” मैं तो आपका ही बंदा हूँ ”
रंग चढ़ा उस देश का मस्ती का चढ़ा नूर ।
रब की मस्ती छा गई क्लेश भए सब दूर ।।
लक्ष्मण देव से माधोदास बने बैरागी अब किसी दूसरे संसार में रहने लगे थे । इस संसार के भौतिक ऐश्वर्य अब उन्होंने त्याग दिए थे । अब उनका दरबार तो लगता था , परंतु उस दरबार में अलौकिक सत्ता की चर्चा होती थी । भक्तगण आकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते थे और साथ ही साथ ईश्वर की चर्चा सुनकर धर्म लाभ उठाते थे। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था। माधोदास के इस आध्यात्मिक दरबार में सारे ठाट – बाट स्थापित हो गए । उनके भक्तों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही थी । अब माधोदास को ऐसे अनेकों भक्त मिल चुके थे जो उनके नाम और काम पर अपना सर्वस्व समर्पित करने को तैयार थे । माधोदास के राजसी ठाठ बाट और संसार को छोड़कर इस नए संसार में आकर मिल रहे सुख वैभव के बारे में चर्चा करते हुए भाई परमानंद जी लिखते हैं :— ” जहां – जहां धर्म के नाम पर मठ और महंती गद्दी कायम हो जाती हैं , वे नाम को तो सत्य मार्ग कहे जाते हैं , किंतु वास्तव में इस संसार को ठगने का साधन होते हैं । वास्तव में इन मठाधीशों की आत्मिक उन्नति केवल आराम पसंदगी और शारीरिक सुख भोग की गुलामी होती है । शब्दों के परदे में संसार धोखा खाता है।”
भारत वैसे भी आध्यात्मिक देश है यहां पर अच्छा काम करने वाले लोगों को समर्थन देने वाले लोगों की बहुत लंबी पंक्ति लग जाती है । जो लोग देश धर्म समाज के उत्थान और प्रगति के लिए अच्छे कार्य करते हैं उन्हें लोग तन , मन , धन से अपना समर्थन प्रदान करते हैं ।
भारत की प्राचीन परंपरा रही है कि जो कुछ कमा रहे हो उसमें से कुछ देश , धर्म व समाज के लिए भी देते चलो। इसी संस्कार से प्रेरित होकर लोग माधोदास को भी दान आदि दे रहे थे । यद्यपि यह सही है कि माधोदास इस समय देश व धर्म के लिए कुछ भी काम नहीं कर रहे थे। वह आत्मकल्याण के लिए संसार को लात मारकर निकले थे । अब उन्हें संसार से कुछ लेना – देना नहीं था। भौतिक जगत की चिंताएं भौतिक जगत में ही छोड़कर अब वह अलौकिक सत्ता के सानिध्य में उसके परमानंद की प्राप्ति कर रहे थे और उसी में मस्त रहने में अपना लाभ देख रहे थे । जब संसार से विरक्ति हो जाए तो फिर संसार के लिए काम करने में व्यक्ति कोई लाभ नहीं देखता । संसार को संसार के लिए छोड़ देता है और अपना नाता उस परम सत्ता से जोड़ लेता है जिसके यहां से आनंद रस की बूंदें रिसती रहती हैं । ऐसी बूंदों का नशा जिन – जिन पवित्र आत्माओं पर चढ़ जाता है , वह उसके रस में भावविभोर होकर अपना जीवन यापन करने लगती हैं।
रब का रंग जिसको चढ़े , हो जाता मालामाल ।
दुनिया फीकी उसको लगे सब लोग लगें कंगाल ।।
संसार के लोगों के बारे में यह भी सच है कि जो व्यक्ति संसार से मुंह फेर लेता है , उसके पीछे यह अधिक भागते हैं । जो संसार को लात मारता है , संसार से कहता है कि मुझे तुझसे कुछ नहीं लेना – संसार के लोग उसी को अधिक गले लगाते हैं और उसी पर अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए तत्पर हो जाते हैं । संभवत इसीलिए किसी शायर ने लिखा :–
भागती फिरती थी दुनिया जब तलब करते थे हम ।
जब से नफरत हमने की , बेताब आने को है ।।
जिस समय संसार के सभी सुख ऐश्वर्यों को लात मारकर माधोदास पंचवटी के इस आश्रम में जाकर बैठे थे , उस समय पंजाब में गुरु गोविंद सिंह सिखों का नेतृत्व करते हुए हिंदू धर्म की रक्षा के लिए बहुत बड़ा कार्य कर रहे थे । जिस पर हम पूर्व पृष्ठों में अपना प्रकाश डाल चुके हैं । लगभग यही समय था जब दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके उत्तराधिकारी हिंदवी स्वराज्य के लिए प्राणपण से बड़ा कार्य कर रहे थे । कहने का अभिप्राय है कि उत्तर हो या दक्षिण हो , दोनों ओर उस समय हिंदुत्व की ध्वनि गूंज रही थी । लोग तत्कालीन मुगल बादशाहत से मुक्ति प्राप्त करने हेतु अपने दो नेताओं के नेतृत्व में कार्य कर रहे थे । यदि उत्तर भारत का नेता उस समय गुरु गोविंद सिंह को कहा जाए तो दक्षिण में हिंदुत्व की शक्ति के सर्व सामर्थ्ययुक्त ध्वजवाहक के रूप में उभरे शिवाजी और उनके उत्तराधिकारियों के नेतृत्व में इस महान कार्य को अंजाम दिया जा रहा था । वे सब मुगल सत्ताधीशों को इस देश के बाहर धकेल देना चाहते थे और हिंदुत्व की पताका फहराकर इस देश में फिर से हिंदवी स्वराज्य स्थापित कर इसे वेदों की पवित्र ऋचाओं से गुंजायमान कर देने के लिए कृतसंकल्प थे । कुल मिलाकर सर्वत्र हिंदुत्व की क्रांति की ध्वनि भारत की फिजाओं में गूंज रही थी , तैर रही थी , और भारत के गगन को देश भक्ति के बहुत ही मनमोहक संगीत से भर रही थीं ।
उधर इन सबसे उपराम होकर अर्थात उन सबके प्रति पूर्णतया उदासीन होकर हमारा यह चरितनायक पंचवटी के आश्रम में बैठा भक्ति में लीन था और अपने कुछ भक्तों के साथ ईश्वर चर्चा कर लेने में ही जीवन का वास्तविक आनंद खोज रहा था । माधोदास के आश्रम में सर्वत्र भक्ति का संगीत गूंज रहा था । उसमें आध्यात्मिक शांति थी और वहाँ जाकर लोगों को भौतिक जगत के दुख दारिद्र्य से मुक्ति सी मिलती थी। यही कारण था कि लोगों का आना-जाना , उठना – बैठना और अपने गुरु जी से ईश चर्चा कर शांतिलाभ लेना आनंददायक लग रहा था । माधोदास को इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि उत्तर में गुरु गोविंद सिंह और दक्षिण में शिवाजी महाराज या उनके उत्तराधिकारी उस समय क्या करते रहे थे या कर रहे थे ? कुल मिलाकर उनके लिए इस समय देश व धर्म पीछे रह गए थे और आत्म कल्याण में रत होकर ईश प्राप्ति उनके जीवन का ध्येय बन चुका था ।
परवाह नहीं थी देश की नहीं धर्म का ख्याल ।
ध्यान ईश में रम गया , वश में हो गया काल ।।
किसी संत के यहां पर प्रवचन चल रहे थे । तभी एक जिज्ञासु ने बड़े विनम्र भाव से गुरुदेव से प्रश्न किया कि — ” गुरुदेव ! मेरा ध्यान में मन क्यों नहीं लगता ?
ऐसा सुनकर संत बड़े विनम्र भाव से उस जिज्ञासु के प्रश्न का उत्तर देते हुए बोले :– ” वत्स ! ध्यान में रुचि तब आएगी जब व्यग्रता से उसकी अनुभूति का अनुभव करोगे । ”
तब गुरुदेव ने अपने उस जिज्ञासु शिष्य की शंका का समाधान करने के लिए बहुत सुंदर प्रसंग सुनाया । उन्होंने कहा कि एक सियार को बड़ी जोर से प्यास लगी थी । वह सियार व्याकुल होकर नदी के किनारे गया और पानी पीने लगा । पानी के लिए सियार की तड़प को देखकर नदी में तैर रही एक मछली ने उससे पूछ लिया कि :- ” बंधु ! तुम्हें पानी पीने में इतना आनंद क्यों अनुभव हो रहा है ? ऐसा ही आनंद इस जल में रहकर भी मुझे क्यों नहीं अनुभव होता ? ”
सियार ने मछली की मन:स्थिति को समझ लिया था। उसने भी उसे सही उत्तर देने के लिए सही रास्ता अपना लिया । सियार ने तुरंत उस मछली को पकड़कर तपती रेत पर फेंक दिया । मछली बिना पानी के कुछ क्षणों में ही छटपटाने लगी । उसकी स्थिति बड़ी दयनीय हो गई थी । अब वह मृत्यु के सर्वथा निकट पहुंच गई थी । तभी सियार ने उसे पुनः पानी में फेंक दिया । तब मछली की जान में जान आई और वह उस सियार से कहने लगी :- ” सियार बंधु ! मुझे अब पता चला कि पानी ही मेरा जीवन है । इसके बिना मेरा जीना असंभव है । ”
गुरुजी ने अपने जिज्ञासु शिष्य की शंका का समाधान करने के दृष्टिकोण से इस प्रसंग को सुनाने के पश्चात कहा कि वत्स ! मछली की भांति जब मनुष्य व्यग्रता से ध्यान की अनुभूति का आभास करता है , और जब ऐसा भाव उत्पन्न कर लेता है कि अब वह उसके बिना रह ही नहीं पाएगा , तभी उसका ध्यान में मन लगना आरंभ होता है । हमें ध्यान को अपने जीवन की आवश्यकता बनाना होगा । उस आवश्यकता के लिए अपने मन में व्यग्रता उत्पन्न करनी होगी । गुरुजी के ऐसा कहने पर शिष्य की शंका का पूर्ण समाधान हो गया था ।
माधोदास अपने भीतर ऐसी ही व्यग्रता को उत्पन्न कर संसार को छोड़कर निकला था । इसलिए उससे यह अपेक्षा अब नहीं की जा सकती थी कि वह संसार के आकर्षणों में फिर फंसेगा , जिन्हें वह लात मारकर यहां आया था । यही कारण था कि वह देश की समस्याओं से भी सर्वथा विरक्त होकर अपने आश्रम में प्रभु भक्ति में लीन हुआ बैठा था।
माधोदास की इस प्रकार की भक्ति की भावना और प्रभु भक्ति की चर्चा अब देश के कोने – कोने में फैलने लगी थी । धीरे-धीरे उसकी कीर्ति की चर्चा गुरु गोविंदसिंह जी के कानों तक पहुंची । गुरु गोविंदसिंह उस समय बहुत बड़ा कार्य कर रहे थे और उनका यह कार्य था – देश व धर्म की रक्षा के लिए चेहरों को तलाशने और तराशने का कार्य । वह चेहरों की तलाश कर रहे थे। उन्हें खोज रहे थे । बहुत गहरे उतरकर मोतियों को लाने का उद्यम कर रहे थे और उन मोतियों से देश की एक ऐसी माला तैयार कर रहे थे जो मां भारती के गले की शोभा बन जाए । वह अमूल्य मोतियों को चुन रहे थे और बहुत बड़ा पुरुषार्थ कर देश की आजादी का संघर्ष अपने स्तर पर , अपने ढंग से, और अपने
उपायों के माध्यम से लड़ रहे थे । उन्हें मां भारती के गले के लिए बनने वाली माला के लिए मोतियों की तो आवश्यकता थी ही , साथ ही ऐसे योद्धाओं की भी आवश्यकता थी जो मां भारती के पाशों को काटने का कार्य करे । यही कारण था कि वह चेहरों को तलाशने और तराशने का कार्य कर रहे थे । उन्हें जो भी योद्धा किसी रूप में कहीं पर भी मिलता था , उसे तुरंत उठाकर मां भारती के लिए तैयार करने लगते थे । उनके समय में उनके द्वारा चेहरों को तलाशने और तराशने की यह बहुत बड़ी क्रांति हो रही थी। आगे चलकर हमारे अनेकों क्रांतिकारियों और गांधी जी ने भी गुरु गोविंद सिंह जी के इस कार्य का अनुकरण किया था । उन्होंने भी अपने समय में बहुत से लोगों को घर जा – जा कर तैयार किया था कि देश व धर्म के लिए उठो , घर से बाहर निकलो और देश के लिए कुछ करना सीखो।
चेहरों की करते सदा महापुरुष यहां खोज ।
खोज कर उनमें भरें देश – धर्म का ओज।।
जब गुरुदेव गोविंद सिंह को बैरागी माधोदास के बारे में जानकारी मिली तो वह अपने प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए इस योद्धा से मिलने के लिए उसके आश्रम के लिए चल देते हैं । उन्हें भी ‘पंच प्यारों ‘ की खोज थी । ऐसे पंच प्यारे जो ‘राष्ट्रमेव जयते ‘ का घोष लगाकर देश के लोगों का सैनिकीकरण करने में उनकी तन , मन , धन से सहायता कर सकें । वह ‘ शस्त्रमेव जयते ‘ की धारणा में विश्वास रखते थे , और उस समय देश व धर्म की रक्षा के लिए ‘ शस्त्रमेव जयते ‘ की परंपरा में विश्वास रखने वाले योद्धाओं की ही आवश्यकता थी । जो एक महान क्रांति के लिए तैयार हों और तत्कालीन क्रूर मुगल सत्ता को जड़ से उखाड़ने में उनके लिए सहायक सिद्ध हों । निश्चय ही बैरागी माधोदास के भीतर ये सारे गुण उपलब्ध थे । यही कारण था कि उनके नाम की प्रशंसा सुनकर गुरु गोविंदसिंह जी स्वयं उनसे मिलने के लिए उनके पास चल दिए।
गुरु गोविंद सिंह उस समय अपने दो सपूतों का बलिदान देश व धर्म के लिए दे चुके थे । यही कारण था कि उनके भीतर देश व धर्म की रक्षा के लिए लावा और भी तीव्रता से धधकने लगा था । उनकी स्थिति कुछ वैसी ही हो गई थी जैसी अपने अभिमन्यु को महाभारत के युद्ध में गंवाने के पश्चात अर्जुन की हो गई थी । जिस प्रकार अर्जुन ने यह संकल्प ले लिया था कि कल सूर्यास्त से पहले – पहले मैं जयद्रथ का वध कर दूंगा , कुछ वैसा ही संकल्प गुरु गोविंदसिंह जी ले चुके थे । वह भी चाहते थे कि मेरे जीवन का सूर्यास्त होने से पहले – पहले उन अत्याचारी हाथों का सर्वनाश कर दिया जाए , जिन्होंने इस देश के अनेकों फतेहसिंह और जोरावरसिंहों का बलिदान लिया है या हमारी संस्कृति को मिटाने की अपनी क्रूर चालें यहां पर चली हैं ।
जब गुरु गोविंद सिंह जी गोदावरी के तट पर साधनारत बैरागी माधोदास के पास पहुंचे तो अचानक गुरु गोविंदसिंह को अपने समक्ष उपस्थित देखकर माधोदास आश्चर्यचकित रह गये ।उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि गुरु गोविंदसिंह कभी उनके समक्ष इस प्रकार प्रकट हो सकते हैं । उन्हें आज भी यह पता नहीं था कि गुरु गोविंदसिंह आज उन्हें साक्षात कृष्ण के रूप में मिलने आ रहे हैं । जी हां , वही कृष्ण जिन्होंने युद्ध से विमुख हुए अर्जुन को महाभारत के युद्ध के बीच कुरुक्षेत्र के रण में खड़े होकर अपना गीता का अमृतोपम संदेश सुनाया था। अंतर केवल इतना था कि उस समय का अर्जुन युद्ध के मैदान में जाकर युद्ध से भागने की बात कर रहा था और आज का अर्जुन युद्ध के मैदान से ही जाने – अनजाने में मुंह फेरे बैठा था।
गुरु गोविंदसिंह आज भारत की इसी परंपरा को पुनर्जीवित करते हुए स्वयं ‘अर्जुन ‘ के पास जा खड़े हुए और ‘ अर्जुन ‘ से कहने लगे कि :— ” हे माधोदास ! संपूर्ण भारतवर्ष इस समय कुरुक्षेत्र बन चुका है । महाभारत के युद्ध के समय तो फिर भी युद्धक्षेत्र की सीमाएं खींच दी गई थीं कि इन सीमाओं के भीतर आकर युद्ध करने वाला व्यक्ति ही युद्धरत माना जाएगा , या युद्धाभिलाषी कहा जाएगा । इससे बाहर काम करने वाला कोई भी व्यक्ति न् तो मारा जाएगा और ना ही उसे किसी प्रकार का कष्ट दिया जाएगा । परंतु आज देखिए यह सारा भारतवर्ष इन मुगल क्रूर शासकों ने कुरुक्षेत्र के मैदान में परिवर्तित कर दिया है । युद्धाभिलाषी लोग तो इनके निशाने पर हैं ही साथ ही वे लोग भी उनके निशाने पर हैं जो युद्ध की ना तो इच्छा रखते हैं और ना ही युद्ध में किसी भी प्रकार से सम्मिलित होना उचित मानते हैं ।
हे अर्जुन ! इस समय देश में मुगल सत्ताधारियों के द्वारा बड़े बड़े नरसंहार किए जा रहे हैं । लोगों का धर्मांतरण हो रहा है । चोटी जनेऊ को अपूर्व संकट उत्पन्न हो गया है । सर्वत्र मारामारी और एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करने की होड़ शासन स्तर पर लगी हुई है। ऐसे में तुम गोदावरी के तट पर आकर क्यों रथ के पृष्ठ भाग में मुंह छिपाए बैठे हो ? खड़े होओ और इन शत्रुओं का संहार करने के लिए मां भारती की मौन पुकार को सुनो । इससे तुम्हें धर्म लाभ मिलेगा और यदि तुम इन अत्याचारियों का संहार करते हुए संसार से चले गए तो तुम्हें निश्चय ही स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
हे माधोदास ! जब देश – धर्म की रक्षा के लिए वीरों की आवश्यकता हो , तब कोई आप जैसा योद्धा रथ के पृष्ठभाग में जाकर बैठ जाए तो समझो कि मां भारती के लिए बहुत ही लज्जाजनक स्थिति उत्पन्न हो चुकी है । तुम जैसे योद्धाओं को इस समय रणक्षेत्र में उतरकर मां भारती के मौन आवाहन को सुनना चाहिए और यहां से उन शत्रुओं को बाहर निकालना चाहिए , जिन्होंने यहां आकर इस देश की संस्कृति का सर्वनाश कर दिया है । इन्होंने लोगों में प्यार प्रीत के स्थान पर वैर भाव का बीजारोपण कर दिया है । सर्वत्र मानवीय मूल्यों का नाश करते हुए यहां पर पाशविक संस्कृति को प्रचारित प्रसारित करने का घृणास्पद कार्य किया जा रहा है । मैं नहीं कह सकता कि तुम्हारी आत्मा तुम्हें इस स्थान पर बैठने के लिए कैसे प्रेरित कर रही है ? तुम्हारे कान क्यों बहरे हो गए हैं और तुम्हारे नेत्र क्यों नहीं देश की इस दयनीय दशा को देख रहे हैं ?
हे मां भारती के सच्चे सपूत माधोदास ! तुम्हें ज्ञात है कि मैंने अपने पिता को भी खोया है और अपने दो सपूतों को भी मां भारती की सेवा के लिए इसके श्री चरणों में सादर समर्पित कर दिया है । मैं जिस क्रांति का भव्य भवन तैयार कर रहा हूं उसकी नींव तो हमारे गुरुओं और अन्य पूर्वजों के द्वारा पूर्व में ही डाली जा चुकी है , परंतु इस समय इस भव्य भवन के निर्माण में मैं अपने आप को अकेला अनुभव कर रहा हूं । इसमें निश्चय ही आपको मेरी सहायता के लिए आगे आना चाहिए । जिससे कि हम मिलकर मां भारती के सभी पाशों को काटने के महान कार्य को संपादित करने में सफल हो सकें । ”
पुकारती मां भारती सुनो लगाकर कान ।
सर्वस्व समर्पण कीजिए बड़े जगत में मान ।।
गुरु गोविंद सिंह जी के मुंह से ऐसे गीता वचन सुनकर उनके समक्ष खड़े माधोदास का हृदय कुछ वैसे ही परिवर्तित होने लगा था जैसा कभी उन्होंने गर्भिणी हिरणी के बच्चों की यातनापूर्ण मृत्यु के समय अपने भीतर परिवर्तन अनुभव किया था । उनके ऊपर पड़ा वह आवरण भी हटने लगा था जो उन्हें आत्मिक कल्याण के लिए अभी तक प्रेरित कर रहा था और उनके उस राष्ट्रधर्म पर पर्दा डाले हुए था जिसके अनुसार उन्हें सज्जन शक्ति के परित्राण के लिए और दुष्टों के संहार के लिए मां भारती की सेवार्थ उठ खड़ा ही होना चाहिए था । गुरु गोविंद सिंह बोलते जा रहे थे और वह मूलरूप में छत्रिय रहा साधु इन सारी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था । वह जितने ध्यान से सुन रहा था उतनी ही तेजी से उसका ह्रदय अब उससे देश व धर्म के लिए समर्पित होकर कार्य करने की प्रेरणा भीतर से दे रहा था । उससे रुका नहीं जा रहा था और वह भी यह सोच रहा था कि गुरु जी जैसे ही अपनी वाणी को विराम दें तो तुरंत वह गुरु जी के समक्ष अपना सर्वस्व समर्पित कर दें।
अंत में गुरु जी ने अपनी वाणी को विराम दिया । तब राजधर्म में प्रवृत्त हुए बैरागी ने गुरु गोविंद सिंह से हाथ जोड़कर कहना आरंभ किया :– ” गुरुदेव ! मुझसे सचमुच भूल हुई जो मैं संसार को लात मारकर गोदावरी के इस तट पर आकर साधना में लीन हो गया और अर्जुन की भांति जाने – अनजाने रथ के पृष्ठभाग में आकर बैठ गया । देश व धर्म की रक्षा के लिए मैं अपना सर्वस्व समर्पित करता हूं । मैं आपके द्वारा दिए गए बलिदानों से भी सर्वथा परिचित हूँ । गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान भी मुझे भली प्रकार स्मरण है । मैं यह भी जानता हूं कि इस समय देश धर्म की रक्षा के लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता है । यह हम सब देशवासियों के लिए परम संतोष का विषय है कि आप इस पवित्र कार्य को पूर्ण मनोयोग से संपन्न कर रहे हैं । मेरे द्वारा इस सबके उपरांत भी जाने – अनजाने में जो भूल हुई , उसके लिए मैं प्रायश्चित करता हूं और आपको यह विश्वास दिलाता हूं कि बंदा अर्थात वंदना करने वाला व्यक्ति वही हो सकता है जो मातृभूमि की वंदना करना जानता हूं हो । यदि बंदा हो तो मातृभूमि की वंदना करे । मैं आपका ही बंदा हूं और आपका बंदा होने के कारण आपके उसी कार्य की वंदना करना अपना धर्म समझता हूं जिसकी वंदना आप स्वयं कर रहे हैं अर्थात राष्ट्र की वंदना । आज से मैं भी राष्ट्र भूमि की वंदना करने के कारण वैसा ही बंदा कहलाऊंगा जैसे आप हैं ।
इस प्रकार के संवाद के पश्चात गुरु गोविंदसिंह और बैरागी माधोदास के मध्य यह सुनिश्चित हो गया कि अब वे दोनों मिलकर राष्ट्र वंदना के कार्य को करेंगे । यहीं से बैरागी के जीवन में फिर एक नया मोड़ आ गया । अब वह अपनी आत्मकल्याण की साधना को छोड़कर गोदावरी के अपने आश्रम से बाहर निकलकर राष्ट्र वंदना के कार्य के लिए उद्यत हो गए। मानो उन्होंने वेद के इस संदेश और आदेश को हृदय से स्वीकार कर लिया कि ” राष्ट्रम पिपरहि सौभगाय ” — अर्थात हम राष्ट्र की प्रगति और उन्नति के लिए सदा प्रयत्नशील रहें , इसी में सच्ची वंदना है और इसी लोककल्याण की भावना में वास्तविक मुक्ति का स्रोत है।
गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा माधोदास को धर्म की रक्षार्थ खालसा पंथ में सम्मिलित किया गया और उन्हें शस्त्र आदि देकर पंजाब की ओर प्रस्थान करने के लिए कहा गया । गुरु गोविंद सिंह जी ने इसी समय उन्हें बाबा बंदा बहादुर सिंह का नाम दिया । यही नाम संक्षेप में बंदा वीर बैरागी के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत