अग्निहोत्र करने से परिवार ज्ञानवान् होकर सत्यमार्गानुगामी एवं निरोगी होता है

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वैदिक धर्म एवं संस्कृति की विशेषता है कि इसके सब सिद्धान्त एवं मान्यतायें ज्ञानयुक्त होने सहित तर्क एवं युक्ति की कसौटी पर खरे हैं। वैदिक धर्म का पालन करते हुए सभी गृहस्थियों के लिए प्रतिदिन प्रातः एवं सायं अग्निहोत्र यज्ञ का विधान किया गया है। अग्निहोत्र का विधान प्रत्येक गृहस्थी मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य होता है। इसका कारण यह है कि गृहस्थ के निमित्त से वायु व जल में जो विकार होता है, उसका सुधार करना होता है। हम जो श्वास छोड़ते हैं, मल-मूत्र आदि का विसर्जन करते हैं, वस्त्र धोते हैं, उससे वायु व जल में विकार उत्पन्न होता है। गृहस्थजनों को अपने जीवन में शौच एवं रसोई आदि के व्यवहार करने होते हैं। इन कार्यों से भी जल एवं वायु की अशुद्धि होती है। शुद्ध वायु एवं जल का उपलब्ध होना व उन्हीं का प्रयोग करना स्वस्थ जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। अतः सभी गृहस्थियों द्वारा वायु एवं जल को शुद्ध रखने तथा अन्यों द्वारा अशुद्ध हुए वायु व जल को शुद्ध करना व रखना कर्तव्य निश्चित होता है। इसी कार्य को अग्निहोत्र यज्ञ करके सम्पन्न किया जाता है।

इस अग्निहोत्र यज्ञ को समझने के लिये हमें यह जानना होता है कि अग्नि इसमें डाले गये पदार्थों को जला कर सूक्ष्म कर देती हैं जो अत्यन्त हल्के होकर वायुमण्डल में फैल जाते हैं। अग्निहोत्र करते हुए हम अग्नि में शुद्ध गोघृत का मुख्य रूप से प्रयोग करते हैं। घृत का मुख्य गुण आरोग्य व बल प्रदान करना तथा दुर्गन्ध का नाश कर सुगन्ध का प्रसार करना होता है। अग्नि में घृत की आहुति देने से वायु में जो विकार, अशुद्धियां व दुर्गन्ध होता है, वह घृत के जलने से उसके सूक्ष्म कणों व परमाणुओं के द्वारा वायु मण्डल में फैल कर वायु की अशुद्धियों व दुर्गन्ध आदि विकारों को दूर करता है। इससे हमें शुद्ध प्राण वायु की प्राप्ति होती है। यह शुद्ध वायु हमारे स्वास्थ्य, आरोग्य, बल व आयु वृद्धि की दृष्टि से लाभकारी होती है। अतः यह निश्चित होता है कि अग्नि में घृत की आहुति देने से वायु के विकार, अशुद्धियां व दुर्गन्ध दूर होकर अशुद्ध वायु का सुधार, शुद्धि व उसकी गुणवत्ता में वृद्धि होती है। ऐसा ही अनुभव सभी यज्ञ करने वाले परिवारों का होता है। यज्ञ में हम केवल शुद्ध घृत का ही प्रयोग नहीं करते अपितु इसके साथ वनीय ओषधियों, बलवर्धक पदार्थों यथा नारीयल, बादाम, काजू आदि सूखे फल, ओषधियां, शक्कर, लाभप्रद वनस्पतियों आदि का प्रयोग भी करते हैं। इन सबके जलने व सूक्ष्म होकर शरीर में प्रविष्घ्ट होने से भी मनुष्य को वायु व आकाशीय जल की शुद्धि सहित स्वावस्थ वा आरोग्यता आदि अनेक लाभ होते हैं।

अग्निहोत्र करने से एक लाभ यह भी होता है कि अग्निहोत्र करने से परोपकार होता है। हमारे द्वारा किया गया यज्ञ भारी मात्रा में वायु का सुधार व शुद्धि करता है जो पूरे वातावरण में फैल कर सर्वत्र दूषित वायु की अशुद्धियों व दुर्गन्ध का नाश करता है। इससे सैकड़ो व सहस्रों मनुष्यों सहित वायुस्थ प्राणियों को भी लाभ होता है। इस परोपकार का फल हमें ईश्वर से सुख व कल्याण के रूप में प्राप्त होता है। यज्ञ करने वालों को परमात्मा जीवन में सुख व शान्ति देता है और प्रतिदिन यज्ञ करने से यज्ञकर्ता के पुण्य कर्मों का जो संचय होता है उसके प्रभाव से उसे परजन्मों में भी सुख व आत्मा की उन्नति का लाभ होता है। इसके विपरीत जो मनुष्य अग्निहोत्र नहीं करते वह अपने श्वास, मलमूत्र तथा अन्य कार्यों से वायु, जल व वातावरण की अशुद्धि करने से उस मात्रा में पापों के भागी होते हैं जिसका परिणाम मनुष्य जन्म व परजन्मों में दुःख होता है। इसका तर्कसंगत कारण यह है कि हमारे निमित्त से जो अशुद्धि व वायु में दुर्गन्ध (श्वास-प्रश्वास व मल-मूत्र के विसर्जन द्वारा) होता है उससे हमें व दूसरों को हानि होती है। इस कारण यह पाप कर्म कहा जाता है। अतः सभी दृष्टियों से यज्ञ करना पुण्य एवं शुभ कर्म सिद्ध होता है। इसी कारण सृष्टि के आदि काल से हमारे देश में यज्ञ होता आया है। हमारे सभी ऋषि मुनि योगी व विद्वान स्वयं यज्ञ करते थे और सभी गृहस्थियों को भी यज्ञ करने की प्रेरणा करते थे। इसका परिणाम यह होता था देश भर की वायु व जल शुद्ध रहते थे और रोग बहुत ही कम होते थे।

वर्तमान समय में गृहस्थियों की आधुनिक जीवन शैली के परिणामस्वरूप अधिक मात्रा में उत्पन्न विकृत वायु व जल समाज को हानि पहुंचाते हैं वहीं उद्योगों तथा वाहनों से भी बड़ी मात्रा में प्रदुषण होता है जिससे देश विदेश में सर्वत्र नाना प्रकार के साध्य व असाध्य रोग देखने को मिलते हैं। इससे मनुष्य का जीवन अशान्त व दुःखों से युक्त होकर अल्पायु को प्राप्त हो रहा है। यहां तक कहा जाता है कि मनुष्य शरीर रोगों का घर है। यह कथन उचित नहीं है। यदि देश के सभी गृहस्थी दैनिक अग्निहोत्र-यज्ञ करें और स्वच्छता पर ध्यान दें तो वायु प्रदुषण से बचा जा सकता है और जितना वायु व जल विकार कम होंगे उतना ही रोग भी कम होंगे। हमें अपने भोजन पर भी ध्यान देना चाहिये। हमारा भोजन शुद्ध, शाकाहारी व अल्प मात्रा में होना चाहिये। तले भुने पदार्थो का अति अल्प मात्रा में सेवन करना चाहिये। यहां प्रदुषण की बात चल रही है। यह आवश्यक व उचित है कि हमें कृषि में रासायनिक खाद वा उर्वरकों का प्रयोग बन्द व कम करके गोबर व देशी खाद को बढ़ावा देना होगा। जैविक खाद से खेती करके जो अन्न प्राप्त होता है उससे रोग नहीं होते वा बहुत कम होते हैं। यदि हम जैविक खाद का प्रयोग कर ही अन्न उत्पन्न करें व उसी का सेवन करें तो इससे भी हमारा देश अनेक रोगों से बच सकता है।

हमें आयुर्वेद का प्रचार व प्रसार करना चाहिये व उसे अपनाना चाहिये। आजकल इस दिशा में प्रगति हो रही है। ऐसा देखा गया है कि आयुर्वेद के प्रचार व सेवन सहित योगासनों व प्राणायाम आदि से रोगों का निदान होता है जबकि एलोपैथी की दवाओं से रोग ठीक होने के स्थान पर दब जाते हैं और इन दवाओं से साइड अफेक्ट के दुष्परिणाम भी झेलने पड़ते हैं। अतः यज्ञीय जीवन सहित योग, योगासन, ध्यान, प्राणायाम तथा जैविक व देशी तरीकों से खेती करके प्रदुषण पर अंकुश लगा कर हम मनुष्य जीवन को रोगों व दुःखों से बचा कर उसे सुखी कर सकते हैं। यज्ञ की स्वास्थ्य एवं सुख वृद्धि के कार्यों में मुख्य भूमिका है। अतः सुखाभिलाषी सभी मनुष्यों को दैनिक यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये जिससे हमारा जीवन व परजन्म सभी स्वस्थ एवं सुखी होंगे।

यज्ञ को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि यज्ञ देवपूजा, संगतिकरण व दान को कहते हैं। वस्तुतः यज्ञ ऐसा ही है। यज्ञों में स्तुति, प्रार्थना व उपासना के द्वारा ईश्वर की पूजा होती है। इससे ईश्वर से हमें प्रेरणाओं के रूप में ज्ञान एवं मार्गदर्शन प्राप्त होता है। हम अपने यज्ञों में विद्वानों को भी आमंत्रण देते हैं। वह समय-समय पर आकर अपने ज्ञान व अनुभवों द्वारा हमारी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर हमारा मार्ग दर्शन करते हैं जिससे हमारी सभी समस्याओं का वैदिक ज्ञान की दृष्टि से समाधान हो जाता है। हम निकटवर्ती आश्रमों आदि स्थानों पर यज्ञों के बड़े-बड़े आजोजनों में सम्मिलित होते रहते हैं। इन वृहद यज्ञों में बड़े-बड़े वैदिक विद्वान व महात्मागण पधारते हैं। वह गृहस्थ की समस्याओं व दुःखों से परिचित रहते हैं। उनका समाधान भी उनके पास होता है। आयोजनों में उनके प्रवचन होते हैं। वहां गृहस्थी ही प्रायः सम्मिलित होते हैं। इन आयोजनों में विद्वानों के मुखारविन्द से उपदेश सुनकर व शंका समाधान कर मनुष्य अपनी सभी समस्याओं का समाधान प्राप्त करते हैं।

यज्ञ का दूसरा अर्थ संगतिकरण है। यज्ञ में हमें अन्य लोगों व विद्वानों के साथ बैठने का अवसर मिलता है। इससे परस्पर संवाद होने से हम एक दूसरे से बहुत कुछ उपयोगी बातों को ग्रहण करते हैं। संगति के बारे में प्रसिद्ध है अज्ञानी मनुष्य ज्ञानी लोगों की संगति में रहे तो वह ज्ञानी बन जाता है और यदि ज्ञानी मनुष्य अज्ञानी व कुसंस्कारी मनुष्यों के बीच रहे तो उसके संस्कार भी बदल जाते हैं। हमने आर्यसमाज के साहित्य में पढ़ा है कि एक बार एक आर्य विद्वान किसी स्थान पर गये तो वहां वह एक श्मशानकर्मी परिवार के बालक के सम्पर्क में आये। वह उसकी उन्नति का विचार कर उसे अपने साथ अपने गुरुकुल में ले आये। गुरुकुल में वह बालक पाचक का काम करने लगा। गुरुकुल की पाकशाला के आसपास ही बच्चे अध्यापकों से पढ़ते थे और यह बालक सुनता रहता था। एक बार ऐसा अवसर आया कि गुरुजी ने अपने शिष्यों से कुछ प्रश्न पूछे? कई प्रश्नों के उत्तर विद्यार्थी नहीं दे पाये परन्तु इस पाचक बालक ने गुरु जी से अनुमति लेकर उनके द्वारा पूछे गये अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर दे दिये। कारण यह था कि इस बालक की पढ़ने में रुचि हो गई थी और यह अपना काम करते हुए गुरुजी की बातों को ध्यान से सुनता रहता था। विद्या के प्रति बालक के अनुराग को देखकर उसे भी विद्यार्थी बना दिया गया। अतिरिक्त समय में वह पाकशाला का काम भी करता रहा। विद्या पूरी करने के बाद यह बालक आर्यसमाज का एक अच्छा विद्वान व प्रचारक बना। ऐसा ही एक अन्य उदाहरण गांव में पशु चराने वाले बालक का भी मिलता है। उसे भी एक संन्यासी ने अपने गुरुकुल में भर्ती किया। वह वहां पढ़कर शास्त्री व आचार्य बन गये। बाद में उन्होंने सार्वदेशिक सभा के प्रधान के रूप में भी आर्यसमाज को नेतृत्व दिया। इनका नाम आचार्य धुरेन्द्र शास्त्री व संन्यास लेने के बाद स्वामी धु्रवानन्द था। इस प्रकार संगति एवं सत्संग से मनुष्य का जीवन उन्नत होता है। यज्ञ में भी अनेक विद्वानों व जिज्ञासुओं से संगति होने से मनुष्यों को लाभ होता है। हमने भी यह लाभ देहरादून के वैदिक साधन आश्रम तपोवन, गुरुकुल पौंधा सहित आर्यसमाज के अनेक सत्संगों व समारोहों में आयोजित वृहद यज्ञों एवं सत्संगों से प्राप्त किया है। यज्ञ करने के साथ यदि हम वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय भी करते हैं तो इससे अधिक लाभ होता है तथा जीवन में सर्वांगीण उन्नति होना सम्भव होता है।

यज्ञ का तीसरा अर्थ दान करना होता है। हमें सुपात्रों को दान करना चाहिये। ब्रह्म अर्थात् ज्ञान का दान सबसे उत्तम दान माना गया है। हम वृहद यज्ञों के अवसर पर विद्वानों से जो प्रवचन व उपदेश सुनते हैं वह ज्ञान का दान कर रहे होते हैं और श्रद्धालु के रूप में हम उस ज्ञान को ग्रहण कर रहे होते हैं। इससे हमारी शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति होती है। हम सार्वजनिक संस्थाओं को अपनी सामथ्र्यानुसार जो दान देते हैं उस धन से वहां कर्मचारियों को वेतन मिलता है और संस्थाओं के अधिकारी उस धन से हमारी सभी प्रकार की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर व्यवस्थायें करते हैं। इससे हम व हम जैसे अनेक लोग लाभान्वित होते रहते हैं। इस प्रसंग में हम यह उल्लेख करना भी चाहते हैं कि ऋषि दयानन्द जी के देहावसान के बाद आर्यसमाज के लोगों ने डीएवी स्कूल व कालेज सहित गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार व अनेक गुरुकुलों की स्थापनायें की। यह कार्य जनता से दान के रूप में धन संग्रह कर सम्पन्न किया गया। विगत लगभग 130 वर्षों में इन संस्थाओं ने देश भर में करोड़ों लोगों को शिक्षित कर देश से अज्ञान दूर किया है। इस प्रकार हमारा छोटा सा दान भी अन्य लोगों के दान में एकत्रित होकर बहुत बड़े-बड़े उद्देश्यों को सिद्ध कर सकता है। मनुष्य को यथासम्भव दैनिक अग्निहोत्र करना चाहिये। हमने अनेक धनवान परिवारों को देखा है जो पहले निर्धन थे और वैदिक विद्वानों की प्रेरणाओं से उन्होंने यज्ञ करना आरम्भ किया था। बाद में यह परिवार धनवान बने। उन परिवारों में आज भी प्रतिदिन प्रातः सायं यज्ञ होता है। आर्यसमाज ने ही देश देशान्तर में यज्ञों का प्रचार-प्रसार किया है। यदि यज्ञ से लाभ न होता तो कोई शिक्षित व विद्वान व्यक्ति यज्ञ कदापि नहीं करता। यज्ञ से सभी प्रकार के लाभ होते हैं, उसीलिये याज्ञिक लोग जीवन भर यज्ञ करते हैं और अन्तिम समय तक यज्ञ करते हुए अपने प्राणों को छोड़ते है। ऐसे अनेक लोगों का यश हम नित्य प्रति सुनते व बताते रहते हैं। इसी के साथ यज्ञ विषयक चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
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फोनः09412985121

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