औरंगजेबी मानसिकता का उपचार वास्तविक इतिहास से अवगत कराना जरूरी

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  • शंकर शरण

हिंदू विविध मुद्दों पर विवाद में मशगूल रहते हैं, पर किसी मुद्दे को सींग से पकड़कर निर्णायक दिशा में मोड़ना और समस्या को हल करना नहीं जानते। सदियों पहले गुजरे औरंगजेब की आज भी लानत-मलामत उसी का उदाहरण है। उसका उपयोग विविध नेता और दल अपनी-अपनी राजनीति खरी करने में करते हैं, जबकि मुस्लिम नेता अपने समुदाय का राजनीतिक हित कभी नहीं छोड़ते। वे मुसलमानों में घमंडी अलगाव भरते हैं कि मुसलमानों ने हिंदुओं पर ‘सदियों शासन किया और फिर करेंगे। हिंदुओं में शासन की क्षमता ही क्या है। वे तो लोभी, ऊंच-नीचवादी हैं।’ ऐसे ही मुस्लिम नेता हिंदुओं को भरमाते हैं कि औरंगजेब तो भला और न्यायप्रिय था। उसकी निंदा करना अनुचित हिंदू सांप्रदायिकता है।
अधिकांश हिंदू नेता औरंगजेब जैसे मुद्दों से केवल दलीय स्वार्थ साधते हैं, चाहे समाज की कितनी भी हानि और बदनामी हो। अन्यथा यह कैसे संभव होता कि हिंदू अपने ही देश में बदनाम होते रहें? यह सब विविध प्रकार के हिंदू नेताओं-बौद्धिकों के हाथों होता रहा है। हिंदूवादी नेता भी ऐसे मुद्दों पर दोहरापन दिखाते हैं। सत्ता से बाहर रहते जो मुद्दे उठाते हैं, सत्ता पाकर उन्हीं को ‘अप्रासंगिक’ बताते हैं। पहले अतिक्रमित मंदिरों पर आंदोलन करके वोट प्राप्त किए, पर सत्ता में आकर हिंदुओं को फटकारा कि ‘हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग क्यों खोजना।’

इस्लामी आक्रांताओं का मुद्दा क्षुद्र राजनीति के लिए सुलगते रहने देना दुर्भाग्यपूर्ण है। इसलिए और भी, क्योंकि औरंगजेब जैसे आततायियों का सही स्थान तय करना आसान है, पर यह तब होगा, जब इसे दलीय संकीर्णता से मुक्त रहकर सामाजिक हित में किया जाएगा। समाधान के विकल्प मौजूद हैं। समय-समय पर देसी-विदेशी ज्ञानियों, महानुभावों ने बताया भी है। अन्य देशों में ऐसे समाधान का उदाहरण भी है।

औरंगजेब की कब्र हटाने की मांग अनावश्यक है। इससे कोई नीतिगत उपलब्धि नहीं होगी। इसके बदले जैसा कवि-चिंतक अज्ञेय ने सुझाया था, अतीत के ऐसे शासकों के स्मारक रहने देने के साथ-साथ वहीं ‘इतिहास-वीथी’ जैसा संग्रहालय बनाना अच्छा है, जिसमें उनके तमाम काले कारनामे प्रामाणिक रूप में बताए जाएं। इससे सबको जरूरी शिक्षा और अपने लिए आगे सही कर्तव्य भी मिलेगा। यह लज्जाजनक है कि जो लोग औरंगजेब की कब्र उखाड़ने की बात करते हैं, वही जम्मू-कश्मीर या बंगाल में औरंगजेबी मानसिकता वाले हमलावरों के वैसे ही कारनामों पर चुप्पी साधे रखते हैं। एक बयान तक नहीं देते। बंगाल में पिछले विधानसभा चुनाव बाद जब यह हुआ तो संघ-भाजपा के कार्यकर्ता भी गुहार लगाते रहे, पर उनके तमाम नेता गुम रहे।
असली बात समाधान की इच्छा का अभाव है, अन्यथा समाधान हो चुका होता। इस पर प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने दिल्ली में आजाद मेमोरियल लेक्चर में कहा था कि प्रथम विश्व युद्ध में पोलैंड पर कब्जे के बाद रूसियों ने राजधानी वारसा में रूसी आर्थोडाक्स चर्च का निर्माण किया, पर जैसे ही पोलैंड स्वतंत्र हुआ, वह चर्च तोड़ दिया गया। उसे याद कर टायनबी ने औरंगजेब द्वारा भारत में बनवाई मस्जिदों पर कहा कि वे भी इस्लामी साम्राज्यवाद का प्रतीक थीं। उन मस्जिदों में कोई मजहबी भावना न थी।

औरंगेजब ने जानबूझकर आक्रामक राजनीतिक उद्देश्य से काशी, मथुरा, अयोध्या आदि स्थानों में मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनवाईं। टायनबी के शब्दों में, ‘वे मस्जिदें यह दिखाने के लिए थीं कि हिंदू धर्म के महानतम पवित्र स्थानों पर भी इस्लाम का एकछत्र अधिकार है। ऐसे स्थान चुनने में औरंगजेब शातिर था। वह एक दिग्भ्रमित बुरा आदमी था, जिसने ऐसी कुख्यात मस्जिदें बनाकर अपने को बदनाम किया।’ टायनबी के अनुसार पोलिश लोगों ने रूसियों द्वारा बनाए चर्च को ढहाकर रूसियों की बदनामी का स्मारक भी हटा दिया, पर भारतीयों ने स्वतंत्र होने पर भी औरंगजेब की बनवाई मस्जिदों को वैसे ही छोड़कर निर्दय काम किया। एक महान इतिहासकार द्वारा दशकों पहले दी गई सलाह कितनी सही थी, पर हिंदू नेता ठस बने रहे। फलत: मामला जहां का तहां नासूर की तरह सड़ता रहा। औरंगजेब की कब्र हटाने से हिंदू-मुस्लिम राजनीतिक विषमता यथावत रहेगी। कब्र हटाने जैसे सांकेतिक झुनझुने से हिंदू भावनाओं का दोहन मात्र होगा। दूसरी ओर मुसलमानों को भरमाया जाएगा कि उनका अपमान हुआ है। कब्र हटाने के बदले हिंदू और मुसलमानों को वास्तविक इतिहास से पूर्णतः अवगत कराना जरूरी है। इससे उन्हें सही समाधान की ओर बढ़ाया जा सकता है। अब तक इतिहास छिपाते रहने से ही हिंदू और मुसलमान, दोनों अज्ञान में रहते अलग-अलग तरह से दिग्भ्रमित रहते हैं।

औरंगजेब जैसे इस्लामी शासकों ने भारत में सैकड़ों मंदिर ध्वस्त किए। उनका घोषित उद्देश्य था काफिरों की उपासना पद्धतियों को खत्म कर केवल इस्लामी वर्चस्व कायम करना। यही काम तमाम इस्लामी शासकों ने दुनिया भर में किया। हाल में देवबंदी तालिबान, अल कायदा, इस्लामिक स्टेट आदि ने भी यही दिखाया। बामियान की ऐतिहासिक बुद्ध-मूर्तियां तोड़ने पर कई भारतीय उलेमा ने भी तालिबान की बड़ाई की थी। यह औरंगजेबी मानसिकता ही असली समस्या है, लेकिन हिंदू उदारवादी, गांधीवादी, वामपंथी आदि इस पर स्वयं भ्रमित रहकर सबको भ्रमित करते रहते हैं। हमें इस्लामी अत्याचारियों की स्मृति मिटाने में नहीं जाना चाहिए। मूल समस्या वह मतवाद है, जो औरंगजेब जैसों को आज भी प्रेरित करता रहा है। ऐसे मतवाद को कठघरे में खड़ाकर इतिहास की खुली जांच-परख की जाए। तभी मुसलमानों में विवेकशील विमर्श पैदा करने में सहायता मिलेगी। यह काम पहले चर्च-मतवाद और फिर कम्युनिस्ट मतवाद के साथ हो चुका है। यह इस्लामी मतवाद के साथ होना बाकी है। अभी मुसलमान दूसरों को ‘काफिर’, हीन मानकर बात-बात पर अड़ते हैं, क्योंकि वे दोहरी नैतिकता का इस्लामी सिद्धांत मानते हैं, जिसमें मुसलमानों के लिए अलग, ऊंचा और काफिरों के लिए नीचा व्यवहार रखा गया है। इसीलिए केवल अतिक्रमित मंदिरों पर ही नहीं, विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक विषयों पर भी मुसलमान अपना विशेषाधिकारी दावा रखते हैं।

मुसलमानों को समान मानवीय नैतिकता स्वीकार करने की ओर‌ ले जाना ही स्थायी समाधान का मार्ग है- सरल और शांतिपूर्ण भी। ओवैसी, आजमी, अब्दुल्ला आदि नेता किसी-किसी मामले में ‘संविधान के अनुसार चलने’ की सलाह हिंदुओं को देते रहते हैं।‌ उन्हें भी चुनौती देकर हर मामले में समान नैतिकता से चलने के लिए दबाव और प्रचार करना चाहिए। तभी मुसलमान दूसरों के साथ समानता से रहना स्वीकार कर सकेंगे। यही असली और सरल समाधान है। इसके सिवा कोई समाधान है भी नहीं।

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