-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
हमारे सभी शास्त्रों में ईश्वर की चर्चा है और वेद सहित अनेक ग्रन्थों में ईश्वर के स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव का वर्णन भी है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के सत्यस्वरूप पर प्रकाश डाला है। इस नियम के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। सब मनुष्यों को उस ईश्वर की ही उपासना करनी चाहिये। आर्यसमाज के नियम में ईश्वर का जो स्वरूप वर्णित है उसका साक्षात्कार व प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है? यदि ईश्वर है तो उसका प्रत्यक्ष भी होना चाहिये परन्तु आम धारणा है कि ईश्वर का प्रत्यक्ष तो होता ही नहीं है। सामान्य लोगों की भाषा में कहें तो ईश्वर दिखाई तो देता ही नहीं है। अतः ईश्वर के विषय में यह स्वाभाविक प्रश्न होता है कि क्या ईश्वर की सिद्धि होती है? इसका उत्तर ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में यह कहकर दिया है कि ईश्वर की सिद्धि सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से होती है। इस विषय को स्पष्ट करने व जानने में महर्षि गौतम के न्यायदर्शन ग्रन्थ का सूत्र ‘इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्’ ईश्वर का प्रत्यक्ष कराने में सहायक है। ईश्वर का प्रत्यक्ष करने वाले सभी जिज्ञासुओं को इस सूत्र व इसके अर्थ पर ध्यान देना चाहिये तथा इसमें जो कहा गया है उसे समझने का प्रयत्न भी करना चाहिये। ऋषि दयानन्द इस सूत्र के अर्थ पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि जो हमारी जो क्षोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्यासत्य विषयों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं परन्तु वह निभ्र्रम अर्थात् भ्रान्ति से रहित होना चाहिये।
हमारे बहुत से ऐसे मित्र हो सकते हैं जो ऋषि के इन वचनों को पढ़ते तो हैं परन्तु शायद इनका अर्थ पूर्णतः ग्रहण न कर पाते हों। सत्यार्थप्रकाश में ऋषि अपने इन वचनों में बता रहें हैं कि मनुष्य के पास पांच ज्ञानेन्द्रिया हैं जिनके पांच विषय हैं। पांच ज्ञान इन्द्रियां हैं कान, त्वचा, चक्षु, जिह्वा और ध्राण। इन इन्द्रियों से क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध का ग्रहण किया जाता है। हमारी आंख रूपवान वस्तुओं को देखती है परन्तु जिस पदार्थ की आकृति व रूप न हो तो उसे आंख से नहीं देखा जा सकता। कुछ पदार्थ ऐसे हैं जिनमें गन्ध, स्पर्श, रस व शब्द आदि गुण होते हैं। इन गुणों का ज्ञान व ग्रहण प्रत्यक्ष आंखों से न होकर इन गुणों से सम्बन्धित इन्द्रियों पृथिवी, त्वचा, जिह्वा व श्रोत्रों से होता है। किसी वस्तु में गन्ध है तो उससे उस पदार्थ के होने का निश्चयात्मक ज्ञान होता है। इसी प्रकार सभी इन्द्रियां हमें वस्तु या पदार्थ के गुणों के अनुसार उनका ज्ञान कराती हैं। हम दूरभाष या मोबाईल फोन पर लोगों के शब्द व आवाज को सुनकर ही निश्चय करते हैं कि हम अमुक व्यक्ति से बात कर रहे हैं। यह सत्य है कि रूप का ज्ञान आंखों से होता है परन्तु रूप से इतर अन्य गुणों गन्ध, स्पर्शादि का ज्ञान उस उस गुण को ग्रहण करने वाली इन्द्रिय से होता है जो कि रूप के समान ही सत्य व प्रामाणिक होता है।
पांच ज्ञानेन्द्रियों से इतर हमारा मन व आत्मा भी जब किन्हीं पदार्थों से जुड़ता है तो हमें उस पदार्थ से होने वाले सुख-दुःख व सत्यासत्य का बोध होता है। हम जब किसी पुस्तक का अध्ययन करते हैं तो हम पुस्तक में शब्दों को देखते हैं। आंखों का यहां इतना ही काम होता है कि वह हमें अक्षरों व शब्दों को दिखाती है। उन शब्दों व वाक्यों के अर्थ का बोध हमें पांच ज्ञानेन्द्रियों आंख, नाक, कान, जिह्वा तथा त्वचा में से किसी इन्द्रिय से नहीं होता। शब्दार्थ तथा वाक्यार्थ का ज्ञान हमें आत्मायुक्त मन से ही होता है। मन से हम जो पढ़ते हैं उसके अर्थ का बोध भी प्राप्त करते हैं और उसके सत्यासत्य का निश्चय भी करते हैं। यदि कहीं लिखा है कि पृथिवी गोल है तो हम इस सत्य को स्वीकार कर लेते हैं और किसी पुस्तक में इसके विपरीत पृथिवी को चपटी या अन्य आकार वाली लिखा हो तो हम जान जाते हैं कि वह बात असत्य है। यह ज्ञान हमें आत्मायुक्त मन से होता है। इस प्रकार से पांच ज्ञानेन्द्रियों सहित मन के द्वारा हमें जो भ्रम से पूर्णतया रहित ज्ञान प्राप्त होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। ऋषि ने इस बात को सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में समझाया है। इस बात को जान लेने के बाद ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान पाने में सरलता हो जाती है। इसके आगे ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि अब विचारना चाहिये कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी है उस का आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे ही इस प्रत्यक्ष सृष्टि में अपौरूषेय पदार्थों फल, फूल, वायु, अग्नि, जल आदि के रचना विशेष तथा इनमें ज्ञान आदि गुणों का प्रत्यक्ष ज्ञान व अनुभव होने से इनको बनाने वाले व इनमें गुणों को धारण कराने वाले परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष होता है।
सभी अपौरुषेय सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, जल, वायु, आकाश आदि पदार्थों में रचना विशेष तथा ज्ञान आदि गुणों के होने से पदार्थों में इनमें विद्यमान गुणों के अधिष्ठाता परमेश्वर का प्रत्यक्ष भी आत्मायुक्त मन से होता है। पदार्थों का उत्पत्तिकर्ता और उनमें रचना विशेष (आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से कहें तो उनमें नाना पदार्थों वा तत्वों के परमाणुओं की विशेष संरचना जैसे जल में हाइड्रोजन के दो तथा आक्सीजन का एक परमाणु होता है। सभी पदार्थों व तत्वों के परमाणुओं में इलेक्ट्रोन, प्रोटोन तथा न्यूट्रोन होते हैं, उनकी संख्या सब तत्वों में अलग-अलग होती है, यह परमाणु की संरचना वा रचना कही जा सकती है) तथा ज्ञान आदि गुणों का अधिष्ठाता परमेश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं हो सकता। उसका ज्ञान हमारी आत्मा हमें कराती है। जैसे हम रसोईघर या होटल आदि में भोजन करते हुए उस भोजन को बनाने वाले व्यक्ति का निश्चयात्मक ज्ञान अनुभव करते व उसका प्रत्यक्ष करते हैं उसी प्रकार इस सृष्टि व इसके विविध अपौरुषेय पदार्थों को देखकर हमें इसमें विद्यमान इनके रचयिता परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष होता है। जिन बन्धुओं को इन तथ्यों को जानने के बाद भी परमेश्वर की सत्ता का ज्ञान व प्रत्यक्ष होना स्वीकार करने में आपत्ति हो तो उन्हें पदार्थों में रचना विशेष तथा ज्ञानादि गुणों की अधिष्ठातृ शक्ति का अन्य विकल्प बताना चाहिये। इसका उत्तर विज्ञान के पास भी नहीं है। इसका कारण यह है कि परमेश्वर को किसी उपकरण व वैज्ञानिक परीक्षणों की तरह से न जानकर उसका प्रत्यक्ष ज्ञान व अनुभव आत्मायुक्त मन सहित पांच ज्ञानेन्द्रियों से ही होता है। हम समझते हैं कि ईश्वर प्रत्यक्ष की यह प्रक्रिया जान लेने के बाद भी यदि किसी को ईश्वर के सत्तावान होने व उसके प्रत्यक्ष में सन्देह होता है तो यह उस व्यक्ति के मन व बुद्धि पर मल, विक्षेप व आवरण के कारण होना ही माना जा सकता है जिसका निदान ऋषियों के वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय तथा योगाभ्यास आदि के व्यवहार से ही हो सकता है।
महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में कुछ अन्य महत्वपूर्ण वचन भी लिख हैं। वह कहते हैं ‘और जब आत्मा मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता या चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव की इच्छा, ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निःशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से (होता) है। और जब जीवात्मा शुद्ध होके परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है उस को उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमानदि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देख के कारण का अनुमान होता है।’
महर्षि दयानन्द ने अपने उपुर्यक्त वचनों में बताया है कि हमारे मन व आत्मा में अच्छे व बुरे काम करते समय जो उत्साह, आनन्द तथा भय आदि के भाव उत्पन्न होते हैं वह आत्मा के अपने न होकर उनकी प्रेरणा आत्मा में विद्यमान ईश्वर के द्वारा होती है और यह भी ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। इसके अतिरिक्त जब जीवात्मा शुद्ध होके अर्थात् यम व नियमों के पालन आदि से शुद्ध होकर परमात्मा का ध्यान, चिन्तन व विचार करने में तत्पर होता है, सन्ध्या, जप व भजन आदि करता है, आर्यसमाज के ईश्वर विषयक दूसरे नियम पर विचार व मनन करता है तो इससे भी उसे ईश्वर व जीवात्मा दोनों का प्रत्यक्ष वा निभ्र्रान्त ज्ञान होता है। ऐसा होने से मनुष्य के ईश्वर विषयक सभी सन्देहों का निवारण हो जाता है।
ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है, इस पर ऋषि दयानन्द जी ने अत्यन्त सरलता के साथ समाधान किया है। इससे ईश्वर के अस्तित्व के न होने विषयक सभी भ्रमों का निवारण हो जाता है। ईश्वर प्रत्यक्ष होता है, यह ज्ञान केवल सत्यार्थप्रकाश के पाठक को ही सुलभ है। अन्यत्र आर्यसमाजेतर किसी वक्ता व लेखक ने ईश्वर प्रत्यक्ष विषय को इस प्रकार से समझाया नहीं है। हम स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं जो हमें ऋषि के इन वचनों को पढ़ने व विचार करने का अवसर मिला और हम इसमें निहित भावों व तथ्यों को कुछ-कुछ समझ सके हैं। ईश्वर का इस प्रकार से प्रत्यक्ष कर लेने के बाद योगदर्शन की विधि से ध्यान व समाधि को प्राप्त कर ईश्वर की साधना करना भी हमारा उद्देश्य व लक्ष्य होता है। समाधि अवस्था के प्राप्त हो जाने पर ईश्वर, संसार में सूर्य के प्रकाश के समान, अपने तेजस्वी स्वरूप में हमारी आत्मा में प्रकाशित होता है। यह ऐसी अवस्था है कि समाधि प्राप्त साधक बोल उठता है ‘ओ३म् शन्नो मित्रः शं वरुणः शन्नो भवत्वर्य्यमा। शन्नऽइन्द्रो बृहस्पतिः शन्नो विष्णुरुरुक्रमः।। नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मसि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु। अवतु माम् अवतु वक्तारम्। ओ३म् शान्तिश्शान्श्शिान्तिः।’ यह वेदमंत्र भी समाधिस्थ पुरुष के मुख से अनायास प्रस्फुटित होता है ‘वेदाहमेतं पुरुषम् महान्तं आदित्यवर्णम् तमसः परस्तात् तमेव विदित्वा अति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनायः।’ इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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