भारत में न्याय और राम मंदिर
भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व के सशक्त न्यायालयों में गिना जाता है । इसने स्वतंत्रता उपरांत के बीते 72 वर्षों में अनेकों बार कार्यपालिका का मार्गदर्शन किया है , और न केवल मार्गदर्शन किया है अपितु कई बार तो हमें ऐसा भी आभास हुआ है कि जैसे देश को देश की न्यायपालिका ही संचालित कर रही है । अब देश के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात का सबसे महत्वपूर्ण वाद राम जन्मभूमि से संबंधित नित्य प्रति की सुनवाई में चल रहा है । पूरा देश ही नहीं अपितु समस्त संसार भी भारत के सर्वोच्च न्यायालय की निष्पक्षता को कसौटी पर कसकर देख रहा है । यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय भी इस विषय में बहुत फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है ।
इतिहास के तथ्य बोल रहे हैं कि राम जन्मभूमि , अयोध्या और अयोध्या से जुड़ी अतीत की सारी स्मृतियां इक्ष्वाकु वंशीय राजा राम और उनके वंशजों या पूर्वजों से जुड़ी हुई हैं । इसके उपरांत भी हमारा सर्वोच्च न्यायालय राम जन्म भूमि से संबंधित वाद को उसी प्रक्रिया के अंतर्गत निस्तारित करना चाहता है , जो प्रक्रिया भारत के संविधान ने किसी भी वाद के निस्तारण के लिए नियत की है । भारत जैसे लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक भी है कि वह मर्यादा पालन अवश्य करें । वैसे भी भारत मर्यादा पुरुषोत्तम राम और नीति निपुण योगीराज श्री कृष्ण का देश है । जिसमें मर्यादा और नीतिमत्ता दोनों का ही समन्वय रहकर धर्म शब्द की उत्पत्ति होती है , या धर्म शब्द की निर्मिति होती है । यह धर्म ही है जो इस देश के जन-जन को एक दूसरे से जोड़ता है , उनमें मर्यादा और नीतिमत्ता का संचार करता है । यह मर्यादा और नीतिमत्ता कहीं मानवीय प्रेम के रूप में प्रस्फुटित होती है तो कहीं यह मर्यादा और नीतिमत्ता मानवता के रूप में लहलहाती फसल की भांति हमें दिखाई देती है । वास्तव में इन्हीं से भारत , भारतीयता और भारतीय संस्कारों का निर्माण हुआ है । जो आज भी संसार के लिए कौतूहल , जिज्ञासा और आश्चर्य का विषय है । जो लोग भारत को खोजना चाहते हैं वह भारत को भारत की मर्यादा , नीतिमत्ता , न्याय , मानवता व नैतिकता में ही खोज सकते हैं । भारत इन महान मानवीय गुणों से सना हुआ स्नातक रूप में जब – जब विश्व मंच पर आया है तब – तब विश्व के लोगों ने उसके लिए सर्वोच्च आसन छोड़कर उसे अपना नेतृत्व प्रदान किया है । अतः इसलिए भी यह आवश्यक है कि हम राम जन्मभूमि से संबंधित वाद में किसी भी प्रकार की ऐसी कोताही न बरतें जिससे हमारी भारतीयता पर प्रश्नचिन्ह लगे । न्याय सारे संसार की समस्त भाषाओं की जननी संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ है- “व्युत्पत्ति के आधार पर मार्गदर्शन करने वाला”।
उत्पत्ति के आधार पर मार्गदर्शन करने वाला होने के कारण न्याय समीक्षा चाहता है । किसी भी समस्या के समाधान के लिए उसकी जड़ को खोदकर देखना चाहता है । वह जानना चाहता है कि सत्य क्या है ? ऋत क्या है ? सत्य और ऋत के आधार पर यह संसार चल रहा है । सत्य जिस दिन समाप्त हो जाएगा और ऋत जिस दिन संसार से विदा हो जाएगा उस दिन सब कुछ शून्यमय हो जाएगा । न्याय सत्य के सिद्धांतों की रक्षा के लिए ऋतानुकूल आचरण करने पर बल देता है । यह ऋतानुकूल आचरण ही प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की नींव रखते हैं । जिन्हें आज के समस्त संसार ने ” प्राकृतिक न्याय ” के नाम से अपने अपने कानूनों में स्थान दिया है । जब संसार प्राकृतिक न्याय की बात करता हो या संसार के बड़े-बड़े न्यायाधीश प्राकृतिक न्याय के अनुसार न्याय देने की बात करते हों , तब समझना चाहिए कि वह भारत के मूलभूत सिद्धांत को ही अपनाकर उसके अनुकूल आचरण कर रहे हैं ।भारत की जय हो।
न्याय का एक अर्थ नियम भी है । जो व्यक्ति को किसी निष्कर्ष, पाठ की व्याख्या के सिद्धांत या तर्क तक ले जाता है। भारतीय व्याख्यात्मक और विवेकपूर्ण चिंतन के आरंभिक काल में न्याय का उपयोग सामान्यत: मीमांसा द्वारा विकसित विवेचन के सिद्धांतों के लिये किया गया है। लेकिन बाद में इस शब्द का उपयोग भारतीय दर्शन की छह प्रणालियों (दर्शनों) में से एक के लिए होने लगा, जो अपने तर्क तथा ज्ञान मीमांसा के विश्लेषण के लिए महत्त्वपूर्ण था। न्याय दर्शन की सबसे बड़ी देन निष्कर्ष की विवेचना प्रणाली का विस्तृत वर्णन है।
अन्य प्रणालियों के समान न्याय में भी दर्शन और धर्म, दोनों हैं । जिस न्याय में दर्शन न हो , फिलॉस्फी ना हो , गहन चिंतन न हो , विचारपूर्वक किया गया निर्णय ना हो – वह न्याय नहीं होता । इसी प्रकार जिस न्याय में धर्म संगत विवेचना न हो अर्थात पूर्ण विवेचन शक्ति के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता न हो और साथ ही ऐसा न्यायसंगत निर्णय पारित करने की क्षमता ना हो जो दूध का दूध और पानी का पानी करने की अर्थात नीर क्षीर विवेक शक्ति से संपन्न न हो वह न्याय धर्मविहीन होने के कारण न्याय नहीं होता । यही कारण है कि भारत के ऋषियों ने दर्शन और धर्म को न्याय की आंख स्वीकार किया ।
न्याय का धार्मिक तत्व सामान्यत: आस्तिकता या ईश्वर के अस्तित्व को स्थापित करने से आगे नहीं बढ़ता। ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग को इसने विचार तथा तकनीक की अन्य परंपराओं के लिए छोड़ दिया है। न्याय का परम उद्देश्य मनुष्य के उस दु:खभोग को समाप्त करना है जिसका मूल कारण वास्तविकता की अज्ञानता है। अन्य प्रणालियों के अनुसार, इसमें भी यह स्वीकार किया जाता है कि सम्यक ज्ञान से ही मुक्ति मिल सकती है। इसके बाद यह मुख्यत: सम्यक ज्ञान के साधनों की विवेचना करता है।
न्याय मनुष्य की बुद्धि को तर्कसंगत तो बनाता ही है साथ ही उसे धर्मसंगत भी बनाता है और मानव को मानव से जोड़ते हुए एक दूसरे की संवेदनाओं के प्रति उसे सरस रहने के लिए प्रेरित भी करता है।
जो लोग पहले दिन से यह सोचते रहे हैं कि राम जन्मभूमि के पक्ष में निर्णय देने में न्यायालय शीघ्रता क्यों नहीं कर रहा ? जब यह सब कुछ स्पष्ट है कि वहां का मंदिर था तो न्यायालय इसको यथाशीघ्र सिद्ध क्यों नहीं कर देता कि अयोध्या में राम जन्मभूमि स्थल पर राम मंदिर था और वहां अब राम मंदिर ही बनना चाहिए ? उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि न्याय वही कहलाता है जो सब पक्षों को संतुष्टि प्रदान कर दे । जो लोग अभी तक विरोध में आवाज उठाते रहे थे उनकी भी उन सभी शंकाओं का समाधान हो जाए जिनके आधार पर वह राम जन्म भूमि पर राम मंदिर होना नहीं मान रहे थे ।
इसलिए यही कारण है कि हमारा सर्वोच्च न्यायालय विश्लेषणात्मक , तर्कसंगत बुद्धि का प्रयोग करते हुए इतिहास के सभी साक्ष्य व प्रमाणों को अपनी दृष्टि में रखकर सही निर्णय की ओर बढ़ रहा है । लोगों को धैर्य रखने की आवश्यकता है , वही निर्णय सामने आएगा जिसे इतिहास कह रहा है। इतिहास के सारे साक्ष्य कह रहे हैं और इतिहास के सारे प्रमाण आवाज लगा लगाकर या चीख – चीख कर बोल रहे हैं।
अतः हमको यह स्मरण रखना चाहिए कि हमारा न्याय ही है जो हमको यह कहता आया है कि सत्यमेव जयते अर्थात सत्य की विजय होती है । सांच को कभी आंच नहीं आ सकती – ऐसे में उतावलापन किस बात का और चिंता किस बात की ?
हम ऋतोपासक हैं , हम सत्योपासक हैं । ऐसे में असत्य के या मिथ्या के असत्य और मिथ्या भय से क्यों डरें ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत