26 सितंबर 1820 को आज के दिन भारत के एक प्रसिद्ध समाज सुधारक , महान शिक्षाविद , विनम्रता और सादगी की प्रतिमूर्ति ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी का जन्म हुआ था। उनका जन्म जिला मेदिनीपुर पश्चिम बंगाल में एक निर्धन परिवार में हुआ था । उनके पिता श्री का नाम ठाकुरदास बंधोपाध्याय और माता का नाम श्रीमती भगवती देवी था । 1839 में उन्होंने मात्र 19 वर्ष की अवस्था में ही वकालत की शिक्षा उत्तीर्ण कर ली थी । जबकि 1841 में मात्र 21 वर्ष की अवस्था में वह फोर्ट विलियम कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगे थे। इसके 5 वर्ष पश्चात संस्कृत कॉलेज में वह सहायक सचिव के रूप में नियुक्त हुए ।
सहायक सचिव के रूप में उन्होंने 1 वर्ष के भीतर ही शिक्षा सुधार हेतु अपनी संस्तुति प्रशासन के लिए भेजीं । 18 91 में वह कॉलेज के प्रधानाध्यापक नियुक्त किए गए । उन्होंने अपने जीवन काल में कोलकाता और अन्य स्थानों पर अनेकों बालिका विद्यालयों की स्थापना की । ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह के लिए भी विशेष प्रयास किए । उनके प्रयासों से प्रेरित होकर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून पारित किया । इतना ही नहीं विद्यासागर जी ने अपने एकमात्र पुत्र की का विवाह ही एक विधवा से किया । जिससे अन्य लोगों को प्रेरणा मिल सके । उन्होंने बाल विवाह का भी विरोध किया और इसके लिए लोगों के भीतर जागृति उत्पन्न करने की दिशा में ठोस कार्य किया । डॉक्टर ईश्वर चंद्र विद्यासागर जी का निधन 29 जुलाई 18 91 को कोलकाता में हुआ ।
एक बार विद्यासागर जी ने भिकारी लड़के से पूछा अगर मैं तुम्हें एक रूपया दूँ तो तुम क्या करोगे ? लड़का बोला मैं आपके दिये एक रुपये से अपना व्यापार आरम्भ करूँगा और भीख माँगना छोड़ दूँगा। विद्यासागर जी ने कुछ सोचकर उस लड़के को एक रूपया दे दिया। उस समय एक रुपया बहुत मूल्यवान हुआ करता था। कुछ कालोपरांत ईश्वरचंद्र विद्यासागर फिर बाजार से निकले जा रहे थे । तब उन पर उस लड़के की दृष्टि पड़ी , जिसने उनसे भिक्षा में एक रुपया मांगा था । उसने दौड़ कर विद्यासागर जी के सामने खड़े होकर उनसे प्रणाम किया और कहने लगा कि संभवत आपने मुझे पहचाना नहीं है ।
तब वह स्वयं ही अपने विषय में विद्यासागर जी को बताने लगा कि मैं वही मार्ग में भिक्षाटन करने वाला बालक हूँ जिसे आपने एक रूपया देकर धन्य किया। आपके उस एक रूपये ने मेरे आत्मविश्वास को दुगुना कर दिया और आज मैं यह प्रतिष्ठित दुकान का स्वामी बन चुका हूँ। यह कहते कहते वह उन्हें अपनी दुकान में ले गया और अपनी सम्पूर्ण व्यवसायिक संघर्ष को विद्यासागर जी के साथ साझा किया। तो ऐसे प्रेरक व्यक्तित्व के धनी थे विद्यासागर जी जिनकी प्रेरणा से एक रास्ते का भिखारी भी प्रतिष्ठित दुकान का स्वामी बन बैठा। उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करना सूरज को दीपक दिखाने के समान है।
विद्यासागर जी के जीवन का एक और प्रसंग हम यहां पर साभार प्रस्तुत कर रहे हैं । उस काल में नील की खेती करने वाले किसानों पर निलहे साहबों का अत्याचार बहुत बढ़ चुका था और उनके इस अत्याचार के विरूद्ध जगह-जगह आवाजें बुलंद होने लगी थी। इसी क्रम में कई जगहों पर इस अत्याचार को नाटकों के मंचन के माध्यम से जनता को बताया जा रहा था। कलकता रंगमंच इसमें अग्रणी भूमिका निभा रहा था। इसी तरह के एक नाटक मंचन कार्यक्रम में विद्यासागर जी को भी आमंत्रित किया गया। उन्हें देखकर रंगमंच के कार्यकर्ता दुगने उत्साह से नाटक का मंचन करने लगे। उस नाट्य मंचन में निलहे साहब की भूमिका निभाने वाले युवक ने इतना सजीव चित्रण किया कि विद्यासागर जी ने भी कुछ पल के लिये उस पात्र को सचमुच का निलहे साहब समझ लिया और खींच कर अपनी चप्पल दे मारी। सारे सदन में खामोशी छा गयी। तभी निलहे साहब की भूमिका निभाने वाले युवक ने अश्रुपुरित नेत्रों से कहा की इससे बड़ा मेरे लिये पुरस्कार और हो ही नहीं सकता। मेरा जीवन धन्य हो गया आपके इस पुरस्कार ने मेरे जीवन को सार्थक कर दिया। आपने मुझे चप्पल नहीं मारा बल्कि उन निलहे साहबों को और हमारी गुलामी को मारा है। और यह कहते हुए वह विद्यासागर जी के पैरों पर लोट गया। विद्यासागर जी ने भाव विभोर होकर उस युवक को गले लगा लिया। विद्यासागर जी भले ही अपना सारा जीवन आर्थिक संकटों से जुझते रहे, लेकिन उन्होंने अपनी उन समस्याओँ को अपने द्वारा पोषित संस्थाओं पर हावी होने नहीं दिया और न ही समाजसेवा के प्रति उनकी जीजिविषा ही कम हुई बल्कि समय उन्हें देश के प्रति और भी संघर्षरत करता चला गया।
अपने ऐसे महान देशभक्त और समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर जी को आज उनकी जयंती के अवसर पर हमारा सादर नमन ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत