रामप्रसाद बिस्मिल : एक क्रान्तिकारी, जो कवि भी था
आज – 19 दिसम्बर को – क्रान्तिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, और कुछ अन्य क्रान्तिकारियों, का बलिदान-दिवस है। भारत मां के अनेक सपूतों ने मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है – ‘बिस्मिल’ भी उनमें से एक थे। हम उन लोगों को श्रद्धांजलि-स्वरूप थोड़ा याद कर सकते हैं। वैसे, किसी भी बलिदानी को याद करने का उचित तरीका तो यह है कि हम उनके सपनों का भारत बनाएं। क्या भारत की आजादी के लिए अपने प्राणोत्सर्ग करते समय उन बलिदानियों के मन में कदम-कदम पर फैले हुए भ्रष्टाचार-युक्त भारत की कल्पना रही होगी? क्या आंखों पर स्वार्थ की पट्टी बांध कर स्थान-स्थान पर बैठे हुए ‘गांधारी-पुत्रों’ के लिए ही उन्होंने अपनी आंखों की ज्योति बुझाई होगी?
आइए, हम ‘पण्डित’ रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के बारे में कुछ जानें…
रामप्रसाद एक कवि, शायर, अनुवादक, बहु-भाषा-भाषी, इतिहासकार व साहित्यकार थे। ‘बिस्मिल’ उनका तखल्लुस (उपनाम) था – जिसका अर्थ होता है ‘आत्मिक रूप से आहत’। ‘बिस्मिल’ के अतिरिक्त वे ‘राम’, ‘पण्डित’ और ‘अज्ञात’ के नाम से भी लेख, ग़ज़ल और कविताएं लिखते थे।
11 जून, सन् 1897, को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर नगर के खिरनीबाग मोहल्ले में जन्मे रामप्रसाद अपने पिता मुरलीधर और माता मूलमती की दूसरी संतान थे। उनसे पूर्व एक अन्य पुत्र की जन्म लेते ही मृत्यु हो गई थी। बाल्यकाल में रामप्रसाद का मन शिक्षा में विशेष नहीं लगा और किशोरावस्था में उन्हें पिता के रुपए चोरी करने, सिगरेट पीने एवं भांग खाने की आदत पड़ गई। वह किशोर रामप्रसाद प्रेम-रस के उपन्यास और ग़ज़लों की पुस्तकें पढ़ने का आदी हो गया। बहुत प्रयत्नों के बाद भी उसकी यह आदतें नहीं छूटीं।
बाद में पड़ोस के एक मन्दिर के पुजारी के साहचर्य से उसकी सिगरेट पीने के अतिरिक्त अन्य बुरी आदतें छूट गईं और वह व्यायाम भी करने लगा। कुछ समय बाद विद्यालय के एक साथी सुशील चंद्र सेन की सत्संगत से रामप्रसाद की सिगरेट पीने की आदत भी छूट गई।
इसी दौरान मन्दिर में आने वाले ‘मुंशी इंद्रजीत’ से उसका परिचय हुआ। उन्होंने रामप्रसाद को आर्य समाज के विषय में बताया और उन्होंने महर्षि दयानन्द की पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी उसे पढ़ने को दी। उस पुस्तक का उस किशोर रामप्रसाद के ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा। रामप्रसाद जब गवर्नमेंट स्कूल, शाहजहांपुर, में आठवीं कक्षा के छात्र थे, तभी ‘स्वामी सोमदेव’ का आर्य समाज-भवन में आगमन हुआ। मुंशी इंद्रजीत ने रामप्रसाद को स्वामी जी की सेवा में नियुक्त कर दिया। स्वामी जी के साथ राजनैतिक विषयों पर चर्चा से रामप्रसाद के मन में देश-प्रेम की भावना जागृत हुई। बाद में उनका परिचय बाल गंगाधर तिलक और केशव बलिराम हेडगेवार जैसे महानुभावों से हुआ, जिनके विचारों का प्रभाव नवयुवक रामप्रसाद पर पड़ा।
यहां स्वामी सोमदेव जी का मैं उल्लेख करना चाहूंगा यह महान आर्य समाज के सन्यासी पंजाब के ही महान क्रांतिकारी आर्य समाजी नेता भाई परमानंद के रिश्ते में भाई लगते थे।
संन्यास से पुर्व इनका नाम बृजलाल चोपड़ा था। राम प्रसाद बिस्मिल ही नहीं आजादी के बाद देश के पहले शिक्षा मंत्री अब्दुल कलाम आजाद के बड़े भाई भी इनके शिष्य थे। लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथियों को यह रास नहीं आता था उन्होंने स्वामी सोमदेव जी की हत्या का षड्यंत्र बनाया हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के लिए अब्दुल कलाम आजाद के भाई को भी बाध्य किया गया वह यह प्रताड़ना सह ना सके अब्दुल कलाम आजाद के बड़े भाई ने आत्महत्या कर ली लेकिन आत्महत्या से पूर्व स्वामी जी को षड्यंत्र के बारे में बता दिया कि वह किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाएं।
सन् 1915 में आर्य समाज के प्रचारक, वैदिक विद्वान और स्वतन्त्रता-संग्राम-सेनानी – भाई परमानन्द – को ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा फांसी दिए जाने का समाचार सुन कर रामप्रसाद के मन में ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की भावना बलवती हो गई। अब तक रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के नाम से लिखने लगे थे। सन् 1916 में उनकी एक पुस्तक छप कर आ चुकी थी। उन्होंने पण्डित गेंदालाल दीक्षित के मार्गदर्शन में ‘मातृवेदी’ के नाम से एक राष्ट्रवादी संगठन खड़ा किया। सन् 1918 में उन्होंने तीन डकैतियां भी डालीं और उस धन से राष्ट्रवादी पुस्तकें छापनी और बेचनी शुरू कीं। उन पुस्तकों को बेचने से प्राप्त धन का उपयोग भी उन्होंने क्रान्तिकारी कार्यों में किया। यहां मैं इस बात की विवेचना में नहीं जाऊंगा कि उनके द्वारा यह डकैतियां डालना कितना उचित था।
स्वतन्त्रता प्राप्त करने के उद्देश्य से सन् 1915-16 में उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में एक क्रान्तिकारी संस्था की स्थापना हुई थी, जिसमें रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की भी एक प्रमुख भूमिका थी और उसमें उनके नेतृत्व में शाहजहांपुर के छह युवकों ने भाग लिया था। बाद में देशद्रोही दलपत सिंह के द्वारा अंग्रेज-सरकार को इसकी सूचना दे देने पर इस संस्था के अनेक लोग पकड़े गए थे और उसमें मुकुन्दी लाल को आजीवन कारावास की सजा हुई थी।
इसके बाद ‘बिस्मिल’, अब के ग्रेटर नोएडा, आगरा और ग्वालियर आदि स्थानों में छिप कर रहने लगे। इस बीच उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखीं। सन् 1920 में इन सभी क्रान्तिकारियों को आम माफी का ऐलान हुआ और इसके बाद रामप्रसाद शाहजहांपुर आकर पहले नौकरी, और फिर अपना रेशमी साड़ियों का व्यापार, करने लगे। उन्होंने इस व्यापार में धन भी कमाया। वह कांग्रेस से जुड़ गए और कलकत्ता (अब कोलकाता) कांग्रेस के अधिवेशन में शाहजहांपुर कांग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि बने। कलकत्ता में उनकी भेंट लाला लाजपत राय से हुई। सन् 1921 के अहमदाबाद अधिवेशन में ‘बिस्मिल’ ने कांग्रेस के मौलाना हसरत मोहानी द्वारा प्रस्तुत ‘पूर्ण स्वराज’ प्रस्ताव का समर्थन किया, यद्यपि एक ठोस रूप में कांग्रेस ने ‘पूर्ण स्वराज’ का प्रस्ताव सन् 1929 में पेश किया था। उन्होंने गांधीजी के ‘असहयोग आन्दोलन’ का भी समर्थन किया और इसका प्रस्ताव लाने में सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने इस आन्दोलन में शाहजहांपुर में अपने स्वयंसेवक दल के साथ महती भूमिका निभाई। किन्तु सन् 1922 में ‘चौरीचौरा काण्ड’ के बाद जब गांधी जी ने किसी से परामर्श किए बिना असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया तो ‘बिस्मिल’ ने गांधीजी का विरोध किया, और तब कांग्रेस में दो विचारधाराएं बन गईं – उदारवादी और विद्रोही। बाद में यह विचारधाराएं ‘नरम दल’ और ‘गरम दल’ के रूप में जानी गईं।
जनवरी 1923 में लाला हरदयाल, ‘बिस्मिल’, शचीन्द्र नाथ सान्याल और यदु गोपाल मुखर्जी ने मिल कर एक दल ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ (HRA) का गठन किया। इसके लिए धन का प्रबन्ध करने के लिए 25 दिसम्बर, सन् 1924, को बमरौली में डकैती डाली गई। ‘बिस्मिल’ क्रान्तिकारी दल के लिए काम करते रहे और वह गांधीजी के विरोधी हो गए। उन्होंने ‘दि रिवॉल्यूशनरी’ नाम से पैम्फलेट छपवाना और उन्हें जगह-जगह बांटना शुरू किया।
अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति-हेतु धन की प्राप्ति के लिए ‘बिस्मिल’ ने सन् 1925 में बिचपुरी और द्वारकापुर में दो डकैतियां डालीं, लेकिन इनमें उन्हें कोई विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका और इन दोनों ही डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मारा भी गया। इसके बाद से ‘बिस्मिल’ ने यह निश्चय कर लिया कि आगे से वह भारतीय धनवानों के यहां डकैती न डाल कर केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे। 9 अगस्त, सन् 1925, को शाहजहांपुर रेलवे स्टेशन से ‘बिस्मिल’ के नेतृत्व में कुल 10 लोग – जिनमें, उनके अतिरिक्त, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्म नाम), मुरारी शर्मा (मुरारी लाल गुप्ता) तथा बनवारीलाल थे – 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में सवार हुए और उन्होंने लखनऊ के निकट काकोरी नामक स्थान पर गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाना लूटा। इस मौके पर गलती से एक यात्री अहमद अली भी मारा गया।
डकैती के मौके पर क्रान्तिकारियों की एक चादर छूट गई थी। उस चादर पर धोबी के निशान से पुलिस ने डकैती में शामिल लोगों का सुराग पा लिया और तब अनेक लोगों को पकड़ा गया। बनारसी लाल नाम के एक और गद्दार ने इस सब में पुलिस की मदद की। क्रांतिकारियों पर मुकदमा चलाया गया और 22 अगस्त, सन् 1927, को रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।
इस मुकदमे के विस्तृत तथ्य अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। वह ‘बिस्मिल’ की विद्वता, उनकी हाजिर-जवाबी, उनकी निर्भीकता, उनकी विनोद-प्रियता और अंग्रेजी सरकार की चालाकियों और दुष्टताओं की ओर भी इंगित करते हैं।
‘बिस्मिल’ को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की जेल में रखा गया था। यहां उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। 16 दिसम्बर, सन् 1927, को उन्होंने इसका आखिरी अध्याय लिखा और उसे जेल के बाहर भिजवा दिया। 18 दिसम्बर को उन्होंने माता-पिता से अन्तिम भेंट की, और सोमवार, 19 दिसम्बर, सन् 1927, को प्रातः काल, 6 बज कर 30 मिनट पर, गोरखपुर सेन्ट्रल जेल में उन्हें फांसी दे दी गई। उन की शव-यात्रा में डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर उन्हें अपनी भाव-भीनी श्रद्धांजलि दी और गोरखपुर में राप्ती नदी के तट पर राजघाट पर उनका अन्तिम संस्कार कर दिया गया।
केवल 30 वर्ष की आयु में एक युवक ने अपने प्राण मातृभूमि पर न्यौछावर कर दिए। फांसी के फंदे पर भी वह वीरता-पूर्ण शेर और गीत गाते रहे। भगत सिंह ने जनवरी 1928 के ‘किरती’ – या ‘कीर्ति’ – (पंजाबी मासिक पत्रिका) में ‘विद्रोही’ छद्म नाम से ‘बिस्मिल’ के फांसी के तख्ते पर जाने के विषय में लिखा…
“फाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा – ‘वन्दे मातरम! भारतमाता की जय!’ और शान्ति से चलते हुए कहा – ‘मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे; जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे, तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे!’ फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा – ‘I wish the downfall of British Empire! अर्थात् मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ!’ उसके पश्चात यह शेर कहा – ‘अब न अह्ले-वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़, एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है’ फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और एक मन्त्र पढ़ना शुरू किया। रस्सी खींची गयी… रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये।”
‘पण्डित’ रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ ने अपने जीवन में अनेक ग़ज़लें, शेर, कविताएं, लेख और पुस्तकें लिखीं। उनकी कुछ पुस्तकों के अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हुए। ये और अशफाक उल्ला खां तुरन्त शेर गढ़ते थे। यह दोनों रस ले-ले कर, ‘तरह’ दे-दे कर, शायरी करते थे। वह अपने जीवन-काल में भारतीय क्रान्तिकारी – बिस्मिल अज़ीमाबादी – की यह ग़ज़ल गाते थे –
सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना, बाजुए कातिल में है
वक़्त आने दे, बता देंगे तुझे ऐ आसमां,
हम अभी से क्या बताएं, क्या हमारे दिल में है
इस ग़ज़ल को वह फांसी के तख्ते पर जाते समय भी पढ़ रहे थे।
जेल में लिखी हुई उनकी आत्मकथा का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है…
क्या ही लज्जत है, कि रग-रग से आती है यह सदा
दम न ले तलवार जब तक, जान ‘बिस्मिल’ में रहे
और उसका अन्त इन पंक्तियों से हुआ है…
यदि देश-हित मरना पड़े, मुझे सहस्रों बार भी
तो भी न इस कष्ट को, निज ध्यान में लाऊं कभी
हे ईश! भारतवर्ष में, शत बार मेरा जन्म हो
धारण सदा ही मृत्यु का, देशोपकारक धर्म हो
फांसी लगने से कुछ ही समय पूर्व लिखी गई उनकी नज़्म का यह एक अंश देखिए…
दिल फ़िदा करते हैं, कुरबान जिगर करते हैं
पास सिर बाकी है, माता की नजर करते हैं
खाना ये वीरान, कहां देखिए घर करते हैं
खुश रहो अहले वतन, हम तो सफर करते हैं।
शाहजहांपुर के ही अशफाक उल्ला खां को भी 19 दिसम्बर, सन् 1927, को फैजाबाद जेल में, और खुदागंज, शाहजहांपुर, के ठाकुर रोशन सिंह को उसी दिन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) जेल में एवं राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को 17 दिसम्बर, सन् 1927, को गोंडा जेल में फांसी दे दी गई।
भारत के लिए समय-समय पर अनेकानेक लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी है। हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लेने की उन लोगों की क्या भावना रही होगी! अन्य अनेक लोगों ने अन्य प्रकार से अपने जीवन की आहुति दी है। हम किसी के भी त्याग और बलिदान को कम करके नहीं आंक सकते हैं। हम उस बलिदानियों को याद करें, उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दें और उनकी भावना को साकार करें – हमारा यह एक उद्देश्य होना चाहिए।
मैं, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, ठाकुर रोशन सिंह और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
संपादित : आर्य सागर