परमात्मा और आत्मा का सम्बन्ध व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक, स्वामी-सेवक, मित्र बन्धु व सखा आदि का है। परमात्मा और आत्मा दोनों इस जगत की अनादि चेतन सत्तायें हैं। ईश्वर के अनेक कार्यों में जीवों के पाप-पुण्यों का साक्षी होना तथा उन्हें उनके कर्मानुसार सुख व दुःख रूपी फल वा भोग प्रदान करना है। हमारा जो जन्म व मृत्यु होती है वह हमें परमात्मा से ही ईश्वरीय कर्म-फल विधान एवं और हमारे शरीर का जन्म व मृत्यु धर्मा होने के कारण से ही होती है। हम अपने किये हुए कर्मों को भूल जाते हैं परन्तु वह सभी कर्म ईश्वर के ज्ञान व स्मृति में तब तक बने रहते हैं कि जब तक हम उनका फल न भोग लें। कर्म का फल भोग लेने के बाद ही वह कर्म क्षय को प्राप्त व नष्ट होता है। यह भी जानने योग्य तथ्य है कि हमारे सभी शुभ व पुण्य कर्मों का फल सुख तथा अशुभ वा पाप कर्मों का फल दुःख होता है। कोई भी आत्मा वा मनुष्य दुःख को प्राप्त होना नहीं चाहता। इनसे बचने का उसके पास एक ही उपाय है कि वह अशुभ व पापकर्मों को करना छोड़ दे। अशुभ कर्म असत्य के मार्ग पर चलना होता है। असत्य बोलना अधर्म व पाप कहलाता है। असत्य का व्यवहार करने से मनुष्य का जीवन नीरस व सुखों से रहित हो जाता है। इसके विपरीत सत्य को जानकर सत्य का व्यवहार करने से मनुष्य का जीवन व उसकी आत्मा उन्नति को प्राप्त होकर उसे जीवन में सभी अभिलषित सुखों व उद्देश्यों की प्राप्ति होती है। इसी कारण से हमारे प्राचीन ऋषियों ने आदि काल में ही लोगों को शुभ व सत्य कर्मों का आचरण करने की प्रेरणा की थी।
सभी मनुष्य सुखी हों और स्वस्थ रहते हुए पूर्ण आयु को भोगें, इसके लिये हमारे ऋषियों ने वेद के आधार पर अनेक नियम बनाये हैं जिनमें एक नियम गृहस्थी मनुष्यों का प्रतिदिन पंचमहायज्ञों को करने का विधान है। इन पंचमहायज्ञों को जानकर इनको करने से मनुष्य की आत्मा की उन्नति होने सहित उसे इष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति होती है। अतः सभी मनुष्यों को पंचमहायज्ञों को जानकर उनका सेवन करना चाहिये। इनकी महत्ता के कारण ही महाराज मनु ने आदि काल में ही घोषणा की थी सभी मनुष्य पंचमहायज्ञों को करें और जो न करें उन्हें सभी द्विजों के कार्यों से पृथक कर देना चाहिये। पंचमहायज्ञों को करने से मनुष्य ईश्वर को प्राप्त होकर अपनी अविद्या व दुःखों को दूर करने में सफल होता है। देवयज्ञ अग्निहोत्र करने से वायु व जल आदि की शुद्धि होने सहित ईश्वर की उपासना भी होती है। इसे करने से मनुष्य को स्वास्थ्य लाभ सहित अनेक आध्यात्मिक लाभ तथा उसकी कामनाओं की सिद्धि होती है। माता-पिता की सेवा करने से उसे उनका आशीर्वाद मिलता है तथा उनके पुत्र व पुत्री भी वृद्धावस्था में उनकी सेवा कर उनको प्रसन्न व सन्तुष्ट रखेंगे। विद्वान अतिथियों की सेवा करने से मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि व उनकी सभी शंकाओं का समाधान होता है। ऐसा करने से मनुष्य अन्धविश्वासों, पाखण्डों तथा कुरीतियों में नहीं फंसते। इस अतिथिसेवा-यज्ञ को करने से मनुष्य को विद्वान अतिथियों का आशीर्वाद भी मिलता है जो इष्ट कामनाओं की पूर्ति कराता है। पांचवा दैनिक यज्ञ बलिवैश्वदेव-यज्ञ होता है। इसके अन्तर्गत पशु-पक्षियों को कुछ अन्न देने से हमें पुण्य प्राप्त होता है। यह पुण्य कार्य मनुष्य के जीवन में सभी क्षेत्रों में सुखदायक होता है। अतः पंचमहायज्ञों को हम सभी को करना चाहिये और इनसे मिलने वाले लाभों को प्राप्त करना चाहिये।
हम अपनी आंखों से जिस संसार को देखते हैं इसमें जड़ और चेतन दो प्रकार के पदार्थ हैं। संसार में कुल तीन ही पदार्थ हैं जो ईश्वर, जीव व प्रकृति कहलाते हैं। ईश्वर सब जगत् के ऐश्वर्य का स्वामी होने से ईश्वर कहलाता है। ईश्वर ने ही त्रिगुणात्मक कारण प्रकृति को कार्य सृष्टि में परिणत कर सभी जीवों को जन्म-मरण देकर सुख व मोक्ष प्राप्ति के अवसर दिये हैं। दूसरा चेतन पदार्थ जीव है जो अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, अल्प परिणाम, अल्पज्ञ, एकदेशी, समीम, जन्म-मरण धर्मा, शुभाशुभ कर्मों को करने वाला तथा ईश्वर की व्यवस्था से उनके सुख व दुःखरूपी फलों को भोगने वाला है। मनुष्य योनि में जीवात्मा का कर्तव्य है कि वह ईश्वरीय ज्ञान वेदों का अध्ययन करे और वेदविहित कर्तव्य-कर्मों को करते हुए ईश्वर के ज्ञान को प्राप्त होकर उसके साक्षात्कार सहित सुख व मोक्ष आदि को प्राप्त करने में प्रयत्नशील रहे। मनुष्य वेद विहित कर्मों को करता है तो उसे पाप-पुण्य बराबर होने व पुण्य अधिक होने पर मनुष्य का जन्म मिलता है। मनुष्य जितने अधिक पुण्य कर्मों को करेगा उतना ही उसे श्रेष्ठ परिवेश में मनुष्य का जन्म मिलेगा और उसके पुण्यों के अनुरूप ही उसे परजन्म में सुखों की प्राप्ति होती है। दर्शन ग्रन्थों में इसका तर्क एवं युक्तियों सहित विवेचन किया गया है। हमें दर्शनों व उपनिषदों के ज्ञान का लाभ प्राप्त करने के लिये इन ग्रन्थों का भी अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने से जीवात्मा के स्वरूप तथा जन्म मरण विषयक हमारी सभी शंकाओं का समाधान हो सकेगा।
ईश्वर का सत्यस्वरूप भी वेद व वैदिक साहित्य से ही जाना जाता है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ वैदिक साहित्य का ही प्रमुख ग्रन्थ है। इसके अध्ययन से जीवात्मा, परमात्मा तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है। ईश्वर को एक दो वाक्य में जानना व बताना हो तो आर्यसमाज के दूसरे नियम का उपयोग कर उसे प्रस्तुत किया जा सकता है। नियम में ईश्वर क्या व कैसा है प्रश्न का उत्तर दिया गया है। नियम है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ हमें ईश्वर के स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, ध्यान, सन्ध्या व उपासना के द्वारा ईश्वर के इसी सत्यस्वरूप को प्राप्त होना है। इसे प्राप्त कर लेने पर ही मनुष्य जीवन सफल होता है और मनुष्य जन्म व मरण के बन्धनों से छूट कर दीर्घकाल तक मोक्ष अवस्था को प्राप्त होता है व हो सकता है। मोक्ष का वर्णन सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम् समुल्लास में हुआ है। इसका सभी को अध्ययन करना चाहिये। मोक्ष आनन्द की अवस्था है जिसमें जीवात्मा 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के लिये जन्म व मरण के दुःखों से छूट जाता है। यही हम सब जीवात्माओं का लक्ष्य है। हमें मोक्ष प्राप्ति के पथ पर ही अपने जीवनों को चलाने का प्रयत्न करना चाहिये। जिस प्रकार से ईश्वर, जीवात्मा, कारण व कार्य जगत् सृष्टि, वेद आदि सत्य हैं उसी प्रकार वेद और ऋषियों के ग्रन्थों में वर्णित मोक्ष व मोक्ष में प्राप्त होने वाले सुखों की प्राप्ति का होना भी सत्य है। मोक्ष की अवस्था अनेक जन्म में पुण्य कर्मों का संचय तथा अपने सभी पाप कर्मों का भोग कर लेने पर प्राप्त होती है। इसके लिए उपासना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना भी आवश्यक होता है। सत्याचरण ही धर्म है और यही मोक्ष का मार्ग भी है। इस का सभी मनुष्यों को चिन्तन करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ हमारे कर्तव्यों का बोध कराने व ईश्वर व आत्मा आदि के चिन्तन-मनन में सहायक है और जीवन की सभी शंकाओं व जानने योग्य विषयों पर निर्णायक ज्ञान देता है।
परमात्मा हमारा माता, पिता, आचार्य, राजा व गुरू आदि है। उसने अपनी प्रजा जीवों के लिये ही इस संसार की रचना की है और इसका पालन कर रहा है। इस कारण से वह हमारा माता व पिता दोनों है। वेद ज्ञान देने सहित ऋषियों व परम्परा से हमें वेदज्ञान उपलब्ध कराने तथा आत्मा में उपस्थित रहकर हमें कर्तव्यों की प्रेरणा करने से वह हमारा आचार्य व गुरु भी है। हमें ईश्वर के साथ अपने इन सम्बन्धों को जानकर उन्हें निभाना चाहिये और ईश्वर के समान ही उसके जैसा उसका सुयोग्य पुत्र व शिष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये। हमें जन्म व मृत्यु को देखकर न तो अत्यधिक प्रसन्न होना है और न ही अपनी व अपने प्रियजनों की मृत्यु को देखकर निराश व दुःखी होना है। ईश्वर की व्यवस्था को जानकर हमें उसमें विश्वास कर अज्ञानवतावश होने वाले दुःखों को समझना व उनसे ऊपर ऊठना है। गीता में कहा है ‘जातस्य हि धु्रवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च’ अर्थात् जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु का होना निश्चित है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म होना भी धु्रव, अटल व निश्चित है।
जन्म व मरण का यह नियम हम सभी जीवों पर लागू होता है और सबके जीवन में जन्म व मृत्यु का समय अवश्य ही आना है। जब हमें पता है कि हमारी व हमारे सभी सगे सम्बन्धियों की मृत्यु होनी है तो हमें मृत्यु आने व होने पर दुःखी नहीं होना चाहिये। हमें जानना चाहिये कि मृत्यु के समय जीवात्मा शरीर से निकल कर ईश्वर की प्रेरणा से आकाश व वायुमण्डल में रहता है। ईश्वर उस मृतक जीवात्मा का उसके कर्मानुसार माता-पिता का चयन कर उनके द्वारा पुनर्जन्म प्रदान करता है। यह अटल सत्य व वैदिक सनातन सिद्धान्त है। वस्तुतः सभी के साथ ऐसा ही होना है। मृत्यु होने पर मृतक आत्मा के अपने परिवारजनों से सभी सम्बन्ध टूट जाते हैं। मृतक आत्मा को मृत्यु हो जाने पर अपने पूर्व सम्बन्धों व परिजनों का किंचित ज्ञान नहीं रहता। मृत्यु के बाद लगभग एक वर्ष व कुछ समय मनुष्य जन्म होने में लगता है। मृत्यु होने पर नया शरीर मिलता है। पुराने शरीर के मस्तिष्क, मन व बुद्धि आदि अंग होते हैं वह शरीर सहित सभी नष्ट हो जाते हैं। पुराना शरीर छूट जाने पर नया शरीर मिलता है जो 12 वर्ष तक बाल व किशोर अवस्था में होता है। अतः पुनर्जन्म में पूर्वजन्म की स्मृतियां विस्मृत हो जाती हैं। ऐसा होना मनुष्य के लाभकारी ही होता है। योगियों को इनका साक्षात्कार होना सम्भव होता है। अतः जिन परिवारों में कभी वियोग की कोई घटना हो तो ईश्वर के इस जन्म-मरण-पुनर्जन्म की व्यवस्था को विचार कर विषाद रहित रहना चाहिये। ईश्वर की उपासना व भक्ति में संलग्न रहना चाहिये। स्वाध्याय करने में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। दुःख कितना ही बड़ा क्यों न हो व वह कैसा भी हो, समय के साथ उसमें न्यूनता आती जाती है। कुछ समय बाद तो आहत मनुष्य उस दुःख को भूल ही जाता है। अतः जब कभी कोई वियोग आदि का दुःख आये तो मनुष्य को उससे विचलित नहीं होना चाहिये और वेद व वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित ईश्वर के ‘ओ३म्’ नाम के जप सहित गायत्री मन्त्र आदि के जप से अपने मन व आत्मा को शुद्ध कर उन्हें ईश्वर में लगाना चाहिये। इससे मनुष्य व परिवारजन अपने किसी प्रिय के वियोग के दुःख को कम व नष्ट कर सकते हैं।
हम सब को जीवन में परमात्मा और आत्मा आदि का सत्य ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। परमात्मा हमारे माता-पिता, आचार्य, मित्र, सखा, बन्धु, हितैषी, सुखदाता तथा प्रेरणाओं के स्रोत है। उनकी शरण में जाकर सबको उनकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना व भक्ति करनी चाहिये। इसी से हमारा कल्याण होगा। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
– मनमोहन कुमार आर्य