चक्रवर्ती सम्राट कनिष्क गुर्जर वंश से थे – भाग 3

रामचन्द्र के पुत्र कुश का कुशाण वंश महान।
सम्राट कुचुल से कनिक तक योद्धा कीर्तिमान।
चीन से काला सागर अल्ताई से नर्वदा।
संघों के बाद भी विस्तार करते रहे सदा।
पहली सदी काठियावाड़ में अनेकों मन्दिर बनवाए।
तुझको छोड़कर भारत का इतिहास लिखा ना जाए।
सम्राट कनिष्क के पुत्र हुए सम्राट हुविष्क महान।
माहेश्वर देवपुत्र शाहानुशाही कहलाए दानी कर्ण समान।
कुषाण वंश के आखरी सम्राट वासुदेव।
विघटन फिर शुरू हुआ लड़ते रहे सदैव।
– भाई तेलूराम, गुर्जर आज तक, पृष्ठ संख्या 13
कुशान वंश गुर्जर है।
– भाई तेलूराम, गुर्जर आज तक, पृष्ठ संख्या 19 से 21
यह स्पष्ट है कि कुषाण महाराजा दशरथ के पौत्र कुश के वंशज होने के कारण गुर्जर वंशीय है।
– प्रोफेसर मनुदेव शास्त्री, गुर्जर साम्राज्य, पृष्ठ संख्या 23
अभिलेखों को देखने से इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुंचा जा सकता है कि इतिहास प्रसिद्ध कुषाण वंश निश्चय ही गुर्जरों का प्राचीन वंश है जो आज भी कसाना या कुषाण के रूप में विद्यमान हैं।
– डॉ दयाराम वर्मा, गुर्जर साम्राज्य, पृष्ठ संख्या 33
इतिहास अतितग्रसता नहीं है, बल्कि इतिहास का अध्ययन हमारे अंदर इतिहास बोध और चेतना उत्पन्न करता है। प्राचीन काल में अपने अन्य भारतीय भाई बहनों की तरह गुर्जरों ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में अनुपम योगदान किया है। गुर्जरों के पूर्वजों ने प्राचीन भारत में तीन साम्राज्यों का निर्माण किया – कुषाण साम्राज्य तथा गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य। भारतीय राष्ट्रीय संवत – शक संवत के प्रवर्तक सम्राट कनिष्क (78 – 101 ई), शिवभक्त सम्राट मिहिरकुल हूण (502 – 542 ई) तथा आदि वराह सम्राट मिहिरभोज (836 – 885 ई) क्रमशः इनके प्रतिनिधि आइकन है। गुर्जरों में इतिहास चेतना उत्पन्न करने हेतु उनके द्वारा इनके इतिहास का अध्ययन करना तथा इनकी ऐतिहासिक विरासत को आत्मसात करना आवश्यक है।
– डॉ सुशील भाटी मेरठ, गुर्जर वीर गाथा भाग प्रथम, पृष्ठ संख्या 11
कुश के वंशज कुषाण जो बाद में कसाना गौत्र में परिवर्तित हो गए।
– यशवंत सिंह मण्डलोइ, गुर्जर और राजपूतों का गौरवशाली इतिहास, पृष्ठ संख्या 9
भगवान राम के पुत्र कुश के राज्य को कुश प्रदेश कहते थे। कुश के वंश का प्रसार उत्तर तथा उत्तर पूर्व की ओर हुआ। कश्मीर का नाम कुश के कारण पड़ा। लव के वंश का विस्तार पश्चिम की ओर हुआ। लव के नाम से लाहौर शहर का नाम पड़ा। कुश प्रदेश को वर्तमान में चेचन्या के नाम से जानते हैं। वहां के निवासियों को चीनी लोग युहेची या चेची कहते थे। जिसका अर्थ ‘बहुत शक्तिशाली’ होता है। यही चेची कुषाण है जो सूर्यवंशी कुश के वंशज है। अतः कसाना, चेची और कुषाण गुर्जर सूर्यवंशी है। कुषाण वंश का प्रसिद्ध सम्राट कनिष्क था। जिसकी राजधानी कश्मीर थी।
– यशवंत सिंह मण्डलोइ, गुर्जर और राजपूतों का गौरवशाली इतिहास, पृष्ठ संख्या 15
कुषाण गुर्जर साम्राज्य (46 ई से 276 ई) या 230 वर्ष।
– यशवंत सिंह मण्डलोइ, गुर्जर और राजपूतों का गौरवशाली इतिहास, पृष्ठ संख्या 41
कुषाण गुर्जर राजाओं का शासन उत्तर में मध्य एशिया से दक्षिण में विद्याचल तक फैला हुआ था। कुषाण गुर्जर बड़ी शक्तिशाली और शासन करने वाली परिश्रमी कौम रही हैं। देशी विदेशी इतिहास लेखकों ने कुषाणों और गुर्जरों को अलग अलग तथा विदेश आक्रमणकारी सिद्ध करने में यद्यपि कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु जब भारतीय इतिहासकारों में शोध की आंधी बही तब उनके सम्मुख भी कई प्रश्न खड़े होने लगे। नई खोजों व तथ्यपूर्ण तर्कों ने ऐसे लेखकों और इतिहासकारों के मनसूबों पर पानी फेर दिया। उन्होंने तर्क वितर्क कर ऐसे प्रमाण खोज निकाले जिनके निष्कर्ष कुषाणों को गुर्जर मानने पर उन्हें विवश करने लगे। भारतीय इतिहासकारों ने ऐसे प्रमाण भी खोज निकाले जिनसे ज्ञात हुआ कि कुषाण आर्य भी थे और गुर्जर भी। हूणों के बारे मे भी यही निष्कर्ष इन लोगों के सामने आये कि वे भी भारत मूल के थे और गुर्जर ही थे।
– दुर्गाप्रसाद माथुर, गुर्जर जाति का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ संख्या 36 व 37
वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित है कि हूण, चोला, पह्लव, कुषाण तथा शक सब गुज्जर ही थे और आज भी गुज्जरों में हूण, कुषाण , कसाने आदि गौत्र मिलते है।
– डॉ मस्तराम कपूर, गुज्जर स्वाभिमान, पृष्ठ संख्या 4
ईरान के पूर्व का क्षेत्र वर्तमान अफगानिस्तान ओल्ड टेस्टामैन्ट में कुश के नाम से लिखा है। मध्य एशिया के लोग इसे हिन्दू कुश कहते थे। जब कनिष्क गद्दी पर बैठा उसे कुषाण कहा गया। जनरल कनिंघम ने गुर्जर तथा कुषाणों को एक बताया है देखिए ओर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट भाग 2, पृष्ठ 61 पर। इस नाम का गुर्जरों में एक गोत्र भी है। कुषाण अपने आप को लव के छोटे भाई राजा कुश की संतान बताते हैं। लव ने लाहौर बसाया तथा कुश ने कसूर। कुश इसी क्षेत्र में बस गया तथा मर गया। इसलिए उसके नाम से यह क्षेत्र प्रसिद्ध हैं। उसके पिता श्री रामचन्द्र जी यहाँ आए थे। इसलिए अपने पिता की स्मृति में कुश ने एक चबूतरा बनाया। पत्थर पर श्री रामचंद्र जी का पूजा का चबूतरा आज भी स्वात घाटी में विद्यमान है। (देखिए स्वात द्वारा एस ए खान पृष्ठ 61)।
– राणा अली हसन चौहान, गुर्जरों का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ संख्या 31 व 32
गुर्जर जाति के कुषाण वंश के शासकों ने केवल अपने प्रथम सम्राट इक्ष्वाकु की शौर्यपूर्ण गाथाओ को द्वीप द्वीपान्तर तक पहुंचाया था, अपितु हिन्दू संस्कृति सभ्यता को भी चार चांद लगाए थे। मध्य एशियाई देशों में पुरातत्वविदों को वहाँ के प्राचीन टीलों से जो पुरातात्विक सामग्री मिल रही है उससे इसकी पुष्टि होती है। गुर्जर जाति के इस प्रसिद्ध वंश का अधिकांश इतिहासकार विशद वर्णन तो करते हैं किंतु इस वंश की गुर्जर जाति से सापेक्ष स्थिति के विषय में प्रायः मौन रहे हैं। सर्व प्रथम जनरल कनिंघम ने स्पष्ट किया था कि कुषाण लोग गुर्जर थे। बम्बई गजेटियर में भी इस वंश को स्पष्टत: गुर्जर कहा गया है। डॉ. वेदप्रताप वैदिक, पदम् श्री डॉ श्याम सिंह शशि, बाबू रतनलाल वर्मा, डॉ जयसिंह गुर्जर और राणा अली हसन चौहान ने भी कुषाण वंश को गुर्जर जाति का अभिन्न अंग स्वीकार किया है।
– डॉ दयाराम वर्मा, गुर्जर जाति का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, पृष्ठ संख्या 78 व 79
वेदों की रक्षा कुषाणों से आरंभ हुई और वेदों को पूर्ण प्रतिष्ठित किया नागभट्ट ने। कुषाण निःसन्देह गुर्जर है और मूलतः आर्य ही है।
– डॉ दीनबंधु पाण्डे, गुर्जर गौरव मासिक पत्रिका, फरवरी 2001 का अंक
प्रोफेसर आर. के. शर्मा (कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय) ने द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय गुर्जर इतिहास सम्मेलन कुरुक्षेत्र में दिनांक 18 नवंबर 2001 को अंतिम सत्र की अध्यक्षता करते हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में गुर्जर और कुषाणों को अभिन्न बताते हुए कहा कि “कनिष्क गुर्जर राजवंश का वरिष्ठतम सेनानायक था। उसकी राजधानी पुरुषपुर थी। गुर्जर विस्तृत क्षेत्र में व्याप्त थे। कनिष्क के पास गज, अश्व व ऊंट सेनाएं थीं। कनिष्क ने गुर्जर समाज को शक्ति दी। वह निसन्देह गुर्जर था। गुर्जर सदैव भारत के रक्षक और प्रहरी रहे है।
– प्रोफेसर आर के शर्मा, गुर्जर गौरव मासिक पत्रिका, फरवरी 2001 का अंक
सूर्यवंशी राजा रामचन्द्र के पुत्र कुश के वंश का फैलाव उत्तर तथा उत्तर पूर्व की ओर हुआ तथा जम्बूद्वीप क्षेत्र से बाहर शकद्वीप तक फैला जबकि चन्द्रवंशी कुश जम्बूद्वीप में ही दक्षिण को फैले। इसके अतिरिक्त सम्राट कुजुल के सिक्कों पर ‘महरइस रयरयसदेवपुत्रम’, ‘महरजस महतस कुषाण’, ‘कुजुल-कुश महरयस राजतिरजस यवगुस ध्रमठीदस’ उसकी उपाधियां लिखी है। इसमें कुजुल के साथ कुश शब्द कुषाण के स्थान पर यह दर्शाता है कि कुजुल कुशवंशी था, जिसने अपने पूर्वज का नाम अपने सिक्कों पर लिखवाया। अतः हम उपरोक्त प्रमाणो व अन्य अनेक उपलब्ध प्रमाणों (नगरों, पहाड़ों, नदियों आदि के नामों) से यह कह सकते हैं कि ऐतिहासिक नाम कुषाण सूर्यवंशी राजा कुश के वंशजों का पड़ा। जिसमें क्षेत्रीय हिसाब से थोड़ा बहुत भाषायी प्रभाव आया। अब इस निष्कर्ष को निकालने के बाद कि कुषाण सूर्यवंशी राम के पुत्र कुश के वंशज है यह बात सहज ही समझ मे आ जाती है कि कुषाण सम्राट गुर्जर थे।
– डॉ जयसिंह, ‘गुर्जर और उनका इतिहास में योगदान’ में प्रकाशित शोधपत्र “कुषाण गुर्जर वंशीय थे” पृष्ठ संख्या 217
गुर्जर जाति के कुषाण वंश (कसाने) का पहला प्रमुख सम्राट कनिष्क था, जिसकी केंद्रीय राजधानी पेशावर (पुरुषपुर) थी। मथुरा उसकी प्रादेशिक राजधानी थी। वह सन 78 ई में गद्दी पर बैठा था। उसने समस्त उत्तरी भारत, मध्य एशिया व ईरान आदि देशों को विजय करके एक महान कुषाण साम्राज्य की स्थापना की थी। उसने चीन को हराकर मंगोलिया तक के देश अपने कब्जे में कर लिए थे।
– श्री प्रिंसिपल गणपति सिंह का लेख ‘साम्राज्य की संस्थापक गुर्जर जाति’ जो तृतीय गुर्जर इतिहास सम्मेलन की स्मारिका के पृष्ठ संख्या 14 पर प्रकाशित हुआ था।
वस्तुतः गुर्जर एक कौम नहीं, एक समूची संस्कृति का नाम है, जो 220 ई. पू. से लेकर 13वीं शताब्दी तक उत्तर पश्चिमी भारत और मध्य एशिया में फलती फूलती रही। इस सम्पूर्ण काल में वह कभी हूणों के रूप में कभी कुषाणों के रूप में और कभी प्रतिहारों के रूप में राजनैतिक मंच पर आरूढ़ रही है।
– डॉ मान सिंह वर्मा, राजा नैन सिंह नामक स्मारिका में प्रकाशित शुभकामना संदेश
कुषाण गुर्जर क्षत्रियों की एक शाखा है।
– डॉ केआर गुर्जर, गुर्जर क्षत्रिय उत्पत्ति एवं साम्राज्य, पृष्ठ संख्या 76
कुषाण गुर्जर साम्राज्य (46 ई. से 385 ई.)
– डॉ केआर गुर्जर, गुर्जर क्षत्रिय उत्पत्ति एवं साम्राज्य, पृष्ठ संख्या 162 से 184
रामायण काल से बनी पृथक पहचान श्रेष्ठतम जाति की।
महिमा अभिलेखों, वर्णित गुर्जर वीरों की ख्याति की।
राम कृष्ण लक्ष्मण लवकुश के वंशज ये रहते निर्भय।
जिनके अद्वितीय सम्राटों में गणना है कनिष्क महान की।
जिसके आधीन रही धरती अफगान चीन ईरान की।
पेशावर प्रमुख राजधानी मथुरा भारतीय प्रदेशों की।
दो सौ वर्षों तक शानदार पहचान कुशान नरेशों की।।
– नारायण सिंह पटेल, गुर्जर नव सन्देश, संवत 2067, पृष्ठ संख्या 4
वैदिक परंपरा का संवाहक गुर्जर सम्राट कनिष्क महान – भारत सहित मध्य एशिया एवं यूरोप के कुछ देशों तक अपना सामाजिक एवं राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने वाला गुर्जर समुदाय महान सम्राट कनिष्क पर गर्व अनुभूति करता है भारत में ‘शक संवत’ (78 ई.) का प्रारम्भ करने वाले कुषाण सम्राट कनिष्ट की गणना भारत ही नहीं एशिया के महानतम शासकों में की जाती है। इसका साम्राज्य मध्य एशिया के आधुनिक उज़्बेकिस्तान तजाकिस्तान, चीन के आधुनिक सिक्यांग एवं कांसू प्रान्त से लेकर अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और समस्त उत्तर भारत में बिहार एवं उड़ीसा तक फैला था। कनिष्क ने देवपुत्र शाहने शाही की उपाधि धारण की थी। भारत आने से पहले कुषाण ‘बैक्ट्रिया’ में शासन करते थे, जो कि उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान एवं दक्षिणी उज़्बेकिस्तान एवं दक्षिणी तजाकिस्तान में स्थित था और यूनानी एवं ईरानी संस्कृति का एक केन्द्र था। कुषाण हिन्द-ईरानी समूह की भाषा बोलते थे और वे मुख्य रूप से मिहिर (सूर्य) के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है। दुनिया भर के इतिहासकारों ने उत्खनन में प्राप्त पुरातत्व सामग्री एवं अन्य ऐतिहासिक स्रोत के आधार पर गुर्जर सम्राट कनिष्क के विराट व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए विश्व के महान साम्राज्य अधिपति के रूप में गुणगान किया है गुर्जर सम्राट कनिष्क कुषाण का इतिहास जानने के लिए ऐतिहासिक सामग्री की कमी नहीं है उसके बहुत से सिक्के उपलब्ध हैं और ऐसे अनेक उत्कीर्ण लेख भी मिले हैं जिनका कनिष्क के साथ बहुत गहरा संबंध है इसके अतिरिक्त बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है सम्राट कनिष्क महान यज्ञ प्रेमी तथा सूर्य का उपासक रहा है सूर्य जिसे वैदिक रचनाओं में परम तेजस्वी की संज्ञा दी गई है तथा गायत्री महामंत्र में जिसमें सूर्य की महिमा का व्यापक वर्णन किया गया है उसी वैदिक परंपरा का निर्वहन करते हुए सम्राट कनिष्क ने न केवल सूर्य उपासक के रूप में बल्कि अपने सिक्कों सूर्य का प्रतीक अंकित किया साथ ही स्वयं ने मिहिर जो कि सूर्य का पर्यायवाची है की उपाधि धारण की गुर्जर सम्राट कनिष्क कला संस्कृति तथा वैदिक परंपराओं का महान संवाहक थे, सम्राट कनिष्क ने विशाल साम्राज्य के सृजन के साथ साथ वैदिक परंपराओं को आत्मसात करते हुए आर्य गौरव की स्थापना की सम्राट कनिष्क कुषाण वंशीय थे जिसे वर्तमान कसाना के गोत्र के रूप में जाना जाता है तथा ऐतिहासिक दस्तावेज के अनुसार चीनी भाषा में यूची जाति से उनका रक्त संबंध था जिसका चीनी से हिंदी अनुवाद गुर्जर होता है। मानवीय नस्ल केशोद परख शोध परक तथ्यों के आधार पर गुर्जर समुदाय के लोग नाक नक्श एवं दहेज बनावट को देखते हुए आर्य नस्ल सबसे सटीक सिद्ध हुए हैं ऐसे में अपने आर्य रक्त की परंपराओं का निर्वहन करते हुए गुर्जर सम्राट कनिष्क ने म्यूजिक परंपरा एवं सूर्य उपासना आदि वैदिक मान्यताओं को आत्मसात किया तथा उत्कीर्ण देखो लेखों एवं सिक्कों पर भी यज्ञ में आहुति देते हुए वह सूर्य के चित्र के साथ सिक्कों को जारी किया गया.
कुषाण प्राचीन भारत के राजवंशों में से एक था। कुछ इतिहासकार इस वंश को चीन से आए युएची लोगों के मूल का मानते हैं। युरोपियन इतिहासकारों नें युएझी/यूची कबीले को प्राचीन आर्य से जुड़ा बताया है,प्रो वी एस स्मिथ एवं ए कनिंघम इन्हें आर्यों से जोड़ते हुए बताते हैं कि ये उन्हीं आर्य कबीलों में से हैं जो कि कई दौर में भारत आये अत: कुषाण शुरुआती दौर में कोसानो लिखते थे तथा गुसुर कबीले के थे जैसा कि राबातक के अभिलेखों में है अतः इन कबीले ने अपने आप को गुर्जरों के कषाणा/कसाणा कबीले में आत्मसात कर लिया होगा। इसी वजह से सम्राट कनिष्क ने अपना नाम और राजकीय भाषा भी बैक्ट्रीयन आर्य भाषा कर ली, कुषाणों की मुख्य बोलचाल की भाषा गुर्जरी/गांधारी थी अत: यहां एक मजबूत प्रमाण और मिल जाता है कि वो कषाणा समुदाय में सम्मिलित हुए और इस तरह पूरी तरह आर्य संस्कृति में कुषाण अपने आप को आत्मसात करके आर्य्यावर्त्त में शासन करने लगे। अफगानिस्तान के इतिहासकारों के अनुसार वो कोसाना(गुज्जर) कबीले से सम्बंध रखते हैं। गुर्जर सम्राट कनिष्क के विदेशी परंपरा के साथ जोड़ने वाले पाश्चात्य इतिहासकारों ने कुषाण वंश को आर्य वंश में जोड़ते हुए इसके गुर्जरों के कसाना वंश में समायोजित करने सत्यता यह है कि कुषाण वंश विशुद्ध रूप से आर्य गुर्जर वंश था जो वर्तमान में कसाना गोत्र के रूप में स्थापित है, गुर्जर सम्राट कनिष्क कुषाण शासनकाल- 127 ई. से 140-51 ई. लगभग कुषाण वंश का प्रमुख सम्राट् था। गुर्जर सम्राट कनिष्क कुषाण भारतीय इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान रखता है। गुर्जर सम्राट के धार्मिक दृष्टिकोण में उदारता का पर्याप्त समावेश था और उसने अपनी मुद्राओं पर यूनानी, ईरानी, हिन्दू और बौद्ध देवी देवताओं की मूर्तियाँ अंकित करवाई, जिससे उसके धार्मिक विचारों का पता चलता है । ‘एकंसद् विप्रा बहुधा वदंति’ की वैदिक भावना को उसने क्रियात्मक स्वरूप दिया। कनिष्क के बहुत से सिक्के वर्तमान समय में उपलब्ध होते हैं। इन पर यवन (ग्रीक), जरथुस्त्री (ईरानी) और भारतीय सभी तरह के देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ अंकित हैं। ईरान के अग्नि (आतश), चन्द्र (माह) और सूर्य (मिहिर), ग्रीक देवता हेलिय, प्राचीन एलम की देवी नाना, भारत के शिव, स्कन्द वायु और बुद्ध – ये सब देवता उसके सिक्कों पर नाम या चित्र के द्वारा विद्यमान हैं। इससे यह सूचित है, कि कनिष्क सब धर्मों का समान आदर करता था, और सबके देवी-देवताओं को सम्मान की दृष्टि से देखता था। इसका यह कारण भी हो सकता है, कि कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों के अनुयायी विभिन्न लोगों का निवास था, और उसने अपनी प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सब धर्मों के देवताओं को अपने सिक्कों पर अंकित कराया था। इस प्रकार सम्राट कनिष्क अपनी आर्य नस्ल एवं वैदिक मर्यादाओं से आच्छादित था तथा उसने भारत के पहले सूर्य मंदिर निर्माण की बात हो बड़े-बड़े महायज्ञ आयोजन की बात हो भारत ईरानी आर्य भाषा को आत्मसात करने की बात हो अपने सिक्कों पर यज्ञ में आहुति देते हुए एवं सूर्य के चित्र अंकित करने की बात हो अथवा स्थापत्य कला एवं सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने की बात हो प्रत्येक क्षेत्र में गुर्जर सम्राट कनिष्क महान का वैदिक मर्यादा से ओतप्रोत चरित्र दृष्टिगोचर होता है।
– डॉ यतीन्द्र कटारिया गुर्जर (पूर्व सदस्य राजभाषा सलाहकार समिति श्रम एवं रोजगार मंत्रालय भारत सरकार)

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