फलित ज्योतिष का ज्ञान वेदविहित न होने से कल्पनिक और त्याज्य है
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
हम वर्षों से देख रहे हैं कि हमारे देश में फलित ज्योतिष की यत्र-तत्र चर्चा होती रहती है और बहुत से लोग फलित ज्योतिष की भविष्य-वाणियों में विश्वास भी रखते हैं। ऐसा होने के कारण ही हमारे देश में फलित ज्योतिष के ग्रन्थों का अध्ययन कर दूसरों का भाग्य बताने वालों की संख्या में वृद्धि हो रही है और यह नाना प्रकार के ग्रहों की स्थिति का उल्लेख कर उनको परामर्श देते रहते हैं। महाभारत युद्ध के बाद ईश्वरीय ज्ञान वेद के सबसे बड़े विद्वान ऋषि दयानन्द सरस्वती हुए हैं। उन्होने विलुप्त व अप्रचलित वेदों का पुनरुद्धार किया और वेदों के सत्य अर्थ भी प्रकाशित व प्रचारित किये। उनकी घोषणा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है और वेद का पढ़ना-पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब मनुष्यों का परमधर्म है। वह यह भी विधान करते हैं कि जो वेदानुकूल है वही स्वीकार्य है और जो वेदविरुद्ध है वह ईश्वर की आज्ञा व शिक्षाओं के विरुद्ध होने से सर्वथा त्याज्य है। ऋषि दयानन्द गणित व ज्योतिष को तो मानते थे परन्तु फलित ज्योतिष को वेदविरुद्ध, तर्क विरुद्ध एवं मनुष्य जीवन के लिए हानिकारक मानते थे। उन्होंने फलित ज्योतिष को ही मुस्लिम सुल्तानों के हार्थों देश की पराजय का प्रमुख कारण बताया है। सोमनाथ मन्दिर, गुजरात का पराभव भी ज्योतिष और मूर्तिपूजा की मिथ्या कल्पनाओं व आस्थाओं के कारण ही हुआ था। यदि हमारे देश में अवैदिक अर्थात् वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा का प्रचलन न हुआ होता तो हम कभी असंगठित न होते और न ही अन्धविश्वासों से युक्त होते जिसका कारण हमारी सोमनाथ मन्दिर की पराजय रही है। दुःख की बात यह है कि हमारी पराजयों तथा जाति के घोर अपमान का कारण होने के बावजूद हम अन्धविश्वासों तथा मिथ्या परम्पराओं को छोड़ नहीं पा रहे हैं। इसके दो प्रमुख कारण प्रतीत होते हैं जिनमें पहला कुछ चालाक व चतुर लोगों का स्वार्थ प्रतीत है और दूसरा भोले-भाले लोगों में अपना भविष्य जानने की प्रवृत्ति सहित उनमें अविद्या के कुसंस्कार हैं। हम स्वयं भी बाल्यकाल में फलित ज्योतिष की बातों पर कुछ कुछ विश्वास करते थे परन्तु पचास वर्ष पूर्व आर्यसमाज के सम्पर्क में आने और सत्यार्थप्रकाश पढ़ने से हमारे फलित ज्योतिष विषयक सभी भ्रम दूर हो गये और हमें यह एक ढ़ोग और पाखण्ड लगता है जिसके सम्पर्क में आकर मनुष्य पुरुषार्थ के प्रति शिथिल व निष्क्रिय होकर भविष्य व जन्म-जन्मान्तर में होने वाली अपनी उन्नति से दूर हो जाता है।
फलित ज्योतिष की सत्यता पर विचार करें तो राम के जीवन की एक घटना सामने आती है। रामचन्द्र जी का राज्याभिषेक होना था। उस समय के बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों व विद्वानों ने दिन व समय का निश्चय किया था। इसका असफल होना तो हमारे उन वेद के विद्वान ऋषियों की योग्यता पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है। सत्य तो यह है कि फलित ज्योतिष नाम का कोई विज्ञान व ज्ञान इस सृष्टि में काम नहीं कर रहा है। मनुष्य अपने भविष्य की सभी बातें नहीं जान सकता। हमारे जीवन विषयक कुछ बातें मनुष्य के अपने हाथों में होती हैं और कुछ परमात्मा के हार्थों में। हम अपने पुरुषार्थ से अपना भविष्य संवार सकते हैं। हमने इस जन्म तथा पूर्वजन्मों में जो सत्यासत्य, शुभाशुभ तथा पाप-पुण्य कर्म किये हुए हैं, जो हम भूल चुके हैं परन्तु परमात्मा को सब स्मरण हैं, उनका फल भी हमें भोगना होता है। इसी कारण कई बार पुरुषार्थ करने के बाद भी सफलता नहीं मिलती। इसमें देश, काल और परिस्थितियां भी कारण हुआ करती हैं और हमारा पूर्व का कर्म-संचय अथवा प्रारब्ध भी। शायद इसी कारण गीता के एक श्लोक में कहा गया है कि मनुष्य को कर्म करने का अधिकार है परन्तु उसके फल की इच्छा करने का नहीं। इसका अर्थ यह है कि हमें वेदविहित सद्कर्म, परोपकार अथवा परहित के अधिकाधिक काम करने चाहियें परन्तु इनको फल की कामना से नहीं करना चाहिये। यदि हम फलों में आसक्त होंगे तो हम इन कर्मों के बन्धन, जो हमें जन्म व मृत्यु के पाश में बांधते हैं, उनसे कभी बच नहीं सकेंगे। कर्म के बन्धनों को काटने के लिये हमें निरासक्त होना होगा। गीता में यही सन्देश दिया गया है। इस शिक्षा व गीता के श्लोक की प्रसिद्धि व स्वीकार्यता को देखते हुए भी हमें सद्कर्मों को करते जाना है और जीवन में आने वाली सफलताओं एवं असफलताओं में विचलित नहीं होना। मनुष्य जब फल की इच्छा से काम करता है तो उसके इन संस्कारों से वह काम व लोभ से ग्रस्त हो जाता है जिससे वह परोपकार एवं परहित सहित देश एवं समाजहित के कामों से दूर होकर सद्कर्मों को पर्याप्त महत्व नहीं दे पाता। यदि सद्कर्म नहीं होगे तो हमारा इस जीवन का भविष्य और परजन्म में सुख प्राप्ति व उन्नति नहीं हो सकती। परजन्म की उन्नति का आधार तो इस जन्म के एकमात्र सद्कर्म ही हुआ करते हैं जिसमें ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ आदि कर्म सहित हमारे परोपकार की दृष्टि से किये गये सद्कर्म तथा दान आदि होते हैं। अतः मनुष्य को फलित ज्योतिष के कुचक्र में न फंस कर अपना ध्यान अपने कर्तव्यों, पुरुषार्थ एवं वेदविहित अपने नित्य प्रति के कर्मों पर ही केन्द्रित रखना चाहिये। इससे निःसन्देह उन्नति होगी। फलित ज्योतिष और पौराणिक उपायों से यदि हम दुःख निवृत्ति और सुखों की प्राप्ति के लिये प्रवृत्त होंगे तो सम्भावना है कि हम अपना भविष्य व परजन्म बिगाड़ सकते हैं। यह सन्देह हमें वेदादि ऋषियों के शास्त्रीय ग्रन्थों को पढ़ने से मिलता है।
हमारे सुखों तथा दुःख निवृत्ति का सम्बन्ध हमारे सद्कर्मों वा पुरुषार्थ से है। संसार में मनुष्य जन्म लेते हैं, कुछ की बुद्धि कुशाग्र होती है और कुछ मन्द बुद्धि सहित सामान्य बुद्धि वाले भी होते है। पुरुषार्थ के अनुरूप ही हमें शारीरिक बल प्राप्त होने सहित विद्या प्राप्ति में भी सफलता मिलती है। जादू-टोने व टोटकों से तथा फलित ज्योतिष के उपायों से कोई बलवान तथा बुद्धिमान वा विद्यावान नहीं बनता। हमारे ऋषि मुनियों सहित राम, कृष्ण और दयानन्द जी यह सभी गुरुकुलों में उच्च कोटि के विद्वान गुरुओं व ऋषियों से पढ़कर ही महापुरुष बने थे। इसमें इनका प्रारब्ध व उससे प्राप्त बुद्धि भी कारण थी। यदि ऐसा न होता तो एक गुरु से पढ़ने वाले सभी शिष्यों की योग्यता समान होती। इस दृष्टान्त से प्रारब्ध व कर्म फल के सिद्धान्त की पुष्टि करता है। बाल्मीकि रामायण तथा महाभारत का अध्ययन करने पर हमें उस युग में कहीं कोई फलित ज्योतिष का आचार्य दृष्टिगोचर नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि उस युग में फलित ज्योतिष का आरम्भ व प्रचलन नहीं था। यह महाभारत के बाद मध्यकाल के अज्ञान के युग में हुआ जब हमने वेदों को भुलाकर पुराणों की रचनायें कीं और उन अधिकांश वेद विरोधी शिक्षाओं का ही अनुसरण आरम्भ किया। हमारे फलित ज्योतिष के जो ग्रन्थ वराह मिहिर आदि विद्वानों ने रचे हैं, उनमें किसी वेद प्रमाण व उसकी भावना को प्रकट व स्पष्ट नहीं किया गया है। यदि ऐसा होता तो फिर वेदों के सबसे बड़े भक्त ऋषि दयानन्द को फलित ज्योतिष का विरोध न करना पड़ता और सोमनाथ मन्दिर एवं मुस्लिमों से समय-समय पर जो पराजय हुईं, अयोध्या, कृष्ण जन्म भूमि, काशी विश्वाथ आदि के जो मन्दिर तोड़े गये, वह अपमान करने वाली घटनायें भी न होती। हमारे वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप तथा गुरु गोविन्द सिंह जी आदि इस फलित ज्योतिष के अन्धविश्वासों से बचे रहे, इसी कारण उन्होंने अपने जीवन में सफलतायें पाईं और आज भी उनका यश है और हमें इतिहास में गौरव व स्वाभिमान प्राप्त हुआ है। अतः जीवन में सफलता का आधार फलित ज्योतिष का त्याग कर सद्कर्म सहित पुरुषार्थ को बनाना चाहिये। जीवन में आने वाले दुःखों का उपचार व समाधान हमें विद्वानों की संगति, उनके सुझावों व उपायों को करके निकालना चाहिये। इससे निश्चय ही हमारा जीवन श्रेष्ठ व सुखद होगा तथा जन्म-जन्मान्तर में इन्हीं कार्यों से हमें सुख व शान्ति की उपलब्धि होगी।
हमारे फलित ज्योतिष के आचार्य मनुष्य जीवन विषयक बड़ी बड़ी भविष्य वाणियां करते हैं। यह भविष्यवाणियां शत प्रतिशत सत्य सिद्ध नहीं होतीं। फलित ज्योतिष से हमारे शत्रु देश पाकिस्तान व चीन के षडयन्त्रों का हमें कभी अनुमान नहीं होता। देश के बुद्धिजीवी जानते हैं कि पाकिस्तान आतंकवाद की जननी है और इन्हें यहीं बढ़ावा दिया जाता है परन्तु ज्योतिष इस पर प्रकाश नहीं डालता। एक ही समय में जन्म लेने वाले एक ही व अलग अलग माता-पिताओं के जुड़वा व अन्य बच्चों का भाग्य अलग-अलग होता है। जब नरेन्द्र मोदी जी जन्में होंगे तो उसी दिन व उसी समय के आस पास देश व विश्व में सैकड़ो व हजारों बच्चों व पशु-पक्षियों ने भी जन्म लिया होगा। क्या उन सबका भाग्य समान है? उत्तर है कि नहीं है। यदि मोदी जी चेतना व ज्ञान से रहित जड़ ग्रहों के प्रभाव से प्रधानमंत्री बने हैं और यश अर्जित कर रहे हैं तो उनके जन्म समय में जन्मी सभी आत्माओं की गति, दशा व दिशा एक समान होनी चाहिये थी। ऐसा नहीं है, अतः यह सब ग्रहों के कारण से नहीं अपितु सबके अपने अपने प्रारब्ध और पुरुषार्थ के कारण हैं। हमें इस भेद को समझना है और फलित ज्योतिष को अपने जीवन में किंचित भी स्थान नहीं देना है। हम और हमारा परिवार विगत पचास वर्षों से इस फलित ज्योतिष के चक्र से बाहर है। इस बीच हमें कभी आवश्यकता नहीं हुई कि हम अपनी किसी समस्या के निवारण के लिये इसका सहारा लें। हमारे मित्रों ने कुछ जटिल समस्याओं में इसका सहारा लिया परन्तु उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ। हमें अपने बच्चों व युवा पीढ़ी को भी फलित ज्योतिष के मिथ्यात्व सहित प्रारब्ध एवं पुरुषार्थ के महत्व को समझाना चाहिये। इसी से हमारा जीवन सफलताओं को प्राप्त कर उन्नति को प्राप्त होगा। यह जान लें कि सूर्य, चन्द्र आदि गृह व उपग्रह सभी जड़ हैं। इनका प्रभाव सब मनुष्यों पर समान होता है, भिन्न नहीं होता और न हो सकता है। इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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