आज हम लाला दीपचन्द आर्य जी द्वारा ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित सत्यार्थप्रकाश में सत्यार्थप्रकाश के परिचय में लिखे गये महत्वपूर्ण शब्दों को प्रस्तुत कर रहे हैं। उनके शब्द निम्न हैं:
1- इसी ग्रन्थ (सत्यार्थप्रकाश) में ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि पर्यन्त ऋषि-मुनियों के वेद-प्रतिपादित सारभूत विचारों का संग्रह है। अल्प विद्यायुक्त, स्वार्थी, दुराग्रही लोगों ने जो वेदादि सच्छास्त्रों के मिथ्या अर्थ करके उन्हें कलंकित करने का दुःसाहस किया था, उन के मिथ्या अर्थों का खण्डन और सत्यार्थ का प्रकाश अकाट्य युक्तियों और प्रमाणों से इस ग्रन्थ में किया गया है। किसी नवीन मत की कल्पना इस ग्रन्थ में लेशमात्र नहीं है।
2- वेदादि सच्छास्त्रों के अध्ययन विना सत्य-ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं। उनको समझने के लिए यह ग्रन्थ कुंजी का कार्य करता है। इस समय इस ग्रन्थ के अध्ययन किये विना वेदादि सच्छास्त्रों का सत्य-सत्य अर्थ समझना अति कठिन है। इस को पूर्णतया समझे विना बड़े-बड़े उपाधिधारी दिग्गज विद्वान् भी अनेक अनर्थमयी भ्रान्यिं से लिप्त रहते हैं।
3- जन्म लेकर मृत्यु-पर्यन्त मानव जीवन की ऐहलौकिक और पारलौकिक समस्त समस्याओं को सुलझाने के लिए यह ग्रन्थ एकमात्र ज्ञान का भण्डार है।
4- ऋषि दयानन्द से पूर्ववर्ती ऋषियों के काल में संस्कृत का व्यापक रूप में व्यवहार था और वेदों के सत्य अर्थ का ही प्रचार था। उस समय के सभी आर्ष ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध होते हैं। महाभारत के पश्चात् सत्य वेदार्थ का लोप और संस्कृत का अतिह्रास हुआ। विद्वानों ने अल्प विद्या और स्वार्थ के वशीभूत होकर जनता को भ्रम में डाला एवं मतवादियों ने बहुत से आर्ष ग्रन्थ नष्ट करके ऋषि-मुनियों के नाम पर मिथ्या ग्रन्थ बनाये। उनके ग्रन्थों में प्रक्षेप किया जिस से सत्य विज्ञान का लोप हुआ। उस नष्ट हुए विज्ञान को महर्षि ने इस ग्रन्थ में प्रकट किया है। महर्षि ने इस ग्रन्थ में बहुमूल्य मोतियों को चुनचुनकर आर्यभाषा में अभूतपूर्व माला तैयार की जिस से सर्वसाधारण शास्त्रीय सत्य मान्यताओं को जानकर स्वार्थी विद्वानों के चंगुल से बच सकें।
5- महर्षि दयानन्द कृत ग्रन्थों में सत्यार्थप्रकाश प्रधान ग्रन्थ है। इस में उनके सभी ग्रन्थों का सारांश आ जाता है।
6- यह सत्यार्थप्रकाश ही एक ऐसा ग्रन्थ है जो पाठकों को इस ग्रन्थ में प्रतिपादित सर्वतन्त्र, सार्वजनिन, सनातन मान्यताओं के परीक्षण के लिए आह्वान देता है।
7- इस (सत्यार्थप्रकाश) के पढ़े विना कोई भी आर्य ऋषि दयानन्द के मन्तव्यों और उनके कार्यक्रमों को भली प्रकार नहीं समझ सकता एवम् अन्यों के उपदेशों में प्रतिपादित मिथ्या सिद्धान्तों को नहीं पहचान सकता। जिन मनुष्यों के मस्तिष्क में अनेक भ्रान्त धारणाएं बैठ जाती हैं उनके निराकारण के लिए इस ग्रन्थ का अनेक बार अध्ययन सर्वथा अनिवार्य है।
8- इस सत्यार्थप्रकाश के प्रारम्भ में ‘त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि’ इत्यादि से जो प्रतिज्ञा की है उसी के अनुसार सम्पूर्ण ग्रन्थ में सत्यार्थ का प्रकाश करते हुए अन्त में प्रतिज्ञा का उपसंहार किया है।
9- अत्यन्त समृद्धिशाली, सर्वदेशशिरोमणि भारत देश का पतन किस कारण से हुआ एवम् उत्थान किस प्रकार हो सकता है, इस विषय पर इस ग्रन्थ में पूर्ण प्रकाश डाला गया है।
10- इस ग्रन्थ में आर्यसमाज और मत-मतान्तरों के अन्तर को अनेक स्थानों पर एवम् एकादश समुल्लास में विशेष रूप से खोलकर समझाया गया है।
11- मानव जाति के पतन का कारण मतवादियों की मिथ्या धारणाएं हैं जिनका खण्डन भी प्रमाण और युक्तिपूर्वक इस ग्रन्थ में किया गया है।
12- इसमें मूल दार्शनिक सिद्धान्तों को ऐसी सरल रीति से समझाया गया है कि जिसे पढ़कर साधारण शिक्षित व्यक्ति भी एक अच्छा दार्शनिक बन सकता है। जिस ने इस ग्रन्थ को न पढ़कर नव्य महाकाव्य अनार्ष ग्रन्थों के आधार पर दार्शनिक सिद्धान्तों को पढ़ा है उस की मिथ्या धारणाओं का खण्डन और सत्य मान्यताओं का मण्डन इस ग्रन्थ का अध्ययन करने वाला सरलता से कर सकता है।
13- ऋषि दयानन्द के मन्तव्यों पर इस ग्रन्थ को पढ़ने से पूर्व जितनी भी शंकाएं किसी (जिज्ञासु व शंकालु) को होती हैं वे सब इस के पढ़ने से समूल नष्ट हो जाती हैं क्योंकि उन सब शंकाओं का समाधान इसमें विद्यमान है।
14- वर्तमान में बने राजनीतिक दल पक्षपात से पूर्ण होने के कारण स्वयं सम्प्रदाय हैं। मतवादियों और उनमें शब्द मात्र का भेद है। तत्वतः उनमे ंअभेद है। उनके द्वारा साम्प्रदायिकता की बहुत वृद्धि हुई है। इस ग्रन्थ में साम्प्रदायिकता के स्वरूप और उसकी हानियों का यथार्थ दिग्दर्शन है। साम्प्रदायिकता को समूल नष्ट करने के उपाय भी इस ग्रन्थ में बताये गये हैं किन्तु खेद है कि दल (सम्प्रदाय) पक्षपात-रहित, मानव के कल्याणकारक ऋषि के पूर्ण सत्य मन्तव्यों को भी साम्प्रदायिक कह कर सम्प्रदाय शब्द के अज्ञानतापूर्ण दूषित अर्थ का प्रचार कर नास्तिकता का प्रचार कर रहे हैं और ‘उलटा चोर कोतवाल को दण्डे’ वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं।
लाला जी दुःखी हृदय से लिखते हैं कि यह बहुत आश्चर्य है कि आर्यसमाज के नेता भी ऐसे दलों के सदस्य हैं जो मतवादियों और आर्यसमाज में कोई भेद नहीं मानते। एकमात्र ऋषि दयानन्द ने ही इस ग्रन्थ में सब सम्प्रदायों को समाप्त कर एक सत्य-मतस्थ करने की प्रतिज्ञा की है और उसके उपाय भी बताये हैं। वह यह भी लिखते हैं कि ऋषि का यह वचन भी ध्यान देने योग्य है कि (मनुष्यों के लिए) जितना ज्ञान आवश्यक है वह वेदादि सच्छास्त्रों में उपलब्ध है। उनके ग्रहण में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है।
सत्यार्थप्रकाश सत्य का प्रचारक व असत्य के तिमिर का नाशक होने के कारण अन्य सभी मत पन्थ के धर्मग्रन्थों से श्रेष्ठ ग्रन्थ वा सर्वोत्तम धर्मग्रन्थ है। हमें यह वेदों का निचोड़ प्रतीत होता है। इसके पढ़ लेने से वेदों की सारभूत मान्यताओं का ज्ञान हो जाता है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर हम अपने सभी कर्तव्यों का निर्णय कर सकते हैं। सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कराने में भी सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ संसार के सभी ग्रन्थों में सर्वोपरि व सर्वोत्तम है। इसका अध्ययन व तदवत् आचरण कर मनुष्य श्रेष्ठ मानव बनकर अपने भावी जीवनों को सुधारता है और मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होता है। सत्यार्थप्रकाश का पाठक ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व सृष्टि के सत्य स्वरूप से परिचित होता है। मत-मतान्तरों के स्वार्थी व अज्ञानी आचार्य व अनुयायी सत्यार्थप्रकाश पढ़े हुए मनुष्यों को भ्रमित नहीं कर सकते। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर निश्चय ही मनुष्य का अभ्युदय होता है व निःश्रेयस का मार्ग प्रशस्त होता है। महात्मा दीपचन्द आर्य ने सत्यार्थप्रकाश का परिचय लिखकर सत्यार्थप्रकाश की विशेषाताओं को रेखांकित किया है। उन्होंने अपने जीवन में ऋषि मिशन को पूरा करने के लिए जो भी कार्य किये उसके लिए सारा आर्यजगत उनका आभारी है। हमारा सौभाग्य है कि हम एक बार जून, 1976 में 455 खारी बावली की उनकी दुकान पर उनसे मिले थे। उन्होंने हमें बहुत स्नेह दिया था। इस अवसर पर हमने सत्यार्थप्रकाश आदि कई ग्रन्थ भी उनसे प्राप्त किये थे। हमें याद है कि उन्होंने हमें कहा था कि सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करते हुए पहले भूमिका पढ़ना, उसके बाद समुल्लास 2 से 10 तक पढ़ना और इसके बाद प्रथम समुल्लास को पढ़ना। इसके बाद 11 से 14 तक के समुल्लासों को पढ़ना। लाला जी ने उन दिनों एक गुटका साइज के सत्यार्थप्रकाश का एक भव्य संस्करण भी प्रकाशित किया था। उसके अक्षर सामान्य आकार के थे। लगभग 1000 पृष्ठों का ग्रन्थ था। उसका मूल्य डेढ़ रूपया होता था। हम उस सत्यार्थप्रकाश को मंगाकर लोगों में वितरित करते थे। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।