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कविता

ऋणी है वसुधा भारत की

आभा का रथ भारत ही,
प्रकाश पुंज जगती भर का।
प्रकाश किरण बिखराता है,
करता दूर अंधेरा जग का।।

ऋणी है वसुधा भारत की,
सिरमौर समझती है अपना।
इस धर्मस्थली से होता आया,
साकार जगत का हर सपना।।

धर्म प्रेमी और महीपति ,
सम्राट हुए महीपाल हुए।
इस धर्म धरा भारत भू- पर,
न जाने कितने भूपाल हुए।।

यहां योगी तपसी संत हुए,
भूपति अनेक संन्यस्त हुए।
जिनके यौगिक बल के आगे,
कितने ही सूर्य अस्त हुए।।

सतीत्व धारी सती हुईं,
सन्नारी जगत प्रसिद्ध हुईं।
जिनके कारण भारत माता,
प्रेरक – शक्ति सिद्ध हुई।।

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