विशेष – ये लेख विद्वानों के प्रसिद्ध लेख और उनके विचारों पर आधारित हैं।
कुम्भ मेला का वर्तमान स्वरूप
कुम्भ मेला हर 12 साल में भारत के चार स्थानों हरिद्वार, प्रयागराज (इलाहाबाद), उज्जैन और नासिक में आयोजित होता है। जिसमें करोड़ों श्रद्धालु हर बारहवें वर्ष प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में से किसी एक स्थान पर एकत्र होते हैं और नदी के पवित्र संगम में स्नान करते हैं। प्रत्येक १२वें वर्ष के अतिरिक्त प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के बीच छह वर्ष के अन्तराल में अर्धकुम्भ भी होता है। परंपरागत तौर पर नदियों का मिलन बेहद पवित्र माना जाता है,लेकिन संगम का मिलन बेहद महत्वपूर्ण माना गया है।
ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार यह मेला पौष पूर्णिमा के दिन आरंभ होता है और मकर संक्रान्ति इसका विशेष ज्योतिषीय पर्व होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और बृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रान्ति के होने वाले इस योग को “कुम्भ स्नान-योग” कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है।
कुम्भ पर्व सम्बन्धी प्रचलित तीन कथाएं
– पहली कथा के अनुसार एक बार देवताओं और दैत्यों ने समुद्र में छिपी सम्पत्तियों और अमृत पाने की इच्छा से समुद्र-मंथन किया, जिससे चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई। इनमें से एक ’अमृत कुम्भ’ भी था । अमृत कुम्भ से अमृत की प्राप्ति के लिए देव और दैत्यों में संग्राम होने लगा । स्थिति बिगड़ते देखकर देवराज इन्द्र ने अपने पुत्र जयंत को संकेत किया और वह अमृत कुम्भ लेकर भागने लगा । दैत्यों द्वारा पीछा करने पर देवताओं और दैत्यों में बारह दिनों तक भयंकर संघर्ष हुआ।
प्रत्येक दिन जयन्त एक स्थान पर अमृत कुम्भ को रखता था । बृहस्पति ने अमृत कुम्भ को असुरों से बचाने में, सूर्य ने टूटने से और चन्द्रमा ने गिरने से बचाया था । बारह दिनों में कुल बारह स्थानों पर कुम्भ रखा गया और अमृत कुम्भ से उन बारह स्थानों पर अमृत छलका । इनमें से आठ स्थान देवलोक में हैं जिनसे देवता ही अमृत प्राप्त कर सकते हैं । पृथ्वी पर चार स्थानों—हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक—में अमृत छलका । उन सभी स्थानों पर अमृत प्राप्ति की कामना से कुम्भ महापर्व होने लगा।
– दूसरी कथा के अनुसार एक बार महर्षि दुर्वासा ने देवराज इन्द्र को एक दिव्य माला दी । इन्द्र ने अहंकारवश वह माला अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर डाल दी । ऐरावत ने माला को पैरों तले रौंद डाला । क्रोध में आकर दुर्वासा ने इन्द्र को शाप दे दिया । इससे सारे संसार में हाहाकार मच गया । रक्षा के लिए देवताओं और दैत्यों ने मिलकर समुद्र-मंथन किया जिससे अमृत कुम्भ निकला किन्तु यह नागलोक में था जिसे लेने के लिए पक्षीराज गरुड़ गए । अमृत कुम्भ वापिस लेकर आते समय गरुड़ ने उसे हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक—इन चार स्थानों पर रखा, तब से ये स्थान कुम्भ-स्थल के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
– तीसरी कथा के अनुसार एक बार प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों—विनता (गरुड़ की माता) और कद्रू (नागमाता) के बीच इस बात पर विवाद हो गया कि सूर्य के रथ के घोड़े की पूंछ काली है या सफेद । शर्त यह हुई कि जो हार जाएगी वह दासी बनेगी । वास्तव में सूर्य के घोड़े की पूंछ तो सफेद ही थी किन्तु कद्रू का पुत्र कालिया नाग जो अत्यन्त क्रूर स्वभाव का था, वह जाकर सूर्य के रथ के घोड़े की पूंछ से लिपट गया । दूर से देखने पर घोड़े की पूंछ काली मान ली गयी । गरुड़ की माता विनता कद्रू की दासी बनकर सेवा करने लगी। इस पर गरुड़ क्रोध में आकर कद्रू के पुत्र नागों को खाने लगे । इससे भयभीत होकर कद्रू ने प्रस्ताव रखा कि यदि अमृत का छिड़काव कर सभी सर्पों को अमर कर दें तो विनता को दासीत्व से मुक्त कर दिया जाएगा।
गरुड़जी अमृत की खोज के लिए स्वर्ग गए । गरुड़ जब अमृत कुम्भ को ले कर आ रहे थे तो इन्द्र ने उन पर आक्रमण कर दिया । इस संघर्ष में अमृत की बूंदें छलक कर बारह स्थानों पर गिरी, जिनमें आठ स्थान स्वर्ग के और चार पृथ्वी पर थे, वहीं पर कुम्भ पर्व होने लगा ।
कुम्भ स्नान से सम्बंधित मान्यताये
करीब 45 दिनों तक चलने वाले इस महाकुंभ में अमृत स्नान (शाही स्नान) का खास महत्व होता है. यह मान्यता है कि जो इंसान कुंभ में स्नान करता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं. साथ ही यह उम्मीद भी की जाती है कि कुंभ में नहाने से इंसान मृत्यु के बाद मोक्ष को प्राप्त करता है और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। इससे पितृ भी शांत हो जाते हैं।और यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन माना जाता है।
नदी के बीचों-बीच एक छोटे से प्लॅटफॉर्म पर खड़े होकर पुजारी विधि-विधान से पूजा-अर्चना कराते हैं। धर्मपरायण हिंदू के लिए संगम में एक डुबकी जीवन को पवित्र करने वाली मानी जाती है।
कुम्भ मेले का इतिहास
कुंभ मेले के आयोजन का प्रावधान कब से है इस बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियाँ हैं। वैदिक और पौराणिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप नहीं था। माना जाता है कुंभ मेला 850 साल पुराना है। कुछ विद्वानों के अनुसार आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि कुंभ मेला 525 बीसी में शुरू हुआ था। कुछ विद्वान गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं। परन्तु प्रमाणित तथ्य सम्राट विक्रमादित्य हर्षवर्धन 617-647 ई. के समय से प्राप्त होते हैं। बाद में श्रीमद जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की।
कुछ अन्य प्रमाण
600 ईपू – बौद्ध लेखों में नदी मेलों की उपस्थिति।
400 ईसापूर्व – सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले को प्रतिवेदित किया।
300 – ईसापूर्व मानते हैं कि मेले के वर्तमान स्वरूप ने इसी काल में स्वरूप लिया था। सर्व प्रथम आगम अखाड़े की स्थापना हुई कालान्तर मे विखण्डन होकर अन्य अखाड़े बने।
600 – चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद|प्रयागराज) पर सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित कुम्भ में स्नान किया।
904 – निरंजनी अखाड़े का गठन।
1146 – जूना अखाड़े का गठन।
– डॉ0 डी के गर्ग