parmatma god

अहंता-ममता का त्याग ही,
कहलाता सन्यास।
पर-हित में जो रत रहे,
घट में हरि-निवास॥2753॥

भावार्थ :- प्रायः लोग गेरूवे परिधान पहनने वालों को सन्यासी कहते हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि शास्त्रोक्त यह है – जिसने अपने चित्त से अहंता – ममता को त्याग दिया है तथा जो दूसरों के कल्याण में रत रहता है,और भगवान की भक्ति करता है, वही सच्चे अर्थों में सन्यासी कहलाता है। मात्र गेरुवे कपड़े पहनने से कोई सन्यासी नहीं हो जाता है। यह श्रेय – मार्ग है,इस पर चलना बड़ा कठिन है। इस मार्ग पर कोई बिरला ही चलता है।

विशेष – परम पिता परमात्मा कैसे चित्त में प्रकट होता है?

निर्बेर हुआ निर्बीज हुआ,
हो गया जो निर्द्धन्द्ध ।
प्रकटै ऐसे चित्त में,
प्यारा सच्चिदानन्द॥2754॥

भावार्थ : – वैसे परम पिता
परमात्मा कण-कण में व्याप्त है किन्तु जो ज्ञानात्मा पुण्यात्मा और महात्मा की दिव्य अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, उनका अन्तःकरण इतना परम पवित्र हो जाये कि उसके चित्त में किसी के प्रति शत्रुता का भाव न रहे, किसी प्रकार की कोई कामना बीज मात्र भी न रहे, और राग और द्वेष द्वन्द्व से ऊपर उठ जाये अर्थात्- रागातीत और द्वेषातीत हो जाये तो ऐसी आत्मा में परम पिता परमात्मा का निवास होता है, प्रभु का आभास होता होता है क्योंकि वह प्रभु के तद्रूप होता है। वह सत् चित और आनन्द में रमणा करता है, अवगाहन करता है। उसका वाक्य ब्रह्म-वाक्य होता है।

क्रमशः

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