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भारत में जाति आधारित जनगणना और धर्म आधारित आरक्षण की मांग रह-रहकर उठती रहती है। देश के अधिकांश नेता ऐसे हैं जो ‘ जाति’ शब्द का अर्थ नहीं जानते। इतना ही नहीं, उन्हें ‘ धर्म’ का भी अर्थ ज्ञात नहीं है । जाति आधारित जनगणना और धर्म आधारित आरक्षण की मांग वास्तव में अंधेरे में उल्लुओं के मध्य होने वाला संघर्ष है।

देश में ऐसे तथाकथित विद्वान बहुत हैं, जिन्होंने जाति बनाने का ठीकरा वर्ण आधारित व्यवस्था को आधार मानकर महर्षि मनु के नाम फोड़ दिया है। यही तथाकथित विद्वान मजहब या रिलीजन को धर्म मानने की मूर्खता बार-बार करते हैं। कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों ने धर्म को ‘अफीम’ कहा है और इस विचार या विचारधारा का अनुगमन कांग्रेस भी करती हुई दिखाई देती है। कहने के लिए कांग्रेस अपने आप को कम्युनिस्ट आंदोलन से अलग दिखाती है, परंतु वास्तविकता यह है कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत में रूस की कम्युनिस्ट विचारधारा को थोपने का प्रयास किया था। उनकी मृत्यु के उपरांत जब इंदिरा गांधी को अपनी सरकार चलाने के लिए कुछ बाहरी दलों के समर्थन की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने भी निसंकोच कम्युनिस्टों से समर्थन प्राप्त कर लिया था। इसकी एवज में कम्युनिस्ट दलों ने कांग्रेस से देश का शिक्षा मंत्रालय मांगा था। जिसे इंदिरा गांधी ने सहर्ष दे दिया था। उन्होंने नूरुल हसन को देश का शिक्षा मंत्री बना दिया था और एक प्रकार से देश के हिंदूवादी इतिहास की हत्या करने का प्रमाण पत्र ही नूरुल हसन के हाथों में दे दिया था। नेहरू ने भी इतिहास की कम्युनिस्ट समर्थक व्याख्या की है। नेहरू स्वयं नहीं जानते थे कि जाति क्या है और धर्म क्या है ? वह नहीं जानते थे कि जातियों का अर्थात योनियों का निर्धारण परमपिता परमेश्वर अपनी न्याय व्यवस्था के अंतर्गत स्वयं करते हैं, कोई भी मनुष्य इस कार्य को नहीं कर सकता। वह यह भी नहीं जानते थे कि धर्म नैसर्गिक है, जिसे बदला या धारण नहीं किया जा सकता बल्कि वह स्वयं हमको धारण किये होता है। इसी गुड़ गोबर वाली मानसिकता पर चलते हुए कांग्रेस के अगले प्रधानमंत्रियों ने काम करना आरंभ किया। यद्यपि शास्त्री जी इसके अपवाद रहे।

हम सभी जानते हैं कि झंडा समिति के सामने एक ऐसा भगवा झंडा भी आया था जिसके बीच में ओ३म लिखा हुआ था। इसे अधिकांश लोग भारत का राष्ट्रीय झंडा मानने पर सहमत थे। परंतु नेहरू ने इसका विरोध किया था। इसी प्रकार वंदे मातरम वाले केसरिया ध्वज का भी नेहरू द्वारा ही विरोध किया गया था । उन्होंने संस्कृत भाषा को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने का भी विरोध किया। आज अधिकांश लोग ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का विरोध किया था। इसलिए यह संगठन सांप्रदायिक है। उन्हें यह नहीं पढ़ाया नहीं गया कि भारत की मौलिक वैदिक संस्कृति के प्रतिनिधि ओ३म वाले केसरिया ध्वज का नेहरू एंड कंपनी ने सांप्रदायिक कहकर विरोध किया था।

ओ३म, वंदे मातरम और संस्कृत से कांग्रेस और देश के धर्मनिरपेक्ष दलों सहित कम्युनिस्टों को सांप्रदायिकता की गंध आती थी। इतना ही नहीं, इन्हें भारत के भारत नाम से भी ऐसी ही गंध आती रही है। यही कारण है कि नेहरू ने India , that is Bharat .. भारत देश के संविधान में लिखवाया। आज भी ये धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल ‘ इंडिया’ गठबंधन की राजनीति करते हैं।

कांग्रेस के राहुल गांधी भारत और भारतीयता के प्रति नेहरू से भी खतरनाक दृष्टिकोण रखते हैं । इन्हें भारत की कोई भी वैदिक परंपरा स्वीकार्य नहीं है। कारण यह है कि इन्होंने नेहरू की ‘ डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पढ़ी है । जिसमें भारतीयता का मजाक बनाया गया है। अब राहुल गांधी देश में जातिवाद की राजनीति को बढ़ावा देकर हिंदुओं को अनेक टुकड़ों में बिखेर देना चाहते हैं। राहुल गांधी की मान्यता है कि तथाकथित अल्पसंख्यक वर्ग की बंधी हुई वोट के साथ-साथ कुछ जातियों की वोट यदि कांग्रेस को मिल गईं तो वह सत्ता में लौट आएंगे। अपने सत्ता स्वार्थ के लिए जाति को आधार बनाकर देश को तोड़ने की तैयारी राहुल गांधी कर रहे हैं। इसी लीक पर समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव चल रहे हैं। उन्हें उत्तर प्रदेश की सत्ता चाहिए तो राहुल गांधी को देश की सत्ता चाहिए। अब राहुल गांधी अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऐसे ऐसे वक्तव्य दे रहे हैं जिन्हें सुन समझकर उनके खतरनाक इरादों की जानकारी होती है। वह हर स्थान पर कहते मिलते हैं कि अमुक संस्थान में यहां तक कि संवैधानिक संस्थानों में भी इतने दलित होने चाहिए, इतने ओबीसी होने चाहिए ? जबकि अभी 11 वर्ष पहले तक देश में कांग्रेस की ही सरकार थी। यदि राहुल गांधी दलितों, शोषितों और ओबीसी वर्ग के लोगों के इतने ही शुभचिंतक थे तो उन्होंने उस समय ऐसा क्यों नहीं कराया था ? उनके कई वक्तव्यों को लोग हल्के में ले लेते हैं, परंतु वास्तव में उनके पीछे उनका उद्देश्य हिंदू समाज को तोड़ने का होता है। टूटे बिखरे हिंदू समाज की छाती पर चढ़कर सत्ता में पहुंचना उनका लक्ष्य होता है। अपनी इसी मानसिकता को यथार्थ के धरातल पर उतस्वीरें करना होगा रते हुए वह कहते हैं कि देश में कोई मोचियों का बैंक क्यों नहीं है ? कभी वह कहते हैं कि अमुक जाति के लोगों का प्रशिक्षण केंद्र क्यों नहीं बनाया गया ?

जबकि सच यह है कि भारतवर्ष में परंपरागत व्यवसायों को कांग्रेस ने ही समाप्त किया। अपनी मूर्खतापूर्ण नीतियों के चलते जुलाहा, मोची ,लोहार, बढ़ई, सुनार आदि के परंपरागत रोजगारों को कांग्रेस ने नौकरियों का सपना दिखा-दिखाकर युवाओं से छीन लिया। अब जब देश में बेरोजगारों की भारी भीड़ हो गई है तो कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को लोगों को अपने परंपरागत रोजगारों से जोड़ने की सुधि आ रही है।

वास्तव में यह लोगों को अपने परंपरागत रोजगारों से जोड़ने की सुधि नहीं है बल्कि राहुल गांधी लोगों को केंद्र की मोदी सरकार के विरुद्ध भड़काने का कोई ना कोई हथकंडा ढूंढ रहे हैं। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह जाति आधारित जनगणना को अपना हथियार बना रहे हैं।

यदि राहुल गांधी वास्तव में ही देश के अनुसूचित जाति के लोगों के शुभचिंतक हैं तो उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि इन लोगों के आरक्षण के प्राविधानों को नष्ट करने के लिए डॉ भीमराव अंबेडकर जी के जीवन काल में ही नेहरू सक्रिय हो गए थे । जिस पर देश की संसद में डॉ अंबेडकर और नेहरू के बीच गरमागरम बहस हुई थी। जब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का देहांत हुआ तो उनके मृत्यु के 2 वर्ष पश्चात कुछ लोगों ने उनकी प्रतिमा देश की संसद के केंद्रीय हाल में लगवाने की बात नेहरू से कही थी। जिस पर नेहरू ने स्पष्ट शब्दों में इंकार कर दिया था और कह दिया था कि इस हाल में डॉ अंबेडकर की प्रतिमा के लिए कोई स्थान नहीं है। आज उन्हीं अंबेडकर जी को राहुल गांधी सिर पर उठाये घूम रहे हैं, जिनके प्रति उनकी पार्टी के पहले प्रधानमंत्री का दृष्टिकोण कुछ इस प्रकार का रहा था।

बड़ी तेजी से देश में जाति और मजहब को राजनीति के लिए दबाव गुट के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। सारी राजनीतिक इतनी गंदी हो चुकी है कि जाति और संप्रदाय के अतिरिक्त इसे चीजों में कुछ और दिखाई ही नहीं देता। चाहे कितना ही महत्वपूर्ण मुद्दा क्यों न हो, परंतु लोगों को जातिगत हित पहले पूरे होते हुए दिखाई देने चाहिए, तभी वे किसी मुद्दे पर या तो बहस में भाग लेते हैं या उसके समर्थन में अपने हस्ताक्षर करते हैं। यही स्थिति मजहब के बारे में लागू हो चुकी है। इस पीड़ादायक स्थिति में धर्म कहीं कोने में खड़ा अकेला आंसू बहा रहा है। क्योंकि यह धर्म ही था, जिसने 1947 में देश के स्वाधीन होने के पश्चात यह सपना देखा था कि अब उसकी कमर पीटने वाला कोई नहीं रहेगा, अपितु अब धर्म अर्थात नैतिक कर्तव्यों के आधार पर सब कार्य संपादित होंगे। ….जब अपरिपक्व लोग राजनीति में वर्चस्व स्थापित कर नेतृत्व संभाल लेते हैं तो ऐसे ही परिणाम आते हैं। इन परिणामों के माध्यम से नैतिक मान्यताएं धूलि-धूसरित होती हैं । नैतिकता छुपकर रोती है। अनैतिकता सड़कों पर नंगा नाच करती है।
…… अंजाम-ए-गुलिस्ता क्या होगा ?

डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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