-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से वेदों का आविर्भाव हुआ था। वेदों के पूर्ण ज्ञानी, योगी एवं आप्त पुरुषों को ऋषि कहा जाता है। सृष्टि के आरम्भ से देश में ऋषि परम्परा आरम्भ हो गई थी। यह परम्परा महाभारत युद्ध पर आकर रुक गई जिससे वेदों के सत्यार्थ विलुप्त हो गये और वेद प्रचार की परम्परा भी विलुप्त होकर देश में अन्धविश्वासों तथा मिथ्या परम्पराओं का उत्पन्न होना आरम्भ हुआ। समय के साथ ईश्वर, जीवात्मा, धर्म, अघर्म सहित सत्य व असत्य का यथार्थ स्वरूप विलुप्त होता रहा और अन्धविश्वासों व मिथ्या सामाजिक प्रथाओं की वृद्धि होती रही। यह वृद्धि और अधिक बढ़ती ही जाती यदि सन् 1863 में ऋषि दयानन्द अपने गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा से देश व संसार से अविद्या को दूर करने का संकल्प न लेते। ऋषि दयानन्द के इस संकल्प ने ही सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर प्रदत्त चार वेदों के ज्ञान व संहिताओं का पुनरुद्धार किया और उसी से हमें वेद अपने मूल रूप में प्राप्त होने के साथ उनके सत्यार्थ भी प्राप्त हो सके। ऋषि दयानन्द द्वारा वेदों का पुनरुद्धार देश की एक बहुत बड़ी क्रान्ति कही जा सकती है। आज कोई कुछ भी कहे परन्तु ऋषि दयानन्द व उनसे पूर्व के समय में सम्पूर्ण वेदों को मूल रूप में प्राप्त करना और सभी मन्त्रों के सत्यार्थ जानना साधारण मनुष्य तो क्या बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी सम्भव नहीं था। हमारा अनुमान है कि काशी के पण्डितों ने भी वेदों को पढ़ना तो दूर वेदों के दर्शन भी नहीं किये थे। इसी कारण काशी में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गई थी कि वेदों को तो भस्मासुर पाताल लोक वा अमेरिका में ले गया है। इस स्थिति में ऋषि दयानन्द द्वारा काशी के पण्डितों से मूर्तिपूजा का वेद प्रमाण पूछे जाने पर किसी ने इसका उत्तर नहीं दिया था। यद्वपि उन्होंने कहा था कि हमारे पण्डितों को वेद कण्ठस्थ हैं परन्तु उनका यह कथन मिथ्या था। काशी का कोई पण्डित न तो चारों वेदों का विद्वान था और न ही उसे वेदों का सत्यार्थ ज्ञात था। यदि ऐसा होता तो ऋषि दयानन्द को वेदों के प्रचार की आवश्यकता नहीं थी।वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो सर्वव्यापक ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों व ब्रह्मा जी के द्वारा समस्त मनुष्यों वा स्त्री-पुरुषों को विद्या के प्रचार-प्रसार व अविद्या उत्पन्न न हो सके, इस निमित्त प्रदान किया था। ऋषि दयानन्द ने अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से मथुरा में अपनी शिक्षा व अध्ययन पूरा करने पर सन् 1863 में वेद प्रचार का कार्य करने का संकल्प लिया था और तभी उन्होंने मथुरा से धौलपुर जाकर वेदों को प्राप्त किया था। उन दिनों वेद वर्तमान की तरह से किसी प्रकाशक या पुस्तक विक्रेता की दुकान पर उपलब्ध नहीं होते थे। उस समय तक भारत में किसी प्रकाशक व मुद्रक ने वेदों को संहिताओं या भाष्य के रूप में प्रकाशित किया हो इसका विवरण भी नहीं मिलता। यह ज्ञात होता है कि ऋषि दयानन्द के पास सायण भाष्य उपलब्ध था जिसके आधार पर उन्होंने अपने ग्रन्थों में उनके वेदार्थ के अप्रमाणिक होने के सबंध में टिप्पणियां की थीं। जो भी हो यह मनुष्य जाति का परम सौभाग्य था कि महाभारत युद्ध के बाद ऋषि दयानन्द प्रथम ऐसे ऋषि थे जो वेदभाष्य करने में समर्थ विद्वान थे। उन्हें धौलपुर या कहीं से किसी ब्राह्मण से वेद संहितायें सुलभ हुईं थी जिसका आलोडन व मंथन कर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला था कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है तथा वेद का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब मनुष्यो, आर्यों व सभी मत-मतान्तरों के लोगों का परम पावन व पुनीत कर्तव्य है।काशी शास्त्रार्थ 16 नवम्बर सन् 1869 को काशी के आनन्द बाग में हुआ था जहां इसे देखने पचास हजार लोगों की भीड़ इकट्ठी हुई थी। यह शास्त्रार्थ ऋषि दयानन्द की पौराणिक सनातनी विद्वानों को वेद से मूर्ति-पूजा का प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए आयोजित किया गया था जिसकी अध्यक्षता काशी नरेश श्री ईश्वरी नारायण सिंह ने की थी। काशी नरेश का झुकाव इस शास्त्रार्थ में काशी के मूर्तिपूजक पण्डितों की ओर था। ऋषि दयानन्द पौराणिकों के षडयन्त्रों के बारे में जानते थे परन्तु उन्होंने ईश्वर के विश्वास के आधार पर अकेले ही पौराणिक जगत के तीस से अधिक पण्डितों के साथ शास्त्रार्थ करने का निर्णय लिया था। उन्हें सत्य का निर्णय होने तथा अपनी रक्षा के प्रति एक ईश्वर का ही सहारा था। निर्धारित समय पर यह शास्त्रार्थ हुआ परन्तु काशी के पण्डित स्वामी दयानन्द जी को विषयान्तर करते रहे।शास्त्रार्थ के आरम्भ में स्वामी दयानन्द ने पंडित ताराचरण नैयायिक से पूछा कि क्या आप वेदों को मानते हैं? उत्तर हां में दिया गया तो स्वामी ने उनसे पूछा कि वेद में पाषाण आदि की मूर्तियों के पूजने का यदि विधान है तो उसका प्रमाण दीजिये, नहीं तो अप्रमाणता स्वीकार कीजिए। पं0 ताराचरण स्वामी दयानन्द जी के प्रश्न का यथोचित उत्तर नहीं दे सके और विषयान्तर जाने लगे। स्वामी विशुद्धानन्द जी ने सृष्टि रचना के उपादान कारण प्रकृति के विषय में प्रश्न पूछा, ऋषि दयानन्द ने कहा कि उनका प्रश्न उपस्थित शास्त्रार्थ वा मूर्तिपूजा के वाद के भीतर नहीं आता। विशुद्धानन्द जी बोले कि यदि प्रश्न का उत्तर आता है तो बताईये। स्वामी दयानन्द जी ने कहा कि ग्रन्थ के पूर्वापर पाठ को देखकर उत्तर दिया जा सकता है। इस पर विशुद्धानन्द बोले कि यदि आपको सब कुछ स्मरण नहीं था तो काशी में शास्त्रार्थ करने आये ही क्यों थे? विशुद्धानन्द जी के इस प्रश्न पर स्वामी दयानन्द जी ने उनसे पूछा कि क्या आपको सब कुछ कण्ठाग्र है? विशुद्धानन्द जी बोले कि हां, हमें सब कुछ स्मरण है। इस पर स्वामी जी ने उन्हें धर्म के कितने लक्षण हैं, बताने को कहा?स्वामी दयानन्द जी ने विशुद्धानन्द जी से शास्त्र के शब्दों में प्रमाणपूर्वक अपनी बात कहने को कहा। स्वामी दयानन्द ने उनसे श्रुति-स्मृति में धर्म के लक्षण कितने है, यह बताने को कहा? विशुद्धानन्द जी ने कहा कि धर्म का एक ही लक्षण है। स्वामी दयानन्द ने उन्हें कहा कि शास्त्र में तो धर्म के दस लक्षण कहे हैं। तब आप एक कैसे कहते हैं? विशुद्धानन्द जी ने कहा कि धर्म के दस लक्षण किस ग्रन्थ में हैं? इसके उत्तर में स्वामी जी ने मनुस्मृति का धर्म के धृति, क्षमा, दम, अस्तेय आदि दस लक्षणों को बताने वाला श्लोक पढ़कर सुनाया। यह सुनकर विशुद्धानन्द जी अवाक् व निरुत्तर हो गये। तब उनके सहयोगी बालशास्त्री ने स्वामी दयानन्द को उनसे प्रश्न पूछने को कहा। स्वामी दयानन्द ने बालशास्त्री को अधर्म के लक्षण बताने को कहा? बालशास्त्री इस प्रश्न का उत्तर न दे सके और मौन रहे। इस पराजय से चिन्तित सभी पण्डित एक साथ बोले कि क्या वेद में प्रतिमा शब्द है अथवा नहीं? स्वामी दयानन्द ने कहा कि वेद में प्रतिमा शब्द तो है। पण्डितों ने पूछा कि वेद में प्रतिमा शब्द किस प्रकरण में है और आप इसका खण्डन क्यों करते हैं? स्वामी जी ने कहा- ‘प्रतिमा शब्द यजुर्वेद के 32वें अध्याय के तीसरे मन्त्र में है। यह सामवेद के ब्राह्मण में भी विद्यमान है। इनमें से किसी भी मन्त्र में पाषाण आदि की प्रतिमा के पूजन का विधान कहीं भी नहीं है। इसलिये मैं इसका खण्डन करता हूं।’इस उत्तर को सुनकर सभी पण्डित चुप हो गये। इसके बाद बालशास्त्री ने कुछ प्रश्न किये जिनके स्वामी दयानन्द जी ने यथोचित उत्तर दिये। स्वामी जी के उत्तर सुनकर बालशास्त्री जी मौन हो गये। विशुद्धानन्द जी के एक प्रश्न के उत्तर में स्वामी दयानन्द ने बताया कि वेदों का प्रकाश ईश्वर ने किया है। विशुद्धानन्द जी ने ईश्वर का लक्षण पूछा। स्वामी जी ने कहा कि ईश्वर सच्चिदानन्द है। एक अन्य प्रश्न के उत्तर में स्वामी दयानन्द जी ने कहा कि वेद और ईश्वर का कार्य-कारण सम्बन्ध है। स्वामी जी ने विशुद्धानन्द को यह भी बताया कि शास्त्र में मन आदि में ब्रह्मोपासना करने का तो विधान है परन्तु पाषाणादि में उपासना करने का वचन किसी भी शास्त्र में नहीं मिलता है। इसके बाद पण्डितों ने स्वामी जी से अनेक प्रश्न किये जिनका उत्तर देकर स्वामी जी ने सबको निरुत्तर कर दिया। शास्त्रार्थ की समाप्ति से पूर्व विशुद्धानन्द जी ने स्वामी जी को दो पत्रे दिये। दोनों पक्ष एक दूसरे को उन पत्रों को पढ़ने को कहते रहे। अभी स्वामी दयानन्द जी उन पत्रों को देखने ही लगे थे कि पण्डित विशुद्धानन्द जी उठ खड़े हुए। उन्होंने स्वामी दयानन्द जी को उन्हें पढ़ लेने व व उनका उत्तर देने की प्रतीक्षा नहीं की। राजा ईश्वरीनारायण सिंह जी ने शास्त्रार्थ की समाप्ती से पहले ही ताली बजाकर अपने पण्डितों के पक्ष की विजय घोषित कर दी। कुछ माह बाद उन्होंने इसका पश्चाताप भी किया। इस शास्त्रार्थ के बाद आज तक काशी व देश के किसी पण्डित ने वेदों व ऋषियों के किसी ग्रन्थ से पाषाण आदि मूर्तियों की पूजा करने का कोई प्रमाण नहीं दिखाया। इससे मूर्तिपूजा शास्त्रानुकूल न होकर वेद आदि शास्त्रों के विरुद्ध सिद्ध हुई है। ऐसा होने पर भी काशी के पण्डितों ने आज तक निष्पक्ष होकर ऋषि दयानन्द की विजय को स्वीकार नहीं किया और न ही मूर्तिपूजा को वेद विरुद्ध स्वीकार किया है। मूर्तिपूजा ईश्वर से प्रकाशित हुए वेद-शास्त्रों के विरुद्ध है यह पक्ष आज भी पुष्ट एवं मण्डित है।काशी शास्त्रार्थ को आगामी 16 नवम्बर, 1869 को 150 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। इस अवसर पर आर्यसमाज संगठन की ओर से काशी में 11 से 13 अक्टूबर, 2019 तक एक तीन दिवसीय महासम्मेलन भी किया जा रहा है। आज भी आर्यसमाज पौराणिक विद्वानों को चुनौती देता है कि यदि उनके पास मूर्तिपूजा का कोई वैदिक प्रमाण है तो उसे प्रस्तुत करें परन्तु सब मौन व निरुत्तर हैं। वेद सहित योग दर्शन एवं सभी ऋषियों के ग्रन्थों में निराकार व सर्वव्यापक ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का विधान है। इनके अनुसार साधक को अपने हृदय में स्थित आत्मा में व्यापक एकरस ईश्वर का ध्यान व चिन्तन करते हुए ध्यान करना होता है। पौराणिक जगत के भी बहुत से विद्वान निराकार ईश्वर की ही स्तुति योग दर्शन की विधि से ही करते हैं। हमारे पौराणिक भाई योग दर्शन का प्रचार इसे गीता प्रेस से न्यून मूल्य पर प्रकाशित कर करते हैं। योगदर्शन ईश्वर की उपासना का दर्शन व महर्षि पतंजलि का उपदेश है जिसमें मूर्तिपूजा का उल्लेख व विधान नहीं है। अतः यह सुस्पष्ट है कि मूर्तिपूजा वेद वेदसम्मत शास्त्रों के विरुद्ध है और त्याज्य है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि मूर्तिपूजा करना एक अन्धविश्वास एवं मिथ्या परम्परा है जिससे लाभ के स्थान पर हानि होने की सम्भावना रहती है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में मूर्तिपूजा की विस्तार से समीक्षा की है और इसके सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला हे। उन्होंने मूर्तिपूजा करने में 16 दोष दिखायें हैं। स्वामी जी ने मूर्तिपूजा में चैदहवां दोष यह बताया है कि जड़ (पाषाण व धातु की मूर्ति) का ध्यान करने वाले की आत्मा भी जड़ (पाषाण) बुद्धि हो जाती है क्योंकि ध्येय का जड़त्व धर्म अन्तःकरण द्वारा आत्मा में अवश्य आता है। इस कारण से मूर्तिपूजा सर्वथा त्याज्य एवं अकरणीय है। स्वामी जी ने यह भी लिखा है कि मूर्तिपूजा उपासना में कोई सीढ़ी न होकर एक खाई के समान है जिसमें गिरकर मूर्तिपूजक समा जाता है और वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से वंचित होकर अपने मानव जीवन व परजन्म को भी बिगाड़ता है।स्वामी दयानन्द ने अपने समय में मूर्तिपूजा का प्रबल तर्कों एव युक्तियों से खण्डन किया। इसका कारण यह था कि सभी अन्धविश्वासों की जड़ पाषाण मूर्तिपूजा है। मूर्तिपूजा ईश्वर के सत्यस्वरूप के स्थान पर उसके सर्वथा असत्य व नकली स्वरूप की उपासना कराती है जिससे मनुष्यों को लाभ के स्थान पर हानि होती है। जड़ मूर्तिपूजा से मनुष्य ईश्वर के सच्चे स्वरूप को छोड़कर उसके मिथ्या स्वरूप की उपासना करने का प्रयत्न करते हैं जिससे कोई लाभ नहीं होता। ऋषि दयानन्द समझते थे कि यदि मूर्तिपूजा छूट जाये तो अन्य सभी धार्मिक अन्धविश्वास एवं मिथ्या परम्परायें आदि भी आसानी से दूर की जा सकेंगी। इसी कारण उन्होंने मूर्तिपूजा के खण्डन पर जोर दिया था। मनुष्य जितना कर्म करता है, उसका उतना प्रभाव हुआ करता है। देश के हजारों व लाखों लोगों ने ऋषि दयानन्द के प्रचार के प्रठभाव से जड़ मूर्तिपूजा का त्याग कर निराकार ईश्वर की वेदों में वर्णित ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार स्तुति, प्रार्थना व उपासना की व अब भी करते हैं। वर्तमान समय में ऐसा कोई पौराणिक विद्वान नहीं है जो आर्यसमाज से जड़ मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ करने को तत्पर हो। वह जान गये हैं कि मूर्तिपूजा शास्त्रसम्मत नहीं है और न ही इसका किया जाना उचित है। काशी शास्त्रार्थ की जयन्ती देशवासियों को मूर्तिपूजा छोड़कर वेदों का स्वाध्याय व अध्ययन करने की प्रेरणा करती है जिससे वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकें। यदि वह वेदाध्ययन नहीं करते और वैदिक रीति से उपासना आदि नहीं करेंगे तो अपने आगामी जन्मों में वह सुख की गारण्टी से आश्वस्त नहीं हो सकते। परमात्मा ने तो अपने विधान के अनुसार सबको निष्पक्ष रूप से कर्मों के फल देने हैं। ईश्वर के कर्म-फल के विधान का ज्ञान वेद, सत्याार्थप्रकाश तथा ऋषियों के अन्य ग्रन्थों को पढ़कर होता है।यह भी बता दें कि 18 पुराण वस्तुतः पुराण नहीं हैं। पुराण अति प्राचीन ग्रन्थों को कहते हैं। इस आधार पर वेद, दर्शन, उपनिषद तथा मनुस्मृति आदि ग्रन्थ पुराण हैं। 18 पुराणों की रचना तो महाभारत काल के भी बहुत बाद में हुई है। पुराणों का अधिकांश भाग वेद विरुद्ध होने से त्याज्य है। यह विषसम्पृक्त अन्न के समान है जिसे खाकर मनुष्य मृत्यु का ग्रास बन सकता है। मनु महाराज ने कहा है कि नास्तिको वेद निन्दकः अर्थात् वेद निन्दक को नास्तिक कहते हैं। मूर्तिपूजा एक प्रकार से वेदों की निन्दा ही है जो वेद को पढ़ने व समझने का प्रयत्न नहीं करते और वेदविरुद्ध अनुचित कार्य करते हैं। ईश्वर हमारे सभी देशवासियों को सद्बुद्धि दे जिससे वह ईश्वर उपासना की सही विधि का निर्णय कर ईश्वर को प्राप्त होकर अपने जीवन को सफल बना सकें। ओ३म् शम्।