खेतों में बंदूक बोने का काम करने वाला महान क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह
आज हमारे एक महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता के परम उपासक शहीदे आजम भगत सिंह का जन्म दिवस है। 1907 में आज ही के दिन मां भारती का यह सच्चा सेवक जन्मा था । बचपन में ही इसकी वीरता सिर चढ़कर बोलने लगी थी । कहते हैं एक बार यह अपने पिताजी के साथ खेतों पर गए हुए थे , इनके पिता श्री खेत के काम में लगे हुए थे । इसने पिता से सुन रखा था कि खेतों में थोड़ा सा अन्न बीज रूप में डालते हैं तो बड़ी मात्रा में अन्न हमें प्राप्त होता है । तब इस बच्चे ने अपने खेत में कुछ चीजें बोने का खेल आरंभ किया ।
पिता ने आकर देखा, बच्चा बड़ी तन्मयता से खेत में छोटे – छोटे गड्ढे कर उनमें कुछ बो रहा है । पिता ने कौतूहल से पूछा :- ‘ भगत क्या करता है ?’
बच्चे ने कहा कि खेत में बंदूक बो रहा हूं । जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो यह बंदूकें मुझे बहुत बड़ी मात्रा में मिलेंगी । उनसे मैं विदेशियों को यहां से भगाने का काम करूंगा ।’
जब भगत सिंह बड़ा हुआ तो सचमुच उसने बड़ा काम कर दिखाया। उसने बंदूकों का काम किया और बचपन में चाहे खेल में ही सही पर उसने जितनी बंदूकें बोई थीं , उनके हजार गुणा बंदूकें लेकर उसने अपने क्रांतिकारी साथियों में बांट दीं।
यही कारण था कि उन्होंने 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेंबली में उस समय बम फेंका जब पब्लिक सेफ्टी बिल पर विचार किया जा रहा था । सभापति इस बिल पर अपने विचार प्रस्तुत करने जा रहे थे । सब लोग अपने सभापति को सुनना चाहते थे । तभी अचानक दर्शक दीर्घा में एक भयानक बम गिरा ।बम गिरते ही चारों ओर आतंक का धुआं छा गया। देश के यौवन ने विदेशी गूंगी बहरी सरकार के कान खोल दिए। अंग्रेजों के लिए यह पहली घटना थी , जब देश का यौवन केंद्रीय असेंबली में इस प्रकार प्रवेश पाने में तो सफल रहा ही था साथ ही उसने यह भी सिद्ध कर दिया था कि शत्रु के लिए अब कोई भी स्थान सुरक्षित नहीं है । बम के साथ ही हमारे क्रांतिकारियों ने कुछ पर्चे भी फेंके । जिन्में लिखा था कि – बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की आवश्यकता होती है।
इस बम कांड में भगत सिंह के साथ उनका साथी बटुकेश्वर दत्त भी सम्मिलित था । इस अपराध में भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त को आजीवन काले पानी की सजा दी गई थी । मां भारती के इन दोनों साधकों ने सजा होने से पूर्व ही विशेष व्यवहार के लिए अनशन आरंभ कर दिया । जिससे उन्हें उनकी स्थिति बिगड़ने लगी और इन्हें दिल्ली से लाहौर ले जाया गया । इसी समय लाहौर षड्यंत्र के सभी इनके विरुद्ध आरंभ हो गया । जब यह न्यायालय में लाए जाते थे तो यह क्रांति के गीत गाते थे और अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए न्यायालय परिसर में उपस्थित हुए युवाओं को खुले शब्दों में प्रेरित करते थे । क्रांति की सफलता के लिए नारे लगाते थे । जिन्हें उस समय के समाचार पत्रों में पर्याप्त स्थान मिलता था ।
7 अक्टूबर 1930 को इस केस का निर्णय सामने आया । जिसमें राजगुरु , सुखदेव , भगत सिंह को फांसी की सजा दी गई थी । विजय कुमार सिंह , महावीर सिंह , किशोरीलाल , शिव वर्मा , गया प्रसाद , जयदेव तथा कमलनाथ त्रिवेदी को आजीवन काला पानी की सजा दी गई । कुंदन लाल को 7 वर्ष तथा प्रेम दत्त को 3 वर्ष की कैद की सजा दी गई। यतींद्र नाथ दास का मुकदमे की सुनवाई के समय 63 दिन के उपवास के पश्चात देहांत हो गया था । बटुकेश्वर दत्त को पर्याप्त साक्ष्य न् होने के कारण केस से बरी कर दिया गया था । जय गोपाल और हंसराज बोहरा मुखबिर होने के कारण क्षमा कर दिए गए थे ।
इस आदेश के विरुद्ध 8 अक्टूबर 1930 को सारे देश के प्रमुख शहरों में हड़ताल की घोषणा की गई और लोगों ने सरकार के इस निर्णय पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की।
23 मार्च 1931 को मां भारती के सच्चे सपूतों को फांसी की सजा दी गई । इससे पहले हमारे इन महान क्रांतिकारियों ने वायसराय के समक्ष दया करने की याचिका डालने से मना कर दिया था । उस समय जेल में हजारों कैदी बंद थे । फांसी पर जा रहे इन तीनों सपूतों ने अंतिम बार जब इंकलाब जिंदाबाद कहा तो अन्य कैदियों ने भी उनके साथ इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाकर मानो अपने वीरों को अंतिम प्रणाम किया था । पुलिस ने रातों-रात इन वीरों के शवों को फिरोजपुर में सतलुज के किनारे जला दिया । इसके उपरांत भी लोगों को जैसे ही इस गुप्त रूप से किये गए अंतिम संस्कार की सूचना मिली तो वहां हजारों की संख्या में लोग उपस्थित हो गए और अपनी अंतिम श्रद्धांजलि देने लगे । यहां आजकल एक विशाल स्मारक है । जहां पर प्रतिवर्ष अनेकों लोग अपने इन महान क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि अर्पित करने जाते हैं।
जिस समय हमारे इन क्रांतिकारियों को अंग्रेज सरकार फांसी देने की तैयारी कर रही थी उसी समय गांधीजी इरविन के साथ समझौता कर रहे थे और गोलमेज सम्मेलनों में जाकर देश के समय धन और ऊर्जा का विनाश कर रहे थे । गांधी इरविन समझौता के मात्र 18 दिन पश्चात ही भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी । जिस पर गांधीजी पूर्ण रूप से मौन रहे थे । मानो गांधी इरविन समझौता इसी बात के लिए किया गया था कि फांसी पर गांधी जी कुछ न तो कहेंगे और न कुछ करेंगे ।
यतींद्र नाथ दास के बलिदान पर राष्ट्रकवि दिनकर ने देशवासियों के अंधेरे दिल में ‘ दिन ‘ कर दिया था। उन्होंने लिखा था :–
” निर्मम नाता तोड़ जगत का
अमरपुरी की ओर चले।
बंधन मुक्ति न हुई जननी की
गोद मधुरतम छोड़ चले।।
जलता नंदवन पुकारता
मधुप कहां मुंह मोड़ चले ।
बिलख रही यमुना माधव !
क्यों मुरली मंजू मरोड़ चले।।
उगल रहे सब सखा नाश की
उद्धत एक ओर हिलोर चले ।।
पछताते हैं वधिक पाप का
घड़ा हमारा छोड़ चले ।
माँ रोतीं बहने कराहती
घर-घर व्याकुलता जागी ।
उपल सरीखे पिघल पिघल
तुम किधर चले मेरे बागी ! ”
दिनकर जी अपने बागियों से पूछ रहे हैं कि किधर चले ?
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- और सचमुच हम ढूंढते रह गए कि हमारे क्रांति नायक किधर चले गए ?
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इतिहास के पन्नों से भी गायब !
यादों से भी गायब !!
स्मारकों से भी गायब !!!
सब जगह से गायब – – –
अब तो ढूंढ कर लाना ही पड़ेगा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत