात शस्य का यज्ञ अर्थात इष्टि इस पर्व पर हमारे कृषक-वैश्य वर्ग अति प्राचीनकाल से करते आये हैं। इसी पर्व पर अंधियारी अमावस्या की रात्रि पर दीप जलाकर प्रकाश करने की परंपरा है। इसका अर्थ है कि हमारे हृदयाकाश पर विकारो का छाया घोर अंधेरा हम से दूर हो। तमसो मा ज्योर्तिगमय की हमारी वैदिक परंपरा का प्रतीक यह पावन पर्व हमारे उच्च जीवनादर्श की ओर हमारा ध्यान आकृष्टï करता है कि हम अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ें। हमारे ऋषिपूर्वजों का चिंतन कितना उच्च है कि उन्होंने अंधियारी रात को ही दीप प्रज्ज्वलित के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समझा।
श्रीराम लंका विजय के पश्चात जब अयोध्या लौटे थे तो उन जैसे आदर्श दिव्य और आप्तपुरूष के लिए लोगों ने अपने अपने घरों में दीप जलाकर उनका स्वागत किया होगा। अर्थात उनके आगमन पर दीपावली मनायी होगी यह दीपावली मनाना अपने हृदय की प्रसन्नता का अभिप्रकटन था, न कि इससे राम की लंका से लौटने की घटना का संबंध होना। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि लंका विजय और राम के लंका से लौटने के स्पष्ट प्रमाण हमारे पास उपलब्ध होते हुए भी रामायण के अंत: साक्ष्य को भी दृष्टि से ओछल करके हम परंपरा से यह कहते चले आ रहे हैं कि राम चंद्रजी इस दिन लंका से अयोध्या आये थे।
महर्षि दयानंद का हम पर असीम ऋण है कि जिन्होंने हमें सत्यान्वेषी बुद्घि प्रदान की। आज ऋषि शिष्य तो इस तथ्य और सत्य को स्वीकर कर रहे हैं कि दीपावली को राम के अयोध्या लौटने से कोई संबंध नही है। किंतु पौराणिक लोग आज भी भयंकर अंधकार में भटक कर इस पर्व की और श्री राम की गरिमा को ठेस पहुंचा रहे हैं। उनके इस कृत्य से श्रीराम जी आत्मा भी अवश्य आहत होगी ।