सात्त्विक – सुख किसे कहते है ?

आत्मा-बुद्धि पवित्र हों,
सात्त्विक – सुख कहलाय ।
श्रेय-मार्ग का पथिक ही,
इस दौलत को पाय॥2768॥
तत्त्वार्थ : – प्रस्तुत दोहे में मन लोय है किन्तु बुद्धि को निर्मलता के साथ-साथ मन का निर्मल होना नितान्त आवश्यक है। इसके अतिरिक्त आत्मा पर मल, विक्षेप और आवरण के जो पर्दे पड़े, हैं, उनका शमन करना, उनका परिष्कार करना तथा तदोपरान्त मन में जो सुख की अनुभूति होती है, वही सात्त्विक-सुख कहलाता है। ध्यान रहे, इस प्रकार के सुख की अनुभूति केवल मात्र उन्हीं को होती है, जो श्रेय-मार्ग का अनुगमन करते हैं।
‘विशेष’चेतन देवता माता-पिता के सुकोमल स्वभाव के संदर्भ में – दोहा : –
तरू को जो भी काटता,
उसको भी छाया देत ।
मात-पिता सदा हित करें,
जब तक होय अचेत॥2769॥
तत्त्वार्थ : – जिस प्रकार वृक्ष को, जो काटता है किन्तु, वृक्ष कटता हुआ भी इतना उदार रहता है, कि काटने वाले को भी छाया देकर रक्षा करता है, ठीक इसी प्रकार चेतन देवता माता-पिता का सुकोमल और उदार स्वभाव होता है। बेशक उनकी संतान उनकी उपेक्षा अथवा अपमान करे किन्तु फिर भी माता-पिता का हृदय इतना उदार होता है कि वे वृक्ष की तरह मृत्यु – पर्यन्त अपनी संतान के कल्याणकारी ही रहते हैं।
माता-पिता अपनी ज़मीन-जायदाद रूपया पैसा तो अपनी संतान को देते ही हैं,इसके अलावा जीवन पर्यंत अपनी संतान को पाक-पाक पर नेक साल भी देते रहते हैं। जीवन पर्यन्त अपनी संतान को पग-पग पर नेक सलाह भी देते रहते हैं। यदि इतने पर भी कोई माता- पिता की आत्मा दुःखाता है, तो उन्हें लज्जा आनी चाहिए, चुल्लु भर पानी डूब मरना चाहिए । खुदा की बिना आवाज वाली लाठी से हमेशा डरना चाहिए। अपने माता – पिता की हमेशा सेवा करनी चाहिए । उनकी दुआ लेनी चाहिए ।
क्रमशः