हिंदू राष्ट्र स्वप्नद्रष्टा : बंदा वीर बैरागी
अध्याय —– 8
पंजाब में आकर करने लगा पुरुषार्थ
गुरु गोविंदसिंह जी और बंदा वीर बैरागी जो उस समय माधोदास के नाम से गोदावरी के तट पर अपना आसन लगाए पंचवटी में बैठे थे , की भेंट कैसे हुई ? – इस पर अपने विचार प्रकट करते हुए भाई परमानंद जी ने अपनी पुस्तक ‘ बंदा वीर बैरागी ‘ के पृष्ठ 34 पर लिखा है कि :– ” उज्जैन में गुरु गोविंदसिंह की दादूपंथी गुरु नारायणदास से भेंट हुई । वह रामेश्वर की यात्रा से लौट रहा था । गुरु गोविंदसिंह ने पूछा कि :- ” उधर क्या देखा ? ” नारायण दास ने कहा कि और तो सब मिट्टी पत्थर थे , किंतु नावेर में एक बैरागी महंत है , जो अद्वीतीय है । जिन्न और भूत उसके नौकर हैं । वह उसके वश में हैं । बस वह पुरुष देखने योग्य मालूम होता है । गुरु ने बैरागी से मिलने का दृढ़ निश्चय कर लिया था । वह घूमते हुए इसके मठ में जा निकले । दो वीरों की भेंट हुई । ऐसी परिस्थिति में ऐसे दो वीर कभी ना मिले होंगे । वे एक दूसरे को नहीं जानते थे , परंतु इनकी आत्माओं में वह वीरता का भाव था , जिसने दोनों को मिला दिया । गुरु गोविंद सिंह बड़ी-बड़ी कुर्बानियां कर चुके थे । जो बैरागी को अभी करनी थीं । भूत एक का था , भविष्य दूसरे का । यह भेंट जादू का एक खेल था । वैरागी ने अपनी मातृभूमि की अवस्था गुरु की आंखों में देखी । उसका नाश होते देखकर उसका ह्रदय छिन्न-भिन्न हो गया । वह दूसरी बार थी जब बैरागी के जीवन में एक और महान परिवर्तन हुआ । गर्भिणी हिरणी के शिकार पर उसके नन्हें बच्चों की तड़प और मृत्यु ने बहादुर शिकारी राजपूत लक्ष्मण को बैरागी माधोदास बना दिया था । दुनिया से मुख मोड़ संबंधियों से नाता तोड़ इसे जंगल में भटकने पर मजबूर कर दिया था । अब एक सच्चे क्षत्रिय से भेंट हुई । इस क्षत्रिय ने बैरागी के हृदय में अलग-थलग और बेपरवाह रहने वाले योग के ह्रदय में क्षात्र धर्म का बीज बो दिया । ठीक उसी तरह जिस तरह धनुष बाण को छोड़कर अपने संबंधियों के मोह में पड़े हुए अर्जुन को कृष्ण भगवान ने क्षत्रिय धर्म का उपदेश दिया । गुरु गोविंद सिंह ने बैरागी को अपनी मातृभूमि के दुख का चित्र दिखाकर उसे कष्टों से निकालने के लिए वीररस का पान करने पर तैयार किया । साधु बैरागी को दोबारा शस्त्रधारी क्षत्रिय बना दिया ।
पहली बार हिरणी के बच्चों की मौत ने इसके अंदर परिवर्तन उत्पन्न किया , किंतु दूसरी बार अपनी जाति के दुखड़े ने और परिवर्तन पैदा कर दिया ।
— – – – भेट में गुरु ने बैरागी की कीर्ति और योग्यता की बड़ी प्रशंसा की । बैरागी ने उत्तर दिया :– ” मैं आपका बंदा हूं । ” गुरु ने कहा :- ” बंदा हो तो अपनी माता की वंदना करो । ” बैरागी ने आज्ञा मान ली । सिक्खों में उसका नाम ही ‘बाबा बंदा ‘ पड़ गया । सिख इतिहास में इसे ‘ बंदा बहादुर ‘ कहा गया है । इस समय इसकी अवस्था 36 वर्ष की थी। ”
वंदना कर भारती की सबसे बड़ा यह धर्म है ,
जग में न कोई इससे बड़ा और पवित्र कर्म है ।
मानवता और धर्म को जो साथ साथ तोलती ,
सुन वेदना माँ की तनिक और जान ले क्या मर्म है ?
लक्ष्मण देव से माधोदास बने बैरागी अब बंदा बहादुर बैरागी हो गये थे । ऐसा क्यों हो रहा था कि इस व्यक्ति के हृदय में बार बार परिवर्तन हो रहे थे , कहीं उसकी भक्ति में शिथिलता थी या कोई और बात थी ?
इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए हमें यह देखना पड़ेगा कि इस व्यक्ति का जीवन कुल मिलाकर कैसा रहा ? यदि इस पर चिंतन किया जाए तो बंदा बहादुर का जीवन भक्ति और राष्ट्रप्रेम वाला रहा । उसके जीवन के इस मर्म को समझने के उपरांत यह नहीं कहा जा सकता कि उसका चित्त डाँवाडोल था , या उसकी भक्ति में कहीं शिथिलता थी।
किसी भी व्यक्ति के बारे में कोई भी धारणा बनाने से पहले उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि , मानसिकता , सोच और उसके पालन-पोषण के परिवेश आदि पर भी विचार करना चाहिए । यदि हम बंदा बहादुर बैरागी के बारे में इन सब परिस्थितियों पर विचार करते हैं तो वह मौलिक रूप में जिन भारतीय संस्कारों में पला और बढ़ा था , उनके अनुसार उस पर भारतीय संस्कृति की वह संवेदनशीलता सदा हावी – प्रभावी हुई दिखाई देती है जिसके चलते मानवतावाद इस व्यक्ति पर सदा छाया रहता है । जब हिरणी के बच्चों की पीड़ा लक्ष्मण देव ने देखी तो वह अपनी मानवता के कारण और धर्म की मर्यादा को पहचानकर स्वयं वेदना से कराह उठा था । अब जब गुरु जी ने उसे राष्ट्र की वेदना दिखाई और राष्ट्र के अनेकों बच्चों को माँ भारती के गर्भ में उसी प्रकार वेदना से चीखते या प्राण त्यागते हुए दिखाया , जिस प्रकार हिरणी के गर्भ में बच्चे तड़पकर अपनी वेदना प्रकट करते हुए प्राण त्याग गये थे तो अब इस प्रकार के चित्रण को देखकर माधोदास को ‘ गुरु का बंदा ‘ बनने में देर नहीं लगी ।
ये दोनों घटनाएं लगभग एक ही जैसी थीं । उस समय हिरणी के बच्चे देखे गए थे तो इस बार मां भारती के बच्चे देखे गए थे । अंतर केवल इतना था कि वह हिरणी एक प्राणी थी , जिसको शिकार के रूप में स्वयं लक्ष्मण देव ने मार गिराया था । जबकि मां भारती हमारे लिए युग – युगों से जुड़ा हुआ एक आस्था का प्रश्न रहा है। मातृभूमि की सेवा हमारे शिवसंकल्पों में सम्मिलित रही है । मां भारती की सेवा के लिए हमने युग – युगों से रण सजाएं है । मां भारती की सेवा में हमारे वे सभी मानवीय , सामाजिक , राजनीतिक , धार्मिक और नैतिक मूल्य सम्मिलित हैं , जो मानवता के उत्थान और उद्धार के लिए हर युग में आवश्यक रहे हैं , और तब तक आवश्यक रहेंगे जब तक कि यह सृष्टि है । कहने का अभिप्राय है कि मां भारती की सेवा का अर्थ है मानवता की सेवा करना । मां भारती के अस्तित्व के संकट का अभिप्राय भी यही है कि मानवतावाद को संकट है।
दोनों घटनाओं ने बंदा बहादुर पर समान प्रभाव दिखाया और इस व्यक्ति के भीतर जहां पहली घटना ने शास्त्र के प्रति रुचि जगाई , वहीं अब दूसरी घटना से शस्त्र के प्रति रुचि उत्पन्न हो गई । उसने सोच लिया कि जीवन का सच्चा रस इसी में है कि दीन दुखियों की सेवा की जाए और दुख के मारे तड़पती हुई मां भारती के लिए यदि अपना बलिदान भी दे दिया जाए तो भी कोई बुराई नहीं है । अब उन्होंने नर की सेवा में नारायण की सेवा को देखा । इसीलिए वह अब दूसरे रूप में अवतरित होने के लिए तैयार हो गए।
यह देश ही हमारा देव है और आस्था का केंद्र है ,
युग – युगों से इसकी पूजा , करते रहे देवेंद्र हैं ।
संस्कृति इसकी मिटाना चाहता रहा है शत्रु सदा ,
शर संधान हेतु अर्जुन बनो ! मां का यही आदेश है ।।
इतिहास के विद्यार्थियों के लिए कितने आश्चर्य और कौतूहल का विषय है कि अकबर से लेकर औरंगजेब तक जितने भी मुगल बादशाह हुए उन सबने भारतीय धर्म व संस्कृति को मिटाने का भरसक प्रयास किया , इसके लिए उन्होंने लाखों – लाखों लोगों की सेनाएं सजाईं और भारतीयों के भीतर ही फूट डाल – डालकर भारतीयों से ही भारतीयों को ही मरवाने – कटवाने का हर संभव प्रयास किया । इसके उपरांत भी यहां पर उनका सामना करने के लिए हर मुगल बादशाह के समय में कोई न कोई ‘महाराणा ‘ कोई न् कोई ‘ शिवाजी ‘ या फिर गुरु ‘ गोविंदसिंह ‘ उत्पन्न होता रहा ।अब इसी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए माधोदास मैदान में उतर चुके थे। वे पंजाब के लिए प्रस्थान कर चुके थे । उन्हें न केवल अपने देश के इन महान योद्धाओं की परंपरा को आगे बढ़ाना था ,अपितु आपने देश के धर्म व संस्कृति की रक्षा भी करनी थी । लोगों को यह आभास भी दिलाना था कि वे निश्चिंत होकर रहें , क्योंकि अब मैं स्वयं उनकी रक्षा के लिए मैदान में उतर आया हूं ।
इस समय मुगलों को जहां अपने पूर्वजों तैमूर आदि के उन अत्याचारों की विरासत की रक्षा की चिंता थी , जिन्होंने भारत में रहकर लोगों के सिरों की मीनारें चुनवाईं या लाखों – लाखों लोगों को एक साथ मरवाया , वहीं गुरु गोविंदसिंह के इस बंदे को अपने गुरुओं की उस परंपरा की रक्षा करनी थी जो भारतीयता को जीवंत बनाए रखने के लिए जन्मी थी । मुगलों ने अपनी बड़ी- बड़ी सेनाएं खड़ी कीं , उन बड़ी-बड़ी सेनाओं का अहंकार उनके सिर पर चढ़कर बोल रहा था । ये सेनाएं भारत को लूटकर भारत के ही धन से भारत को ही समाप्त करने के लिए तैयार की जा रही थीं । उस समय के मुगलिया लोकतंत्र या राजशाही का यही नियम था कि भारत को भारतीयों के द्वारा ही लूटो और भारतीयों के मध्य फूट डालकर उनके दलन व दमन का पूर्ण प्रबंध करो । मुगल सैनिकों और मुगल बादशाहत को अपने इस सारे तामझाम पर बहुत बड़ा घमंड था , जबकि हमारे बंदा वीर बैरागी के सामने ऐसा कोई बड़ा तामझाम नहीं था । उसे भारत की ही सहायता लेकर भारत को ही बचाना था और सहायता भी उस भारत से लेनी थी जो विदेशी सत्ताधारियों के अत्याचारों से इस समय बहुत कुछ बर्बाद हो चुका था । स्पष्ट है कि उसके सामने बहुत बड़ी चुनौती थी ।
कर भारतीयता को सुरक्षित हित इसी में देश का ,
बंधु ! तभी मिटेगा विश्व से संताप हर क्लेश का ।
ऋषियों की पवित्र वेदवाणी गूंजती रहे अविरत सदा , यही सार हमारे वेद का , यही सार ऋषि उपदेश का।।
गोदावरी के तट से उठ खड़ा होकर बंदा बैरागी पंजाब के लिए चल पड़ा था । उसके साथ उस समय कुछ सिक्ख भी थे । ये सारे लोग अभी बैरागी के प्रति बहुत अधिक निष्ठावान नहीं थे । उनकी निष्ठा गुरु गोविंदसिंह के प्रति ही थी । यद्यपि गुरु गोविंदसिंह के कहने से ही बंदा बैरागी मातृभूमि की रक्षार्थ नावेर से चलकर पंजाब पहुंचना चाहता था । ऐसी परिस्थितियों में बंदा बैरागी के समक्ष इन सिक्खों का विश्वास जीतने का प्रश्न बहुत बड़ा था । वह यह भली प्रकार जानता था कि पंजाब में जाने का अर्थ है कि सिक्खों का विश्वास अवश्य जीता जाए । क्योंकि पंजाब में सिक्खों की सहायता के बिना कोई भी कार्य होना संभव नहीं है।
भरतपुर पहुंचने पर पंजाब के कुछ व्यापारी गुरु के इस बंदे से मिलने के लिए आए । उन व्यापारियों ने बंदा बैरागी को बहुत बड़ी धनराशि देश सेवा के लिए प्रदान की । इस धनराशि को प्राप्त कर बंदा बैरागी ने अपने बौद्धिक चातुर्य का परिचय देते हुए इस समस्त धनराशि को अपने सिक्ख साथियों में वितरित कर दिया। बैरागी की रणनीति काम कर गई , उसके इस त्यागपूर्ण कार्य को देखकर गुरु के वे सभी सिक्ख बैरागी के शिष्य बन गए । श्रावण सम्मत 1764 में ये लोग नगरकोट होते हुए टोहाना पहुंचे । यहां पहुंचकर बैरागी ने मालवा के सिखों के नाम एक पत्र लिखा । अब उसके पास अनेकों सिक्ख आने लगे थे । उन लोगों को यह विश्वास हो चला था कि बंदा बैरागी गुरु गोविंदसिंह जी के पदचिन्हों पर चलते हुए उनके महान कार्य को पूर्ण करना अपने जीवन का लक्ष्य बना चुका है। इसलिए यदि इस व्यक्ति को अधिक से अधिक सहायता दी जाए तो गुरु का लक्ष्य प्राप्त किया सकता है । उन लोगों के भीतर देशभक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी । अब जब बंदा बैरागी उन्हें गुरु के प्रति निष्ठावान एक योद्धा के रूप में प्राप्त हुआ तो उनकी इस देशभक्ति को और पंख लग गए । बंदा बैरागी लोगों से किसी प्रकार से भी यदि धन आदि प्राप्त करता था तो वह उसे अपने सिक्ख भाइयों में बांट देता था । इस लालच से सिक्ख उनके पास और भी बड़ी संख्या में आने आरंभ हो गए।
महान ब्रह्मवेत्ता रैक्व ऋषि एक बार राजा जनक के पास पहुंचे । राजा जनक उनकी साधना के बारे में पूर्व से ही बहुत कुछ सुन चुके थे । इसलिए उनसे बहुत प्रभावित थे । आज जब वह स्वयं जनक के पास पहुंच गए थे तो राजा जनक की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था । राजा जनक ने रैक्व से प्रार्थना की कि — ” महाराज ! आपने जो मुझे ज्ञान दिया है और साधना का मार्ग समझाया है , उससे मैं बहुत अधिक प्रभावित हुआ हूं । मैं आपके द्वारा दिए गए इस ज्ञान के बदले में पूरा राज्य आपको अर्पित करना चाहता हूं । रैक्व ऋषि ने कहा : – ” जनक मुझे तुम्हारा राज्य नहीं चाहिए , क्योंकि मेरी राजसिक प्रवृत्ति नहीं है । राज्य प्राप्त करने की इच्छा उसी व्यक्ति की होती है , जिसकी राजसिक प्रवृत्ति हो । मैंने रजोगुण और तमोगुण दोनों पर विजय प्राप्त कर ली है । अतः मैं अब इनके भंवर जाल में फंसना नहीं चाहता । मैं सतोगुण की साधना में लगा हुआ हूं और अपनी सात्विक वृत्तियों के चरम विकास पर पहुंचकर मोक्ष को प्राप्त करना चाहता हूं । इसलिए मुझे राज्य देने के अपने प्रस्ताव को वापस लो।
ऐसा सुनकर जनक ने ऋषि से फिर निवेदन किया :– ” मैं दक्षिणा स्वरूप यदि कुछ आपको देना चाहूंगा तो ? ” इस पर रैक्व नहीं राजा जनक से कहा :— ” यदि तुम देना ही चाहते हो तो राज्य नहीं , राज्य देने का अहंकारमय संकल्प मुझे दे दो ।” जनक को रैक्व के इस कथन का रहस्य समझ आ चुका था । उनका मस्तक अहंकार शून्य हो झुक गया था । ऋषि के इन शब्दों ने उसके हृदय में उथल-पुथल मचा दी थी और बहुत बड़ा बदलाव उसके जीवन में आ गया था।
बंदा बैरागी भी आज पंजाब के सिक्खों से कुछ मांग रहा था । वह उनसे धन संपत्ति नहीं मांग रहा था , अपितु मां भारती की सेवा के लिए हिंदू राष्ट्र निर्माण का संकल्प अपने सिक्ख साथियों से मांग रहा था । उसका स्पष्ट कहना था कि तुम चाहे संसार के सारे ऐश्वर्य मेरे से ले लो , जो भी धनसंपदा मेरे पास लोगों की ओर से आए उसे भी ले लो , पर मुझे हिंदूराष्ट्र निर्माण के संकल्प में सहयोगी और सहभागी बनने का वचन दे दो।
अहंकारमय संकल्प ही मानव को पतित करते यहां , अहंकारशून्य हृदय रखो , सनातन वेद कहते यहां ।
सदा देवभक्ति देशभक्ति ह्रदय में मचलती रहे ,
द्वंद्वातीत बने मानव ही , सदा अमर रहते यहां ।।
जब बैरागी पंजाब पहुंच गया और वहां पर गुरु गोविंद सिंह के सपनों के अनुसार देश निर्माण के अपने शिवसंकल्प को साकार करने में लग गया तो उसी समय उस पर एक सांसारिक विकार ने भी आक्रमण किया । काम के वशीभूत होकर उसने अपना विवाह कर लिया । यह कोई बुरी बात नहीं थी । जब एक योद्धा संसार में आकर रहने लगे तो उसे नियमित रूप से अपनी गृहस्थी बसाने का भी अधिकार है , परंतु क्योंकि वह पूर्व में साधु रह चुका था , इसलिए सिक्ख लोगों ने उसके विरुद्ध यह कहना आरंभ कर दिया कि बैरागी को गुरु गोविंदसिंह ने दीक्षा देते समय यह कहा था कि तुम कभी भी विवाह न करना , परंतु इसने गुरु की आज्ञा की अवहेलना करते हुए विवाह कर लिया है । जिससे इसका तप भंग हो गया है और अब यह हमारे योग्य नहीं रहा । बंदा बैरागी के इस कदम पर हमारा मानना है कि यदि उसने अपने भीतर विवाह की इच्छा होने पर विवाह कर लिया तो यह कोई बुरी बात नहीं थी । बुरी बात तब होती जब वह साधु बना रहकर वीर्यनाश करता और एक या अनेकों महिलाओं से अनैतिक संबंध बनाता ।
ऐसा भी संभव है कि गुरु गोविंदसिंह के सपनों के भारत को नष्ट भ्रष्ट करने के लिए उसके शिष्यों में इस प्रकार का भटकाव उत्पन्न करने की योजना मुगलों की ओर से भी तैयार कराई गई हो । जिसे उस समय न तो सिक्ख समझ पाए हों और ना ही हमारा चरितनायक बंदा बैरागी या उसके साथी ही समझ पाए हों । कारण चाहे जो भी रहे हों , परंतु बंदा बैरागी के द्वारा विवाह कर लेने के उपरांत जब सिक्खों ने उसका साथ छोड़ना आरंभ किया तो उसे इस प्रकार सिक्खों के द्वारा किये गये कार्य से झटका अवश्य लगा।
बंदा बैरागी ने राजधर्म में प्रवृत्त होने के पश्चात मंडी की रियासत की एक कन्या से अपना यह विवाह किया था। अधिकांश इतिहासकारों ने उसके इस विवाह संस्कार में किसी प्रकार का कोई दोष नहीं देखा है , अपितु इसे उचित ही माना है । यह अलग बात है कि उनके ही लोगों ने इस विवाह को उनके विरुद्ध दुष्प्रचार करने के एक साधन के रूप में अपना लिया और उन्हें जितना अधिक से अधिक अपयश का पात्र बनाया जा सकता था , उतना बनाने का प्रयास किया । इस दुष्प्रचार को प्रोत्साहित करने के लिए सिक्खों या गुरु परंपरा से विरोध रखने वाली शक्तियों ने भी अपना भरपूर समर्थन प्रदान किया । जिससे इस महान व्यक्तित्व के धनी बंदा बैरागी को अपमानित , लज्जित और अपयश का पात्र बनाया जा सके।
अपने प्रति रचे जा रहे षडयंत्र से पूर्णतया उदासीन रहकर बंदा बैरागी देश के लिए महान पुरुषार्थ में जुट गया । क्योंकि वह जानता था कि जैसे बीज खेत में बोए बिना फल नहीं दे सकता , उसी प्रकार दैव अर्थात प्रारब्ध भी पुरुषार्थ के बिना सिद्ध नहीं होता । दैव तभी सिद्ध होगा जब व्यक्ति पुरुषार्थी होगा । इसलिए पुरुषार्थ से मुंह मोड़ना , समझो अपने लक्ष्य से भटकना है । बंदा बैरागी के तो तीर भी लक्ष्य से नहीं भटकते थे । इसलिए वह स्वयं भटकने वाला नहीं था । वह जानता था कि पुरुषार्थ खेत है और दैव को इस खेत का बीज बताया गया है । खेत और बीज के परस्पर सम्मेलन से अर्थात संयोग से ही अनाज की उत्पत्ति होती है । यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है , परंतु यह भौतिक जगत के लोगों के लिए बहुत कुछ शिक्षा देती है । इस शिक्षा से प्रेरित होकर बंदा बैरागी अपने देश सेवा के महान कार्य में लग गया । उसका स्पष्ट चिंतन था कि मनुष्य को पुरुषार्थमय तपस्या से रूप , सौभाग्य और अनेकों प्रकार के रत्न प्राप्त होते हैं । इसलिए देश को यदि आगे बढ़ाना है और देश ,धर्म व संस्कृति की रक्षा करते हुए जीवन को उन्नतिशील बनाना है तो इस प्रकार के कर्म से सब कुछ मिल सकता है । वह नहीं चाहता था कि भाग्य के भरोसे बैठकर अकर्मण्य लोगों में अपनी गिनती कराई जाए।
पंजाब की गुरु परंपरा अपने पुरुषार्थ के कारण ही आगे बढ़ रही थी और भारत का स्वाधीनता आंदोलन पिछली कई शताब्दियों से जिस प्रकार लड़ा जा रहा था , उसके पीछे भी हमारे महान योद्धाओं का पुरुषार्थ ही कार्य कर रहा था । यही कारण था कि बंदा बैरागी महान पुरुषार्थ के लिए उठ खड़ा हुआ । वह जानता था कि जैसे थोड़ी सी भी आग वायु का सहारा पाकर बहुत बड़ी हो जाती है , उसी प्रकार पुरुषार्थ का सहारा पाकर दैव का बल विशेष रूप से बढ़ जाता है । इसलिए मनुष्य को पुरुषार्थी होना चाहिए । पुरुषार्थी मनुष्य असंभव से असंभव कार्य को भी करने में सफल हो जाता है ।
जैसे तेल समाप्त हो जाने से दीपक बुझ जाता है , उसी प्रकार पुरुषार्थ के क्षीण हो जाने पर वैभव भी नष्ट हो जाता है । अतः वैभवाभिलाषी व्यक्तियों को पुरुषार्थी होना ही चाहिए । कहने का अभिप्राय है कि मां भारती के सम्मान को यदि लौटाना है तो सभी राष्ट्र वासियों को पुरुषार्थी होना ही होगा । बंदा बैरागी ने अपने स्वयं के लिए और अपने सभी साथियों के लिए पुरुषार्थ को एक आवश्यक नियम मान लिया था।
पुरुषार्थ हीन मनुष्य धन का बहुत बड़ा भंडार , भांति भांति के भोग और स्त्रियों को पाकर भी उनका उपयोग नहीं कर सकता , किंतु सदा उद्योग में लगा रहने वाला महा मनस्वी पुरुष बुद्धिमानों द्वारा सुरक्षित तथा गाडकर रखे हुए धन को भी प्राप्त कर लेता है । कहने का अभिप्राय है कि यदि भारत को स्वतंत्र करना है , भारत की संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करते हुए भारत के प्राचीन गौरवमयी अतीत को स्थापित करना है , और उसे फिर से विश्व गुरु बनाना है तो इसके लिए पुरुषार्थ को अपनाकर चलना ही होगा । इसी लक्ष्य को लेकर और गुरुओं के आदर्शों को शीश झुका कर बंदा बैरागी महान भारत के निर्माण के महान संकल्प को धारण कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चला ।
मुख्य संपादक, उगता भारत