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कविता

शमशानों के सन्नाटे ही

ना रूप बचे , ना भूप बचे,
काल के ग्रास बने सब ही।
ना योगी बचे,ना तपसी बचे,
नामशेष रह गए सब ही।।

जिनसे कभी धरती हिलती थी,
वह भी मिट्टी की भेंट चढ़े।
जिनसे कभी अंबर डरता था,
वह भी मिट्टी में दबे पड़े।।

अप्रतिम जिनका बाहुबल था,
विराट बने – सम्राट बने।
शमशानों के सन्नाटे ही,
उनके एक दिन ठाट बने।।

विद्वानों की अग्रिम पंक्ति में ,
जिनकी आसंदी सजती थी ।
हर बार जिनके लिए सभा में,
लोगों की ताली बजती थी।।

वे चेहरे भी सब लुप्त हुए,
मृत्यु उनको भी पचा गई।
निश्चय ही हम भी नहीं रहेंगे,
एक ‘हवा’ बात ये बता गई।।

– राकेश कुमार आर्य

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