सर्व-प्रथम तो यह जानने की बात है कि ‘प्रार्थना’ किसे कहते हैं,तथा प्रार्थना कब करनी चाहिए।जो व्यक्ति प्रार्थना की परिभाषा व लक्षण को नहीं जानते,वे ही ऐसी शंकाएं किया करते हैं।
ऋषि दयानन्द ने ‘प्रार्थना’ का स्वरुप निम्न प्रकार दर्शाया है-“अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त,उत्तम-कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य का सहाय लेने को ‘प्रार्थना’ कहते हैं”- आर्योद्देश्यरत्नमाला संख्या-२४,लेखक स्वामी दयानन्द सरस्वती ।
जैसे कोई कुली या भार ढोने वाला मजदूर स्वयं कुछ भी परिश्रम न करता हुआ,हाथ पर हाथ धरे खड़ा रहे और अन्यों से ये कहे कि यह भार मेरे सिर पर रखवा दो तो कोई भी उसकी सहायता करने को उद्यत नहीं होगा।जैसे एक विद्यार्थी अपने अध्यापक द्वारा पढ़ाये गये पाठ को न तो ध्यानपूर्वक सुनता है,न लिखता है,न स्मरण करता है और न ही अध्यापक की अन्य अच्छी-अच्छी बातों का पालन करता है,किन्तु जब परिक्षा का काल निकट आता है,तो गुरुजी,गुरुजी,की रट लगाकर अपने अध्यापक से कहता है कि मुझे उत्तीर्ण कर दो।ऐसी स्थिति में कौन बुद्धिमान,न्यायप्रिय अध्यापक उस विद्यार्थी को,जिसने,परिक्षा के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं किया,अंक देकर उत्तीर्ण कर देगा ?कोई भी नहीं।
ठीक ऐसे ही ईश्वर,प्रार्थना करने वाले व्यक्ति की सहायता करने से पूर्व कुछ बातों की अपेक्षा करता है।ईश्वर ने धन,बल,स्वास्थय,दीर्घायु,पुत्र आदि की प्राप्ति के लिए तथा अन्य कामनाओं की सफलता हेतु वेद में विधि का निर्देश किया है।जो व्यक्ति उन विधिनिर्देशों को ठीक प्रकार से जाने बिना और उनका व्यवहार काल में आचरण किये बिना ही प्रार्थना करते हैं,उनकी स्थिति पूर्वोक्त कुली या विद्यार्थी की तरह ही होती है।विधिरहित-पुरुषार्थहीन प्रार्थना को सुनकर अध्यापक-रुपी ईश्वर प्रार्थी की कामनाओं को पूरा नहीं करता,क्योंकि ईश्वर तो महाबुद्धिमान् तथा परमन्यायप्रिय है।
शुद्ध ज्ञान और शुद्ध कर्म के बिना की गयी प्रार्थना एकांगी है। वेदादि सत्यशास्त्रों को यथार्थरुप से पढ़कर समझे बिना तथा तदनुसार आचरण किये बिना कितनी ही प्रार्थना की जाय,वह प्रार्थना,’प्रार्थना’ की कोटि में नहीं आती।
जो ईश्वरभक्त ‘प्रार्थना’ को केवल मन्दिर में जाने,मूर्ति का दर्शन करने,उसके समक्ष सिर झुकाने,तिलक लगाने,चरणामृत पीने,पत्र-पुष्पादि चढ़ाने,कुछ खाद्य पदार्थों को भेट करने,कोई नाम स्मरण करने,माला फेरने,दो भजन गा-लेने,किसी तीर्थ पर जाकर स्नान करने,कुछ दान-पुण्य करने तक ही सीमित रखते हैं,उनकी भी प्रार्थना सफल नहीं होती।ऐसे प्रार्थी,प्रार्थना के साथ सुकर्मों का सम्बन्ध नहीं जोड़ते,व्यवहार काल में ईश्वर-जैसा पुरुषार्थ,प्रार्थना करने वालों से चाहता है,वैसा व्यवहार वे नहीं करते हैं।यह प्रार्थना की असफलता में कारण बनता है।
आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि जिन हिंसा,झूठ,चोरी,व्यभिचार,मद्यपान,असंयम आलस्य,प्रमाद,आदि बुरे कर्मों से अशान्ति,रोग,भय,शोक,अज्ञान,मृत्यु,अपयश आदि दुःखों की प्राप्ति होती है,उन्हीं बुरे कर्मों को करता हुआ ‘प्रार्थी’ सुख,शान्ति,निर्भयता,स्वास्थय,दीर्घ आयु,बल,पराक्रम,ज्ञान,यश आदि सुखों को ईश्वर से चाहता है,यह कैसे सम्भव है?कदापि नहीं।
पूर्ण पुरुषार्थ के पश्चात् की गयी प्रार्थना यदि सफल नहीं होती,तो शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार तीन कारण हो सकते हैं।वे हैं कर्म,कर्त्ता और साधन।देखें न्याय-दर्शन २-१-५८वाँ सूत्र (न कर्मकर्त्तसाधनवैगुण्यात् ।।)
जब ये तीनों (=कर्म,कर्त्ता और साधन)अपने गुणों से युक्त होते हैं,तो प्रार्थना अवश्य सफल होती है,इसके विपरित इन तीनों में से किसी भी एक कारण में न्यूनता रहती है तो प्रार्थना कितनी ही क्यों न की जाये,प्रार्थी की प्रार्थना सफल नहीं होती।
उदाहरण के लिए एक रोगी व्यक्ति,अपने रोग से विमुक्त होने के लिए किसी कुशल वैद्य के पास जाता है और वैद्य से कहता है कि मुझे स्वस्थ बनाइये।इस पर वैद्य उसके रोग का परीक्षण करके रोगी को निर्देश करता है कि अमुक ओषधि,इस विधि से,दिन में इतनी बार इतनी मात्रा में खाओ तथा पथ्यापथ्य को भी बताता है कि यह वस्तु खानी है और यह वस्तु नहीं खानी है,इसके साथ ही रोगी को दिनचर्या,व्यवहार आदि के विषय में भी निर्देश करता है।
इतना निर्देश करने पर भी यदि रोगी,जो औषधि,जब जब जितनी मात्रा में,जितनी बार लेनी होती है,वैसा नहीं करता तो कर्म का दोष होता है।औषधि विषयक कार्यों को ठीक प्रकार से सम्पन्न करे,किन्तु रोगी-क्रोध,आलस्य,प्रमाद,चिन्ता,भय,निराशादि से युक्त रहता है,तो यह कर्त्ता का दोष है।रोगी स्वयं कितना ही निपुण क्यों न हो,औषधि नकली है,घटिया है,थोड़ी है,तो यह साधन का दोष है।
ठीक इसी तरह ,किसी प्रार्थना करने वाले ईश्वरभक्त आस्तिक व्यक्ति की प्रार्थना सफल नहीं होती और उसके दुःख दूर नहीं होते तो यह नहीं मान लेना चाहिए कि ईश्वर की सत्ता नहीं है।किन्तु ऐसी स्थिति में यह अनुमान लगाना चाहिए कि उसके पुरुषार्थ में कुछ कमी है अर्थात् कर्म,कर्त्ता,साधनों में कहीं ना कहीं न्यूनता या दोष है।उन न्यूनताओं व दोषों को जानकर उनको दूर करना चाहिए।ऐसा करने पर प्रार्थी की प्रार्थना अवश्य सफल होगी।
इसलिए उपर्युक्त विवरण से यह सिद्ध होता है कि ईश्वर की सत्ता है और वह दुःखों को दूर भी करता है,किन्तु सभी प्रार्थना करने वाले भक्तों के दुःखों को दूर नहीं करता केवल उन्हीं भक्तों के दुःखों को दूर करता है जो पुरुषार्थ सहित सच्ची विधि से ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।
[ साभार: आचार्य ज्ञानेश्वरार्य जी, ‘ईश्वर की सिद्धि’ से ]
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