इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू (अध्याय – 14)

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  • डॉ राकेश कुमार आर्य

इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू (डिस्कवरी ऑफ इंडिया की डिस्कवरी) अध्याय – 14

तब था धरती पर अंधकार

नेहरू जी द डिस्कवरी ऑफ इंडिया अर्थात हिंदुस्तान की कहानी नामक अपनी पुस्तक के पृष्ठ 101 पर मैक्स मूलर के इस कथन को भारत के संदर्भ में बड़े गर्व के साथ लिखते हैं कि-

“अगर हम सारी दुनिया की खोज करें, ऐसे मुल्क का पता लगाने के लिए कि जिसे प्रकृति ने सबसे संपन्न शक्ति वाला और सुंदर बनाया है, जो कुछ हिस्सों में धरती पर स्वर्ग की तरह है तो मैं हिंदुस्तान की तरफ इशारा करूंगा। अगर मुझसे कोई पूछे कि कि आकाश के तले इंसान के दिमाग में अपने कुछ सबसे चुने हुए गुणों का विकास किया है, जिंदगी के सबसे अहम मसलों पर सबसे ज्यादा गहराई के साथ सोच विचार किया है और उनमें से कुछ के ऐसे हल हासिल किए हैं, जिन पर उन्हें भी ध्यान देना चाहिए, जिन्होंने कि अफलातून और कांट को पढ़ा है तो मैं हिंदुस्तान की तरफ इशारा करूंगा और अगर में अपने से पूछू कि कौन सा ऐसा साहित्य है, जिससे हम यूरोप वाले जो बहुत कुछ महज यूनानियों और रोमनों और एक सैमेटिक जाति के यानी यहूदियों के विचारों के साथ साथ-साथ पले हैं, वह इस्लाह हासिल कर सकते हैं, जिसकी हमें अपनी जिंदगी को ज्यादा मुकम्मल, ज्यादा विस्तृत और ज्यादा व्यापक बनाने के लिए जरूरत है, न महज इस जिंदगी के लिए लिहाज से बल्कि एक एकदम बदली हुई और सदा कायम रहने वाली जिंदगी के लिहाज से तो मैं हिंदुस्तान की तरफ इशारा करूंगा।”

वास्तव में यहां पर मैक्स मूलर ने जो कुछ भी भारत के संदर्भ में कहा है, वह उसके भारत के संबंध में गहन और व्यापक दृष्टिकोण को इंगित करता है। यद्यपि हम यह बात भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि मैक्स मूलर ने भारत को बहुत कुछ समझ कर भी पूर्णता में नहीं समझा था। यही कारण है कि उसने भारतीय संस्कृति, संस्कृत और वेदों के बारे में बहुत कुछ ऐसा भी लिख दिया है, जिसे उसकी भारत के संबंध में ज्ञान की अपूर्णता ही कहा जाएगा। इसके उपरांत भी उसने अपनी उपरोक्त पंक्तियों में जो कुछ भी लिखा है, वह पूर्ण न होते हुए भी पूर्णता की ओर संकेत अवश्य करता है।

रोमां रोलां (Roman Rolland) के इस कथन को भी नेहरू जी लिखते हैं कि-

“अगर दुनिया की सतह पर कोई एक मुल्क है, जहां कि जिंदा लोगों के सभी सपनों को उस कदीम वक्त से जगह मिली है, जब से इंसान ने अस्तित्व का सपना शुरू किया तो वह हिंदुस्तान है।”

इसका अर्थ है कि भारत ने प्राचीन काल से मानव की उन्नति के लिए उसकी स्वाधीनता को प्रतिबंधों से मुक्त रखा है। इसके विपरीत पश्चिमी जगत ने मानव की स्वाधीनता को प्रतिबंधित किया। जब वह उपनिवेशवादी व्यवस्था के लिए संसार के अन्य क्षेत्रों पर अपना कब्जा कर रहा था, तब भी वह उन्नति के स्थान पर दूसरों पर बलात अपना अधिकार स्थापित कर दमन और शोषण की नीति को अपनाए हुए था। जिससे उसके स्वाधीनता विरोधी आचरण का पता चलता है।

वेदों की प्राचीनता पर विचार करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने द डिस्कवरी ऑफ इंडिया के पृष्ठ 88 पर प्रोफेसर विंटरनीज (Maurice Winternitz) का विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि वैदिक साहित्य का आरंभ ईसा से 2,000 बल्कि 2,500 वर्ष पहले होता है।

जिस देश के बारे में मैक्स मूलर और रोमां रोलां जैसे अनेक विदेशी लेखकों ने भी बड़े शानदार कसीदे काढ़े हैं, उनकी बातों से सहमत होकर भी नेहरू जी भारत के अतीत को बहुत अधिक खंगाल नहीं पाए। यह बहुत ही आश्चर्य की बात है कि वह इस बात से सहमत रहे कि ईसा से 2,000 बल्कि 2,500 वर्ष पहले वैदिक साहित्य का आरंभ हुआ। इसका इसका अर्थ हुआ कि नेहरू जी यह मानते थे कि उससे पहले का मानवता का करोड़ों वर्ष का इतिहास अंधकार का इतिहास है।

भारत के इतिहास के बारे में जब हम पढ़ना आरंभ करते हैं तो नेहरू जी जैसे कई ऐसे अन्य इतिहासकार भी हैं, जिनके द्वारा ऐसा आभास कराया जाता है कि जैसे पिछले 2,000 वर्ष से पूर्व का भारत का सारा अतीत अंधकार का है। पढ़ने से कुछ ऐसा लगता है कि जैसे भारत के पास ऐसा कुछ भी नहीं है, जिस पर वह गर्व और गौरव की अभिव्यक्ति कर सके। भारत के लोगों को हीन भावना से ग्रसित करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर लिखा गया ऐसा इतिहास भारत के इतिहास के स्रोतों में वेदों को कोई स्थान नहीं देता। जबकि सच यही है कि वेदों के आलोक में यदि इतिहास को लिखा, पढ़ा व समझा जाए तो भारत के इतिहास पर लगा यह आक्षेप स्वतः निरस्त हो जाएगा कि भारत के इतिहास में कोई अंधकार का काल भी है। वेदालोक को देखकर हम स्वयं अनुमान लगा लेंगे कि जहां वेदों की ऋचाओं के माध्यम से हमारे ऋषि-मुनि उत्कृष्ट ज्ञान-चर्चा किया करते थे, वहां प्रकाश के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकता। वेद का अभिप्राय ही ज्ञान के प्रकाश से है। ज्ञान के प्रकाश की उपासना करना अंधकार को चीरने का पुरुषार्थ करने जैसा है। भारत इसी साधना के लिए जाना जाता है और इसकी यह साधना कल परसों की अर्थात दो-ढाई हजार वर्ष पुरानी साधना नहीं है। यह उतनी ही पुरानी है, जितना पुराना मानव का इतिहास है।

नेहरू जी उपनिषदों के बारे में लिखते हैं कि-

” इनका समय ईसा से 800 वर्ष पहले से लेकर है। हमें भारतीय आर्यों के विचार के विकास में एक कदम आगे ले जाते हैं और यह बड़ा लंबा कदम है। आर्य लोगों को बसे हुए अब काफी समय बीत चुका है और एक पायदान और खुशहाल सभ्यता जिसमें पुराने और नए का मेल हो चुका है, बन गई है। इसमें आर्यों के विचार और आदर्श प्रभाव रखते हैं, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि में पूजा के जो रूप हैं वह और भी पहले के और आदिम हैं।”

नेहरू जी के इस कथन से भी स्पष्ट होता है कि वह उपनिषदों के लेखन काल से भी परिचित नहीं थे। फिर भी यदि यह मान भी लिया जाए कि ईसा से 800 वर्ष पूर्व भारत के ऋषि उपनिषदों की रचना कर रहे थे तो भी यह माना जा सकेगा कि पश्चिमी जगत की अपेक्षा भारत अर्थात भारतवर्ष का जगत बहुत ऊंचे चिंतन वाला बन चुका था।

पृष्ठ 112 पर नेहरू जी स्वयं अपनी इस अज्ञानता को प्रकट कर देते हैं कि उन्हें महाकाव्य अर्थात रामायण और महाभारत के रचनाकाल की कोई जानकारी नहीं थी। वह लिखते हैं कि-

” उपनिषदों के सहज ज्ञान से जुदा बाकायदा फिलसफों का दिखाई पड़ना शुरू होता है और यह अनेक रूपों में जैन, बौद्ध और जिसे हम दूसरे शब्दों के अभाव से हिंदू कहेंगे (उन्हें हिंदू कहने में हर स्थान पर संकोच हुआ है। कहा जाता है कि वह स्वयं को भी ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ कहा करते थे। हिंदू शब्द में उन्हें सांप्रदायिकता दिखाई देती थी। जबकि इस्लाम उन्हें सांप्रदायिक शब्द दिखाई नहीं देता था।) सामने आते हैं। इसी जमाने के महाकाव्य हैं और भगवद्गीता भी इसी जमाने की चीज है। (रामायण और गीता को वह महाकाव्य कहते हैं, और महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी के आने के पश्चात इनका रचनाकाल मानते हैं। जबकि इस बात पर अन्य सभी विद्वान एकमत हैं कि महात्मा बुद्ध से पहले ही इन ग्रंथों की रचना हो चुकी थी।) इस जमाने का कालक्रम ठीक-ठाक मुकर्रिर कर सकना मुश्किल है, (उन्होंने कालक्रम को ठीक-ठाक न तो समझा और न ही स्थापित करने का गंभीर प्रयास किया, जो लेखक स्वयं दिग्भ्रमित हो, वह अपने पाठकों को भी दिग्भ्रमित ही कर सकता है, इसके अतिरिक्त उससे अन्य कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती।) क्योंकि विचार और सिद्धांत एक दूसरे पर छाए हुए थे और आपस में उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती थी। बुद्ध ईसा से पहले की छठी शताब्दी में हुए हैं। इनमें कुछ का विकास उनसे कब्ल हुआ कुछ का बाद में या अक्सर इन दोनों के विकास साथ-साथ चलते रहे।”

रामायण और महाभारत के बारे में नेहरू जी पृष्ठ 114 पर स्पष्ट लिखते हैं कि “कदीम (प्राचीन) हिंदुस्तान के दो बड़े ‘महाकाव्य’ रामायण और महाभारत शायद कई सदियों में तैयार हुए और बाद में भी उनमें नये टुकड़े जोड़े जाते रहे। (इस प्रकार नेहरू जी की दृष्टि में रामायण और महाभारत का कोई एक लेखक नहीं है। कई शताब्दियों में उनके लिखे जाने की बात कह कर नेहरू जी यह भी स्पष्ट करते हैं कि इन महाकाव्यों को एक से अधिक लेखकों या कवियों ने तैयार किया था। इतना ही नहीं, नेहरू जी यह भी मानते थे कि इनमें अभी भी नई-नई बातें जोड़ी जा रही हैं।)

इन दोनों पुस्तकों के बारे में अपनी और भी अधिक अज्ञानता का प्रदर्शन करते हुए नेहरू जी आगे लिखते हैं कि ” उनमें भारतीय आर्यों के शुरू के दिनों का हाल है। उनकी विजयों का, उनकी आपस की उस वक्त की लड़ाइयों का, जब वह फैल रहे थे और अपनी ताकत को मजबूत कर रहे थे, (ऐसा कहकर नेहरू जी आर्यों के बारे में यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि वह भी मुगलिया कबीलों की भांति शक्ति प्रदर्शन के माध्यम से अपने-अपने राज्य स्थापित करने के लिए तत्कालीन संसार में उपद्रव मचा रहे थे। नेहरू जी की इस भ्रांत धारणा का प्रभाव यह हुआ कि भारत के इतिहास को भी लोगों ने सही संदर्भ में समझने का प्रयास नहीं किया अपितु जिस प्रकार अन्य देशों में कबीलाई संघर्ष होते रहे, उसी प्रकार भारत के अतीत को भी कबीलों में बांटकर देखने की परंपरा आरंभ हो गई। कबीलों जैसी जिस अमानवीय सोच और परंपरा का भारत के आर्यों ने विरोध किया, उसके विपरीत भारत के अतीत के महापुरुषों पर नेहरू जी ने अपनी अजीब लेखनशैली से नए-नए दाग लगा दिए।) लेकिन इन महाकाव्यों की रचना और संग्रह बाद की बातें हैं। मैं कहीं की किसी ऐसी पुस्तक को नहीं जानता हूं, जिसने आम जनता के दिमाग पर इतना लगातार और व्यापक असर डाला है, जितना कि इन दो पुस्तकों ने डाला है।”

वेदों की जानकारी होने पर अपने आप पता चल जाता है कि भारत के इतिहास का शुभारंभ दिव्य प्रकाश के साथ होता है।

सृष्टि के प्रारंभ में ही परमपिता परमेश्वर ने जिस प्रकार वेदों को अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा नामक चार ऋषियों को अर्पित किया,उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जब तक यह सृष्टि है, तब तक के लिए परमपिता परमेश्वर ने सृष्टि के प्रारंभ में ही हमारे ऋषियों को वेद के रूप में एक ‘संविधान’ प्रदान किया था।

वैदिक ग्रंथ हमारे इतिहास के ऐसे स्रोत हैं, जिनको समझकर हमें अपने ऋषियों के ज्ञान-विज्ञान की विशद जानकारी होती है।

जिन ब्राह्मण ग्रंथों में देवासुर संग्राम की अनेक घटनाओं को वर्णित किया गया है, उन्हें या तो इतिहासकारों ने समझा नहीं है या अपनी-अपनी कल्पनाओं के आधार पर उनकी गलत-सलत व्याख्याएं स्थापित कर हमारे इतिहास को विकृत करने का प्रयास किया है। हमें अपनी संस्कृत से काटकर और संस्कृति से दूर करने का गंभीर षड़यंत्र रचा गया।

हमने संसार में संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान के आधार रहे वेद के आलोक में आगे बढ़ना आरंभ किया। यदि इतिहास को इस दृष्टिकोण से देखा जाएगा तो अपने आप स्पष्ट हो जाएगा कि भारत के लोग जंगली जानवरों की भांति व्यवहार करने वाले कभी नहीं थे। उन्होंने ऋषियों के आश्रमों में रहकर गहन ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त किया। उस ज्ञान-विज्ञान से अनेक प्रकार के आविष्कार किये। ऋषि कणाद जहां प्राचीन काल में परमाणु का ज्ञान रखते थे, वहीं ऋषि भारद्वाज विमान बनाने की कला में पारंगत थे। अनेक ऋषि इसी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के आविष्कार कर मानवता की सेवा कर रहे थे। वे जंगली जानवरों की भांति लड़ने झगड़ने वाले और कबीलों में रहकर एक दूसरे के कबीलों का नाश करने की योजनाओं को बनाने वाले लोग नहीं थे।

जहां तक अंधकार काल की बात है तो अंधकार काल उसे कहते हैं जहां तमस छाया हुआ हो। तामसिक वृत्तियां जहां पर हावी हों, वहां अंधकार होता है। जबकि भारत के अतीत के इन पन्नों का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि यहां पर तमस नहीं बल्कि सात्विकता का पवित्र भाव सर्वत्र छाया हुआ था। सात्विकला के इसी पवित्र भाव में ज्ञान-विज्ञान फलता-फूलता है। क्योंकि सात्विकता शांति का प्रतीक है और शांति उन्नति कराती है।

भारत ऋषियों का देश है।ऋषियों के माध्यम से ही यहां विज्ञान फूला और फला है। ऋषियों की सात्विकता ने भारत को भारत बनाने में अर्थात ज्ञान की दीप्ति में रत रहने वाला एक पवित्र देश या राष्ट्र बनाने में सहायता की है तो हमें इस आक्षेप से यथाशीघ्र मुक्ति पानी होगी और यह स्थापित करना होगा कि भारत संसार का सबसे पवित्र देश है, जो वेदों के आलोक में पला और बढ़ा है। भारत के इतिहास में कोई अंधकार का काल इसलिए भी नहीं हो सकता कि संसार में केवल भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो “तमसो मा ज्योतिर्गमय” अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर चलने की उपासना करता आया है।

अब प्रश्न यह है कि ऐसा आक्षेप क्यों लगाया जाता है कि भारत पिछले 2,000 साल से पहले घोर अंधेरे युग में खोया हुआ था? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए ऐसा आरोप लगाने वाले लोगों की मानसिकता को पढ़ने और समझने की आवश्यकता है। जिन लोगों ने भारत पर ऐसा आरोप लगाया है, उनकी मानसिकता भारत को कम करके आंकने की रही है। ये वही लोग हैं जो अपने मत, पंथ, संप्रदाय और अपने धर्म गुरुओं को भारत के ऋषि महर्षियों के चिंतन से भी ऊंचा सिद्ध करने का प्रयास करते रहे हैं। यदि भारत को ऋषि-महर्षियों का देश माना जाएगा तो भारत को कम करके आंकने वाले इन इतिहास लेखकों की मान्यताओं को भूमिसात होने में देर नहीं लगेगी। इसलिए वह यही शोर मचाते रहेंगे कि भारत अब से लगभग 2,000 वर्ष पहले जंगली लोगों का देश था।

जिन लोगों ने भारत के ऋषि पूर्वजों को जाहिल समझा है, उन्होंने देश के साथ पाप किया है। आज समय अपने तथाकथित अंधकार के काल को “तमसो मा ज्योतिर्गमय” की पवित्र विचारधारा के साथ समन्वित करके देखने का है। जितनी शीघ्रता से हम इस पवित्र भावना के साथ अपने राष्ट्रीय संकल्प को समर्पित कर देंगे, उतनी ही शीघ्रता से हम देखेंगे कि भारत विश्वगुरु के पद पर विराजमान हो जाएगा।

क्रमशः

– डॉ राकेश कुमार आर्य

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