संग्रह-भोग दोनों छिपे,
नहीं अकेला काम।
राग-द्वेष बाधा बड़ी,
कैसे पाऊँ राम॥2770॥
तत्त्वार्थ: – मेरे प्रिय पाठक, उपरोक्त दोहे का मर्म समझें इससे पूर्व इस क्रम को समझेंगे तो बात समझ में आ जायेगी। वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति के प्रति सबसे पहले मन में आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से राग पैदा होता है। अमुक व्यक्ति, वस्तु अथवा परिस्थिति की प्राप्ति में बाधा आने पर क्रोध अथवा द्वेष पैदा होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने “द्वेष को क्रोध का अचार कहा है। इस क्रोध अथवा द्वेष से ही अन्य मनोविकार उत्पन्न होते हैं, जैसे- ईर्ष्या , घृणा, मद मोहे लोभ अहंकार इत्यादि ।
ध्यान रहे, काम, क्रोध, मद, मत्सर लोभ और मोह – ये षडरिपु कहलाते हैं। भोगों की तरफ चित्त की वृत्तियों का होना ‘काम’ कहलाता है। संग्रह की तरफ चित्त की वृत्तियों का होना लोभ कहलाता है। चित्त में किसी के प्रति जलनात्मक वृत्ति का होना क्रोध कहलाता है।
यहाँ एक बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है- ‘काम’ शब्द बोलने में तो अकेला है किन्तु इसके गर्भ में भोग और संग्रह दोनों छिपे होते हैं। काम में बाधा आने पर क्रोध आता है। ध्यान रहे, अपने से कमजोर
पर अक्सर आता है जबकि अपने से ताकतवर से भय उत्पन्न होता है ।
प्रभु-प्राप्ति की राह में प्राय: साधकों से यही भूल होती है – षडरिपुओं का तो शमन करते नहीं है, और चाहते हैं प्रभु-प्राप्ति के अभिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करना। यह मृग-तृष्णा है, दिवा – स्वप्न है, जो ना मुमकिन है। अतः प्रभु-प्राप्ति के लिए अन्तःकरण का पवित्र होना नितान्त आवश्यक है।
क्रमशः