इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू अध्याय – 17

Jawaharlal Nehru 1

इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू (डिस्कवरी ऑफ इंडिया की डिस्कवरी ) पुस्तक से ..

चंद्रगुप्त, चाणक्य और सिकंदर

  • डॉ राकेश कुमार आर्य

नेहरू जैसे इतिहास लेखकों की यह विशेषता रही है कि वह भारत के महान सम्राटों, शासकों और समाज सुधारकों या राष्ट्र निर्माताओं को किन्ही विदेशी सम्राट, शासक या समाज सुधारक अथवा राष्ट्र निर्माता के साथ बैठा देते हैं अर्थात भारत के ऐसे महापुरुषों की तुलना किसी विदेशी से करते हैं। जैसे समुद्रगुप्त को भारत का ‘नेपोलियन’ कह दिया गया। सरदार वल्लभभाई पटेल को भारत का ‘बिस्मार्क’ कह दिया गया। यद्यपि हमारा प्रत्येक भारतीय महापुरुष किसी भी विदेशी महापुरुष से कई अर्थों में अत्यधिक महान था। हमारे किसी भी महापुरुष का चरित्र इतना ऊंचा और महान रहा है, उसके आधार पर उसे किसी भी विदेशी कथित ‘ग्रेट पर्सन’ के साथ नहीं बैठाया जा सकता। हम सभी जानते हैं कि विदेशों में चरित्र को उतना महत्व नहीं दिया जाता जितना भारत में दिया जाता है। नेहरू जी जैसे लोगों ने ही विदेशों की नकल करते हुए इस बात को भारत में फैलाया है कि सार्वजनिक जीवन में रहने वाले किसी भी व्यक्ति का सार्वजनिक जीवन अलग है और उसका व्यक्तिगत जीवन अलग है। इसके विपरीत भारत में यह मान्यता रही है कि व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन ही उसके सार्वजनिक जीवन का आधार होता है।

हमारे इतिहास में जब हम अपने महान शासकों, महापुरुषों या समाज सुधारकों की तुलना किसी विदेशी से होती हई देखें तो इसे भारतीय इतिहास की पवित्र धारा के साथ मिलने वाले एक गंदे नाले के रूप में हमें देखना चाहिए। यह ऐसी मिलावट है जो इतिहास में बड़ी सावधानी से विकृति पैदा कर जाती है। आप समझिए कि समुद्रगुप्त जैसे मानवतावादी सम्राट की तुलना नेपोलियन जैसे अत्याचारी से नहीं की जा सकती। इसी प्रकार सात्विक भाव के साथ राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाले सरदार वल्लभभाई पटेल को बिस्मार्क के बराबर नहीं बैठाया जा सकता। हमें ऐसी तुलना को बहुत ही गंभीरता से लेना चाहिए। आंख मूंद कर ऐसी किसी भी तुलना पर विश्वास नहीं करना चाहिए। वास्तव में, यह शब्द विष है, जो बीज रूप में वाक्य के बीच-बीच में डाल दिया जाता है। इस विष को हम अनजाने में खा जाते हैं, जो हमारी बुद्धि को विषैला बनाता है। हमारे मस्तिष्क को विकृत करता है। जब हम इस विष को खा रहे होते हैं तो हमें यह पता ही नहीं चलता कि हमने स्वादु भोजन के साथ कौन से विष को निगल लिया है?

हिंदुस्तान की कहानी अथवा द डिस्कवरी ऑफ इंडिया के पृष्ठ 140 पर “चंद्रगुप्त और चाणक्य मौर्य साम्राज्य की स्थापना” नामक अध्याय में अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू चंद्रगुप्त और सिकंदर के बारे में हमें जानकारी देते हैं। वह लिखते हैं कि-

चंद्रगुप्त सिकंदर से खुद मिला। उसकी विजयों और शानोशौकत का हाल सुना और उसी की बराबरी करने का उसके मन में हौंसला पैदा हुआ। दोनों (अर्थात चंद्रगुप्त और चाणक्य) देखभाल और तैयारी में लगे रहे। उन्होंने बड़े ऊंचे मनसूबे बांधे और अपना मकसद पूरा करने के लिए मौके की इंतजार में रहे।”

चंद्रगुप्त के बारे में यह कहना कि ” जब वह सिकंदर से मिला तो उससे बहुत प्रभावित हुआ और उसकी बराबरी करने का उनके मन में संकल्प जागृत हुआ” वास्तव में अपने इस महानायक के साथ बहुत बड़ा अन्याय करना है। यह एक तथ्य है कि चंद्रगुप्त सिकंदर से मिले थे, परंतु वह दूसरे भाव और संकल्प को लेकर उस विदेशी आक्रमणकारी से मिले थे। हमें समझना चाहिए कि चंद्रगुप्त और चाणक्य की जोड़ी ने उस समय राष्ट्रवाद को नई ऊंचाइयां दी थीं।

उनकी दृष्टि में यह बहुत बड़ी राष्ट्रीय दुर्बलता थी कि जिस भारतवर्ष की सीमाओं की ओर देखने का कोई साहस नहीं कर पाता था, अब एक विदेशी उसी भारत पर आक्रमण करने में सफल हो गया था। अब उसके आक्रमण से उपजे जन-असंतोष को शांत करना और भारत की सीमाओं की हुई क्षति की पूर्ति करना, इन दोनों महानायकों का उद्देश्य हो गया था। चंद्रगुप्त पहले से ही सिकंदर से कहीं आगे सोच रहे थे। उस समय चाहे वह कुछ भी नहीं थे, परंतु अपने देश के बारे में उनकी सोच में जिस प्रकार की मजबूती आ चुकी थी, उसके चलते वह सिकंदर से कहीं अधिक ऊंचे विचारों वाले थे। उनका सिकंदर से मिलना कूटनीतिक स्तर पर उचित हो सकता है। कदाचित उनके लिए यह आवश्यक भी था कि वे सिकंदर के बल की टोह लेते। उसके बौद्धिक बल और बाहुबल का अनुमान लगाते और उसके पश्चात राष्ट्र निर्माण के कार्य में जुटते। राष्ट्र निर्माण के कार्य के लिए संकल्पित कोई भी व्यक्ति राष्ट्र की एकता और अखंडता को क्षतिग्रस्त करने वाले किसी विदेशी को अपना आदर्श मानकर उससे कदापि नहीं मिल सकता। हां, उसका सामना करने के लिए अपनी सुनियोजित योजना के अंतर्गत उससे अवश्य मिल सकता है।

अतः नेहरू जी की इस प्रकार की शब्दावली पर हमें यथापेक्षित सावधानी बरतते हुए आगे बढ़ना चाहिए।

साम्राज्य की सुंदर व्यवस्था के बारे में उल्लेख करते हुए नेहरू जी पृष्ठ 144 पर लिखते हैं कि-

“(चंद्रगुप्त के) साम्राज्य में व्यापार खूब होता था और दूर-दूर जगह के बीच चौड़ी सड़कें बनी हुई थीं। जिनके किनारे अक्सर यात्रियों के लिए आराम घर बने हुए थे। खास सड़क को राजपथ या राजा का रास्ता कहते थे और यह सारे देश को पार करता हुआ राजधानी से लेकर ठीक पश्चिमोत्तर सरहद तक जाता था। लिए अलग सुविधा प्रदान की गई थीं और जान पड़ता है कि विदेशी व्यापारियों का खास तौर पर जिक्र आता है और उनके उन्हें उनके आपस के व्यवहार में अपने देश के अलग कानून का कुछ हद तक लाभ दिया जाता था।”

यहां पर नेहरू जी ने जिस राजपथ का यह कहकर उल्लेख किया है कि “वह राजधानी से लेकर ठीक पश्चिमोत्तर सरहद तक जाता था” यही वह राजपथ है, जिसे आजकल हम जी.टी. रोड के नाम से जानते हैं। भारत-द्वेषी इतिहासकारों ने इस सड़क के निर्माण का श्रेय एक विदेशी आक्रमणकारी शेरशाह सूरी को दिया है। जबकि इसके होने के प्रमाण शेरशाह सूरी से बहुत पुराने हैं। जिसका उल्लेख कर नेहरू जी ने एक बहुत ही गौरवशाली प्रमाण को यहां स्थापित किया है। यद्यपि उनसे यह गलती अनजाने में ही हो गई है।

पाटलिपुत्र के सौंदर्य का वर्णन करते हुए नेहरू जी मेगस्थनीज (Megasthenes) का कथन प्रस्तुत करते हैं। पृष्ठ 145 पर वह मेगस्थनीज के माध्यम से हमें बताते हैं कि-

“इस नदी (अर्थात गंगा) और एक दूसरी नदी के संगम पर पालीबोच (अर्थात पाटलिपुत्र) बसा हुआ है। जो 80 स्टेडिया (9.2 मील) लंबा और 15 स्टेडिया (अर्थात 17 मील) चौड़ा है। इसकी शक्ल समचतुष्कोण की है। और यह लकड़ी की चारदीवारी से घिरा हुआ है। जिसमें तीर चलाने के लिए संदें बनी हुई हैं। सामने इसके एक खाई है। जो हिफाजत के लिए है और जिसमें शहर का गंदा पानी पहुंचता है। यह खाई जो चारों तरफ घूमी हुई हैं, चौड़ाई में 600 फीट है, और गहराई में 30 हाथ और दीवार पर 560 बुर्ज हैं और उसमें 64 फाटक हैं।”

मेगस्थनीज के द्वारा हमारे नगरों की सुंदरता के बारे में प्रस्तुत किए गए इस वर्णन से नेहरू जी सहित उन सभी नेहरूवादियों को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि जिन मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता पर वह आश्चर्य करते हैं, उनसे सुंदरतम व्यवस्था की ओर विदेशी लेखक के ऐसे वर्णन हमारा ध्यान आकर्षित कर लेते हैं। इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट होता है कि भारत में नगरों की सुंदरता का यह कार्य प्राचीन काल से होता आया है।

नेहरू जी महात्मा बुद्ध के उपदेशों की बहुत अधिक चर्चा करते हैं। वह उनसे अत्यधिक प्रभावित भी दिखाई देते हैं। इसके उपरांत भी नेहरू जी वह समझ नहीं पाए कि सारा वेद ज्ञान ओ३म् से निःसृत है।

ओइम से निकलकर सारा सृष्टिचक्र ओज्म में ही समाहित हो रहा है। ‘ओइम’ ईश्वर का निजी नाम है। ईश्वर के शेष नाम उसके गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार हैं। वह परमतत्व परमात्मा तो एक ही है पर विप्रजन उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते ओर उच्चारते हैं।

संसार में सर्वाधिक मूल्यवान वस्तुएं बहुत कम लोगों के पास होती हैं। बात सवारियों की करें तो दोपहिया वाहन तो अधिकांश लोगों के पास मिल जाते हैं, पर चार पहिया की गाड़ी कम लोगों के पास होती है और उनमें करोड़ों की कीमत वाली गाड़ियां और भी कम लोगों के पास होती हैं। वैसे ही सत्य जो कि सुंदर है, परंतु उसी अनुपात में बहुत मूल्यवान भी है, बहुत कम लोगों के पास उपलब्ध होता है। जैसे मिलावटी चीजें बाजार में बिकती रहती हैं, वैसे ही ‘सत्य’ भी मिलावटी करके बेचा जाता रहता है। लोगों ने धर्म जैसी सत्य, सुंदर और शिव अर्थात जीवनोपकारक कल्याणकारी वस्तु को भी मिलावटी बनाकर संप्रदाय (मजहब) के नाम पर बाजार में उतार दिया। लोग इस भेड़िया रूपी मजहब को ही धर्म मानकर खरीद रहे हैं और बीमार हो रहे हैं। संसार के अधिकांश लोगों को साम्प्रदायिक उन्माद ने रोगग्रस्त कर दिया है। यही कारण है कि सर्वत्र अशांति का वास है और मानव शांति को अब मृग मारीचिका ही मान बैठा है।

काश ! नेहरू जी भी धर्म और मजहब के बीच की इस सच्चाई को समझ पाते? यदि नेहरू जी ऐसा समझ गए होते तो वह मजहबी लोगों को कभी अधिक सम्मान नहीं देते और जो धार्मिक मानवतावादी दृष्टिकोण के लोग हैं उनके प्रति अर्थात भारतीय वैदिक संस्कृति में विश्वास रखने वाले महापुरुषों के प्रति उनके भीतर सम्मान स्वाभाविक रूप से झलक और उमड़ पड़ता।

यह पावन देश भारत विश्व के सभी देशों का सिरमौर केवल वालों का देश है। केवल यही देश है जो डंके की चोट कहता है-

ओइम अग्ने व्रतपते! व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् ।
इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि ॥

वेदमंत्र कह रहा है कि-

‘हे सत्यस्वरूप अग्रणी व्रतपत्ते परमात्मन। मैं आपसे सत्यभाषण अर्थात सदा सत्य बोलने और सत्य का ही अनुकरण करने का व्रत लेता हूं, किंतु साथ ही सत्यभाषी होने का सामर्थ्य भी चाहता हूं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप मेरी प्रार्थना को सुनेंगे और मुझ पर अपनी अपार कृपा की वर्षा करेंगे।’

भारत सत्योपासक इसलिए रहा कि उसने ही सर्वप्रथम इस तथ्य को समझा कि सत्य से ही न्याय निकलता है। पक्षपात रहित न्याय वही व्यक्ति कर सकता है जो सत्य को धारण करने वाला होगा, अथया जो धर्मप्रेमी होगा। जो व्यक्ति मजहबी अर्थात साम्प्रदायिक होगा वह न्याय करने में भी पक्षपात कर जाएगा। भारत के राष्ट्रीय संस्कारों में इस प्रकार के धर्मप्रेमी लोगों के चरित्र को सम्मिलित किया जाता रहा है। सत्यप्रिय होना न्याय प्रिय होना है और जो सत्य और न्याय का पक्षधर होता है, वही धर्म प्रेमी होता है। धर्मनिरपेक्ष होना मानो सत्य और न्याय से दूर भागना है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता भारतीय राजनीति का और राष्ट्रीय संस्कारों का सर्व स्वीकृत अंग नहीं हो सकता। दुर्भाग्यवश नेहरू जी भारत की खोज करने के उपरांत भी इस सच्चाई को समझ नहीं सके।

क्रमशः

(आलोक – डॉक्टर राकेश कुमार आर्य के द्वारा 82 पुस्तकें लिखी व प्रकाशित की जा चुकी हैं। उक्त पुस्तक के प्रथम संस्करण – 2025 का प्रकाशन अक्षय प्रकाशन दिल्ली – 110052 मो० न० 9818452269 से हुआ है।
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डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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