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कविता

शमशानों के सन्नाटे ही

  • डॉ राकेश कुमार आर्य

ना रूप बचे , ना भूप बचे,
काल के ग्रास बने सब ही।
ना योगी बचे,ना तपसी बचे,
नामशेष रह गए सब ही।।

जिनसे कभी धरती हिलती थी,
वह भी मिट्टी की भेंट चढ़े।
जिनसे कभी अंबर डरता था,
वह भी मिट्टी में दबे पड़े।।

अप्रतिम जिनका बाहुबल था,
विराट बने – सम्राट बने।
शमशानों के सन्नाटे ही,
उनके एक दिन ठाट बने।।

विद्वानों की अग्रिम पंक्ति में ,
जिनकी आसंदी सजती थी ।
हर बार जिनके लिए सभा में,
लोगों की ताली बजती थी।।

वे चेहरे भी सब लुप्त हुए,
मृत्यु उनको भी पचा गई।
निश्चय ही हम भी नहीं रहेंगे,
एक ‘हवा’ बात ये बता गई।।

बनकर हंस रहो जग में,
मत भीगो जग के पानी में।
हीरे के सम रहो चमकते,
कुछ कर लो काम जवानी में।।

वसु – भाव से जीना सीखो,
वृद्धि करो, मुझे भी करने दो।
ऐश्वर्यसंपन्न बन जीवन जिओ,
सुखी रहो, मुझे भी रहने दो।।

‘ होता ‘ भाव जीवन में धारो,
सर्वस्व समर्पित कर डालो।
सद्भाव – मित्रता को लेकर ,
जीवन धन्य बना डालो।।

अतिथि बनकर आए जग में,
अतिथि ही बनकर रहना।
घूम – घूम कर जग सारे में,
बात वेद की ही कहना।।

चार चरण हैं ये जीवन के ,
जिन्हें आश्रम कहते हैं।
इसी भाव से ज्ञानी जन ,
प्रत्येक चरण में रहते हैं ।।

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