बीबीसी की एक तर्कसंगत समीक्षा : भगत सिंह की फांसी को रुकवाने में गांधी कितने लापरवाह रहे ?
देश में कुछ लोग हैं जिनको गांधी की आलोचना पचाये नहीं पचती । ऐसे सज्जनों की जानकारी के लिए बीबीसी की ओर से जारी की गई एक समीक्षा को हम यहां प्रेषित कर रहे हैं । जिसमें बीबीसी ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गांधीजी ने शहीदे आजम भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को रुकवाने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए । बीबीसी के अनुसार :–
17 फरवरी 1931 से वायसराय इरविन और गांधी जी के बीच बातचीत की शुरुआत हुई. इसके बाद 5 मार्च, 1931 को दोनों के बीच समझौता हुआ.
इस समझौते में अहिंसक तरीके से संघर्ष करने के दौरान पकड़े गए सभी कैदियों को छोड़ने की बात तय हुई ।
.( यही वह कमजोर पेंच है जो गांधीजी को क्रांतिकारियों की फांसी का दोषी बनाता है । उन्होंने अहिंसक तरीके से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले लोगों को बचाने की बात कही । इसका अर्थ था कि जो हिंसा में विश्वास रख रहे हैं और क्रांति के माध्यम से देश को स्वतंत्र कराना चाहते हैं उन्हें वह बचाना नहीं चाहते थे )
मगर, राजकीय हत्या के मामले में फांसी की सज़ा पाने वाले भगत सिंह को माफ़ी नहीं मिल पाई.
भगत सिंह के अलावा तमाम दूसरे कैदियों को ऐसे मामलों में माफी नहीं मिल सकी. यहीं से विवाद की शुरुआत हुई.
गांधी जी का विरोध
इस दौरान ये सवाल उठाया जाने लगा कि जिस समय भगत सिंह और उनके दूसरे साथियों को सज़ा दी जा रही है तब ब्रितानी सरकार के साथ समझौता कैसे किया जा सकता है.
इस मसले से जुड़े सवालों के साथ हिंदुस्तान में अलग-अलग जगहों पर पर्चे बांटे जाने लगे.
साम्यवादी इस समझौते से नाराज़ थे और वे सार्वजनिक सभाओं में गांधी जी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करने लगे.
ऐसे में 23 मार्च 1931 के दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सज़ा दे दी गई.
इसके बाद लोगों में आक्रोश की लहर दौड़ गई. लेकिन ये आक्रोश सिर्फ अंग्रेजों नहीं बल्कि गांधी जी के ख़िलाफ़ भी था क्योंकि उन्होंने इस बात का आग्रह नहीं किया कि ‘भगत सिंह की फांसी माफ़ नहीं तो समझौता भी नहीं.’
साल 1931 की 26 मार्च के दिन कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ ‘जिसमें पहली और आख़िरी बार सरदार पटेल कांग्रेस के अध्यक्ष बने.’
25 मार्च को जब गांधी जी इस अधिवेशन में हिस्सा लेने के लिए वहां पहुंचे तो उनके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया गया. उनका स्वागत काले कपड़े से बने फूल और गांधी मुर्दाबाद-गांधी गो बैक जैसे नारों के साथ किया गया.
इस विरोध को गांधी जी ने ‘उनकी’ गहरी व्यथा और उससे उभरने वाले गुस्से का हल्का प्रदर्शन बताया और उन्होंने कहा कि ‘इन लोगों ने बहुत ही गौरवभरी शैली में अपना गुस्सा दिखाया है.’
अख़बारों की रिपोर्ट के अनुसार, 25 मार्च को दोपहर में कई लोग उस जगह पहुंच गए जहां पर गांधी जी ठहरे हुए थे.
रिपोर्टों के अनुसार, ‘ये लोग चिल्लाने लगे कि ‘कहां हैं खूनी’
तभी उन्हें जवाहर लाल नेहरू मिले जो इन लोगों को एक तंबू में ले गए. इसके बाद तीन घंटे तक बातचीत करके इन लोगों को समझाया, लेकिन शाम को ये लोग फिर विरोध करने के लिए लौट आए.
कांग्रेस के अंदर सुभाष चंद्र बोस समेत कई लोगों ने भी गांधी जी और इरविन के समझौते का विरोध किया. वे मानते थे कि अंग्रेज सरकार अगर भगत सिंह की फ़ांसी की सज़ा को माफ़ नहीं कर रही थी तो समझौता करने की कोई ज़रूरत नहीं थी. हालांकि, कांग्रेस वर्किंग कमेटी पूरी तरह से गांधी जी के समर्थन में थी । ( साभार )
कई लोग इस बात को भी कहते हैं कि सुभाषचंद्र बोस ने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा था , मैं भी मान लेता हूं कि यह बात सच हो सकती है ।लेकिन यह सुभाष चंद्र बोस का संस्कार था कि वह अपने विरोधी को भी सम्मान देना जानते थे , जबकि गांधी का संस्कार यह था कि वह विरोधी की छाया में भी जूते मारते थे। स्वामी श्रद्धानंद से लेकर सरदार पटेल तक उन्होंने अपने हर उस विरोधी को खुड्डे लाइन लगाने का प्रयास किया जिन्होंने उनकी प्रत्येक हरकत के सामने झुकने से देशहित में इंकार कर दिया था।
सुभाष चंद्र बोस ने यदि गांधी को राष्ट्रपिता कहा तो उनके उन तथ्यों और वास्तविकताओं को भी समझने का प्रयास करना चाहिए कि जब उन्होंने गांधी का विरोध किया और उसे मानने से इनकार कर दिया।
यह बात डंके की चोट कही जा सकती है कि गांधी पूरे स्वतंत्रता संग्राम के एकमात्र हीरो नहीं थे ।अज्ञानतावश लोग चाहे कितना ही “गांधी – गांधी ” का शोर मचाएं , लेकिन यह सच है कि गांधी एक नेता तो हो सकते हैं , लेकिन एकमात्र नेता नहीं थे । पूरे स्वतंत्रता संग्राम को किसी एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द केंद्रित करना देश के पुरुषार्थ , शौर्य और वीरता के साथ खिलवाड़ करना होगा । जिसे इस देश का शौर्य कभी भी सहन नहीं करेगा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत