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कविता

जब बारूद की खेती सस्ती हो

प्रेम सुधा रस पीता चल,
भारत को भव्य बनाता चल।
प्रेम की गगरी छलके ना,
सोच को दिव्य बनाता चल।।

गहरे – गहरे घाव बने हैं,
राज भी गहरे लगते हैं।
आठ दशक होने को आए,
क्यों देश में पहरे लगते हैं ?

शांति – शांति चिल्लाते हैं,
पर बीज रक्त के बोते हैं।
ऐसे मानव ही सचमुच में,
स्वदेश के शत्रु होते हैं।।

जब बारूद की खेती सस्ती हो,
और रक्त सड़क पर बहता हो।
जब गोले का धमाका कानों में,
चुपके से कुछ कहता हो ?

जब आंख कान को बंद किये,
नेतृत्व देश का सो जाए।
तब समझना संकट भारी है,
जब बाड़ खेत को खा जाए।।

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