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संपादकीय

महापुरुषों का ये वर्गीकरण घातक होगा

संसार के जितने भी मत, पंथ, संप्रदाय हैं, उनका कोई ना कोई महापुरुष हुआ है। जिसे किसी संप्रदाय विशेष का प्रवर्तक कहा जा सकता है। संप्रदायों के इन प्रवर्तकों को लेकर लोगों ने उनकी चित्र पूजा आरंभ की। धीरे-धीरे जो महापुरुष जन कल्याण के लिए संसार में आया था, वह किसी विशेष वर्ग या संप्रदाय का होकर रह गया। उसके संप्रदाय के लोगों ने दूसरे संप्रदाय के लोगों से घृणा का व्यापार किया। इसलिए दूसरे वर्ग या संप्रदाय के लोगों के लिए पहले संप्रदाय के महापुरुष भी घृणा का पात्र हो गया। लोगों के इस प्रकार के आचरण से उनके महापुरुषों का स्तर गिरा। यद्यपि वह यह मानते रहे कि ऐसा करने से वह अपने प्रवर्तक पर बहुत बड़ा उपकार कर रहे हैं।

लोगों की इस प्रकार की मानसिकता का प्रभाव सब क्षेत्रों पर पड़ा । यहां तक कि राजनीति भी इससे अछूती नहीं रही। इसी कारण आज नेहरू किसी विशेष पार्टी के प्रधानमंत्री होकर रह गए हैं। इसी प्रकार अटल बिहारी वाजपेई भी किसी पार्टी विशेष तक सीमित कर दिए गए हैं । जबकि इन दोनों ही नेताओं ने अपने-अपने समय में संपूर्ण देश पर प्रधानमंत्री के रूप में शासन किया। देश के राजनीतिक लोगों की प्रवृत्ति बनती जा रही है कि जिस पार्टी की केंद्र में सरकार होगी, उसके महापुरुष को ही उसकी जयंती या पुण्यतिथि पर स्मरण किया जाएगा ? दूसरी पार्टी के महापुरुष या आदर्श नेता को उतना सम्मान नहीं दिया जाएगा। यह राजनीतिक सांप्रदायिकता का विष है। जो बहुत तेजी से फैल रहा है।

यह दुष्प्रवृत्ति अब सामाजिक क्षेत्र में भी बढ़त बनाती जा रही है। कुछ समय पहले तक हम जिन महापुरुषों को सबका मानकर उनका सम्मान करते थे, उनका भी बहुत तेजी से जातिवादीकरण या वर्गीकरण होता जा रहा है। बहुत दु:ख का विषय है कि समाज के जागरूक लोग भी इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। इसके विपरीत वह भी समाज में चल रही हवा के साथ बहते हुए दिखाई दे रहे हैं। जाति सम्मेलनों को देश में दुर्भाग्यपूर्ण नहीं माना जाता। उनमें बड़े-बड़े लोग जाकर मंचों से लोगों को संबोधित करते हैं। जातिवाद की बीमारी को बढ़ावा देते हुए लोगों की तालियां बटोरने के उद्देश्य से प्रेरित होकर जातिवाद की खाई को और गहरा कर आते हैं। यह कितना आश्चर्यजनक है कि देश में धर्म सम्मेलन करने को बुरा माना जाता है। यहां तक कि जो लोग जातिवादी सम्मेलनों में जाकर मंचों से लोगों को भावनाओं में बहने के लिए प्रेरित करते हैं, समाज की एकता को भंग करने के लिए उन्हें नए-नए सूत्र देते हैं, वे भी धर्म सम्मेलनों में जाना अच्छा नहीं मानते। उन्हें हिंदू सम्मेलन से घृणा है, जबकि वे किसी जाति के सम्मेलन में गर्व से अपनी उपस्थिति देते हैं।

इस प्रकार की प्रवृत्ति के पीछे इस्लाम के उन तथाकथित विद्वानों का भी योगदान है, जो हिंदू को तोड़ने में रुचि लेते हैं । इसी प्रकार ईसामसीह के मत के अनुयाई भी हिंदू को इसी प्रकार तोड़े रखने में आनंद लेते हैं। राजनीतिक दलों के नेता भी अपने-अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए जातिवाद को प्रोत्साहित करते हैं । इसका कारण यह है कि अधिकांश लोकसभा या विधानसभा सीटों पर प्रत्याशियों का चयन जातिवाद के समीकरण को देखकर किया जाता है। यही कारण है कि राजनीतिक लोग किसी क्षेत्र विशेष या विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र में अपने जातीय समीकरण को साधने के लिए मंचों पर जातिवाद को प्रोत्साहित करने की बातें करते हैं।

इसका अंतिम दुष्परिणाम हमारी राष्ट्रीय एकता पर पड़ रहा है। लोगों में तेजी से यह प्रवृत्ति बढ़ रही है कि शिवाजी महाराष्ट्र के थे, मराठा थे, इसलिए मैं उत्तर प्रदेश का होकर उनके प्रति क्यों सम्मान का भाव प्रकट करूं? इसी प्रकार महाराणा प्रताप राजस्थान के थे, राजपूत थे। मैं अमुक जाति का होकर उनके प्रति श्रद्धा भाव क्यों व्यक्त करूं ? महाराजा सूरजमल को जाट अपना बता रहे हैं। सरदार पटेल को पाटीदार अपना बताते हैं, गुर्जर अपना बताते हैं और उनका अपने-अपने ढंग से सम्मान करते हैं। धीरे-धीरे इन महापुरुषों को दूसरे लोग या तो छोड़ते जा रहे हैं या उनके प्रति उदासीनता दिखा रहे हैं। कल को इस प्रकार की उदासीनता या महापुरुषों को छोड़ने की प्रवृत्ति का अंतिम परिणाम क्या आएगा ? इस पर किसी को चिंता नहीं है ?

चुपचाप हिंदू समाज के लिए विष फैलाने का काम करने वाले इन लोगों की बुद्धि पर तरस आता है। इनको कौन समझाए कि चाहे वह शिवाजी थे, चाहे महाराणा प्रताप या छत्रसाल बुंदेला थे या फिर सरदार वल्लभभाई पटेल थे, इन सबने अपने-अपने काल में हिंदू समाज की सेवा करने के साथ-साथ राष्ट्र को मजबूत करने का काम किया। उन्होंने अपने जीवन काल में कभी यह नहीं देखा कि मेरे पास आने वाला व्यक्ति ब्राह्मण है ,ठाकुर है, गुर्जर है,जाट है, बनिया है, धोबी है या नाई है या जुलाहा है। उन्होंने केवल यह देखा कि जो भी व्यक्ति आ रहा था वह हिंदू था, सनातनी था। इतना ही नहीं, मानवीय आधार पर उन लोगों ने अन्य संप्रदाय के लोगों के साथ भी न्याय करने का प्रयास किया। भारत के इन्हीं सनातन मूल्यों के लिए वह जीते रहे और इतिहास रचते रहे।

महापुरुषों का जीवन प्रेरणा का स्रोत होता है। उनके जीवन मूल्य आने वाली पीढ़ियों का बिना पक्षपात के मार्गदर्शन करते रहते हैं। राम हम सबके हैं। वह किसी जाति के नहीं हो सकते। क्योंकि जिस समय राम हुए थे, उस समय जातिवाद नहीं था। न जाति व्यवस्था थी । यहां तक कि श्री कृष्ण जी के समय तक भी भारत की यही आदर्श व्यवस्था काम करती रही और उसके पश्चात के जितने महापुरुष हमारे हुए हैं , उन सबके भीतर भी जातिवाद का विष नहीं था। उन्होंने जाति की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर काम किया।

आज हमारा राष्ट्रीय दायित्व है कि हम अपने महापुरुषों के महान संस्कारों को लेने का प्रयास करें। उनके चरित्र से शिक्षा लेने का प्रयास करें। उनकी राष्ट्रीय भावना को अंगीकार करने का प्रयास करें। इस भावना से ऊपर उठें कि वीर तेजाजी केवल जाट थे। मां करणी केवल ठाकुर थीं। भगवान देवनारायण केवल गुर्जर थे। महर्षि वाल्मीकि केवल शुद्र थे। भगवान कृष्ण यादव थे। भोलेनाथ वनवासी थे और महिषासुर अमुक जाति के होने के कारण अमुक जाति के लोगों के देवता हैं ?

– डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं)

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