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ईश्वर और उसकी उपासना को जानने के लिये हमें ईश्वर की सत्ता व उसके सत्यस्वरूप को जानना आवश्यक है। बहुत से लोग ईश्वर की उपासना व भक्ति तो करते हैं परन्तु ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने के प्रयत्नों की उपेक्षा करते हैं। जब ईश्वर को जानेंगे नहीं तो उपासना में होने वाले लाभों से वंचित हो सकते हैं जैसा अवैदिक विधि से उपासना करने वाले हमारे बन्धुओं के साथ होता है। ईश्वर एक सत्ता है जिसने इस संसार को इसके कारण द्रव्य सत्, रज तथा तम गुणों की साम्यावस्था में ज्ञानपूर्वक गति उत्पन्न कर बनाया है। सत्यार्थप्रकाश में ऋषि दयानन्द ने मूल प्रकृति से सृष्टि की उत्पत्ति वा रचना कैसे होती है, इसे ऋषियों के प्रमाणों से पुष्ट किया है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने से वेद, दर्शन, उपनिषद तथा मनुस्मृति आदि ग्रन्थों के ज्ञान का सार सरल भाषा हिन्दी में मिल जाता है। ऋषि दयानन्द से पूर्व सत्यार्थप्रकाश जैसे किसी ग्रन्थ की रचना किसी विद्वान ने नहीं की थी। ऋषि दयानन्द से पूर्व व उनके समय उनके समान योग्यता वाले विद्वान देश व विश्व में कहीं नहीं थे और न ही किसी साधारण विद्वान के मन में सत्यार्थप्रकाश में निहित ज्ञान को प्राप्त करने की आवश्यकता वा इच्छा ही हुआ करती थी। सब विद्वान परम्परागत अन्धविश्वासों में ही रमण करते थे।
ऋषि दयानन्द की आत्मा व बुद्धि की विशेंष स्थिति, जिज्ञासा भाव और ईश्वर की उन पर कृपा ने ही उन्हें सच्चे ईश्वर के स्वरूप सहित मृत्यु पर विजय पाने के उपायों को जानने के लिये प्रेरित किया था। उनका लक्ष्य कभी कमजोर नहीं पड़ा। अपने संकल्पों को पूरा करने के लिये ऋषि दयानन्द ने देश का कोना-कोना छान मारा। विद्वानों की शरण में जाकर उनसे ईश्वर तथा मृत्यु पर विजय प्राप्ति का जो ज्ञान सम्भव हुआ, उसे उन्होंने प्राप्त किया। संसार के रहस्यों को जानने के लिये उन्होंने देश के प्रमुख विद्वानों की संगति कर उनसे जो ज्ञान मिल सकता था, उसे प्राप्त किया। अपने दृण संकल्पों की पूर्ति के लिये बड़े बड़े कष्ट सहन करने की उनकी भावना ने ही उन्हें महाभारतकाल के बाद का सबसे बड़ा सत्यज्ञान का ऋषि बनाया था। ऋषि ने जो ज्ञान प्राप्त किया था वह उन्होंने अपनी आत्मा की उन्नति के लिये किया था। अपने गुरु विरजानन्द की प्रेरणा से वह अपने समस्त ज्ञान को देशवासियों को देने के लिये निकल पड़े थे। उन्होंने लोगों को परमात्मा-प्रदत्त वेदज्ञान ही नहीं दिया अपितु संसार में प्रचलित अविद्या व अन्धविश्वासों को दूर करने के लिये भी अपूर्व कार्य किये जिससे भारत सहित समस्त विश्व को लाभ हुआ है। ऋषि दयानन्द से हमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, संस्कृत-हिन्दी वेदभाष्य, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, गोकरूणानिधि सहित ईश्वर की उपासना से युक्त वैदिक सन्ध्या एवं पंचमहायज्ञविधि की प्राप्ति भी हुई। ऋषि द्वारा पंचमहायज्ञ विधि और इसके अन्तर्गत वैदिक सन्ध्या की रचना से पूर्व देश के लोग ईश्वर की उपासना की सत्य विधि से अपरिचित थे। उन दिनों कुछ उच्च कोटि के योगी ही ईश्वर को जान पाते थे और उसे प्राप्त कर पाते थे। वह योगी भी अपनी विद्याओं को अपने तक ही सीमित रखते थे। वह अपनी योग-विद्या का ऋषि दयानन्द की भांति लेख व प्रवचनों द्वारा जन-जन में प्रचार नहीं करते थे। ऋषि दयानन्द के समकालीन व उनके बाद सभी लोग अतीव भाग्यशाली हैं जिन्हें अनायास ही ईश्वर के सत्यस्वरूप के ज्ञान सहित उसकी उपासना तथा अग्निहोत्र की विधि का ज्ञान प्राप्त हुआ है जिसको क्रियात्मक रूप में करके मनुष्य को ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर प्रतिदिन मिलता रहता है।
ईश्वर संसार का रचयिता तथा पालनकर्ता है और सृष्टि की अवधि 4.32 अरब वर्ष पूर्ण होने पर इसकी प्रलय करता है। वेदों में ईश्वर का सत्यस्वरूप प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द ने वेदों का अध्ययन करने सहित दर्शन एवं उपनिषद आदि सहस्रों ग्रन्थों का अध्ययन किया था और उन सब की मान्यताओं के सत्यासत्य का विश्लेषण कर उनकी परीक्षा की थी। इस प्रकार से प्राप्त ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा गुण, कर्म, स्वभाव के ज्ञान को उन्होंने अपने ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। आर्याभिविनय उनका ईश्वर की विनय वा स्तुति-प्रार्थना का ग्रन्थ है जिसमें उन्होंने वेद मन्त्रों को प्रस्तुत कर उनके अर्थों को प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ को ध्यान व एकाग्रता से पढ़ने व मन्त्रों के अर्थों का चिन्तन-मनन करने से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना हो जाती है। आर्याभिविनय तथा अपने अन्य ग्रन्थों में ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के स्वरूप तथा स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना को जिस उत्तम प्रकार से प्रस्तुत किया है वह उनके पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होती। हमें आश्चर्य और दुःख होता है कि पौराणिक मत सहित अन्य मत-मतान्तरों के बहुत से लोग उनके द्वारा खोजे गये ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान से युक्त उनके ग्रन्थों व उपदेशों से लाभ नहीं उठाते हैं। इसका कारण मत-मतान्तरों के वह आचार्य हैं जिनके अपने हित व स्वार्थ अपने-अपने मत व पन्थ से जुड़े होते हैं। वह ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज पर अनेक मिथ्या आरोप लगाकर उनके ग्रन्थों को पढ़ने व उनसे लाभ उठाने से अपने अनुयायियों को दूर रखते हैं। यह सभी आचार्य अपनी आध्यात्मिक हानि सहित अपने अनुयायियों की हानि भी कर रहे हैं। यदि वह वेदों की विचारधारा को अपनाते हैं तो इससे ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज को कोई लाभ होने वाला नहीं है। वेदों की विचारधारा को न अपनाकर सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों और उनके अनुयायियों की आध्यात्मिक हानि अवश्य होती है। अतः सभी मतों के निष्पक्ष विद्वान लोगों को ऋषि दयानन्द के विचारों को अवश्य पढ़ना चाहिये और अपने हित-अहित का विचार कर उन्हें ग्रहण करने योग्य विचारों व सिद्धान्तों को अपनाना चाहिये और जो बातें उपयोगी न लगे, उसे छोड़ देना चाहिये। किसी भी ग्रन्थ को पढ़े बिना उसकी आलोचना व निन्दा करना मनुष्योचित कार्य नहीं है। ऋषि दयानन्द ने अपनी समाधि के सुख को छोड़कर वेदों का प्रचार किया था जिससे देशवासियों के समस्त दुःख दूर हो जायें और देश स्वतन्त्र होकर विश्व का आदर्श राष्ट्र बने। विश्व गुरु के पद पर यदि भारत को पहुचाना है तो वह केवल और केवल वेद और ऋषियों के ज्ञान के प्रसार से ही सम्भव हो सकता है। अन्य किसी प्रकार से ऐसा होना सम्भव नहीं है।
ईश्वर की उपासना करते हुए ईश्वर का सत्यस्वरूप स्मरण रहना चाहिये। ऋषि दयानन्द के शब्दों में ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ उपासक को ईश्वर के इस स्वरूप को जानना व समझना है। इसे जान लेने के बाद शरीर शुद्धि और सत्याचरण आदि से मन व आत्मा आदि की आन्तरिक शुद्धि करके ऋषि दयानन्द-प्रोक्त सन्ध्या विधि से ईश्वर का ध्यान करना चाहिये। सन्ध्या में गायत्री मन्त्र का पाठ, आचमन, इन्द्रियस्पर्श, मार्जन, प्राणायाम, अघमर्षण, मनसापरिक्रमा, उपस्थान, समर्पण तथा नमस्कार मन्त्रों का पाठ, उनके अर्थों पर विचार तथा मन्त्रार्थ के अनुरूप अपनी भावना करनी होती है। सन्ध्या करते हुए अपना ध्यान बाह्य सभी विषयों से हटाना होता है और उसे ईश्वर के स्वरूप में स्थिर करना होता है। ईश्वर की कृतज्ञतापूर्वक सन्ध्या करने से पूर्व व पश्चात भी हमें वेदों सहित आर्याभिविनय व उपासना विषयक आर्य विद्वानों के प्रमुख ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इन ग्रन्थों में स्वाध्याय-सन्दोह, वेदमंजरी, ऋग्वेद-ज्योति, यजुर्वेद-ज्योति, अथर्ववेद-ज्योति, सोम-सरोवर सहित ऋषि व आर्यविद्वानों के किये वेदभाष्य एवं सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थ प्रमुख हैं। एक घंटे से अधिक समय तक ऐसा करने से हम ईश्वर के सम्बन्ध में अपने ज्ञान को बढ़ा सकते हैं और इससे ईश्वर की निकटता को भी प्राप्त कर सकते हैं। निरन्तर और नियत समय पर प्रातः व सायं उपासना करने से उपासना के लाभ सामने आने लगते हैं। पाठक जब ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों सहित उनकी सन्ध्या-विधि पर पं. विश्वनाथ विद्यालंकार की सन्ध्या-रहस्य, पं0 गंगाप्रसाद उपाध्यय, पं0 चमूपति, स्वामी आत्मानन्द जी आदि विद्वानों की पुस्तकों को पढ़ेगे तो उन्हें सन्ध्या करने का विशेष लाभ होगा। सन्ध्या एक प्रकार से ईश्वर की संगति करना है। जिस प्रकार श्रेष्ठ व महान लोगों की साक्षात संगति तथा उनके ग्रन्थों के अध्ययन रूपी संगति से लाभ होता है, उसी प्रकार से उपासना करते हुए ईश्वर की होने वाली संगति से लाभ होता है। हम सत्यार्थप्रकाश में ऋषि द्वारा दी गई स्तुति, प्रार्थना व उपासना विषयक कुछ बातों को प्रस्तुत कर रहे हैं।
स्तुति प्रकरण में ऋषि लिखते हैं कि परमात्मा सब में व्यापक है। वह शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् है। वह शुद्ध, सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध, परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या वेद द्वारा यथावत् अर्थों का बोध कराता है। स्तुति का फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना। जैसे वह न्यायकारी है तो हम भी न्यायकारी होवें। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता है और अपने चरित्र को नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।
ईश्वर से प्रार्थना इस प्रकार करनी चाहिये। हे अग्ने अर्थात् प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! आप की कृपा से जिस बुद्धि की उपासना विद्वान्, ज्ञानी और योगी लोग करते हैं उसी बुद्धि से युक्त इसी वर्तमान समय में आप हमको बुद्धिमान कीजिये। हे ईश्वर! आप प्रकाशस्वरूप हैं कृपा कर मुझ में भी प्रकाश स्थापन कीजिये। आप अनन्त पराक्रम युक्त हैं इसलिये मुझ में भी कृपाकटाक्ष से पूर्ण पराक्रम धरिये। आप अनन्त बलयुक्त हैं इसलिये मुझ में भी बल धारण कीजिये। आप अनन्त सामर्थ्ययुक्त हैं, मुझ को भी पूर्ण सामथ्र्य दीजिये। आप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं, मुझ को भी वैसा ही कीजिये। आप निन्दा, स्तुति और स्व-अपराधियों का सहन करने वाले हैं, कृपा करके मुझ को भी वैसा ही कीजिये।
उपासना के विषय में ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि जब उपासना करना चाहें तब एकान्त शुद्ध देश में जाकर, आसन लगा, प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभिप्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न हो कर संयमी होवें। जब इन साधनों को करता है तब उस का आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है। नित्यप्रति ज्ञान विज्ञान बढ़ाकर मुक्ति तक पहुंच जाता है। जो आठ पहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है। वहां सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी सगुण और द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान, अतिसूक्ष्म आत्मा के भीतर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ता से स्थित हो जाना निर्गुणोपासना कहाती है।
उपासना का फल यह है कि जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे ही परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। इससे इस उपासना का फल पृथक् होगा परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा कि पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सब को सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रक्खे हैं, उस का गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है। इसी लेख को यहीं पर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य