आचार्य जी ने अपने यौवन काल से ही एक ऊंचे और तपस्वी का जीवन व्यतीत किया है । नियम और व्रतों का पालन जिस श्रद्धा और कड़ाई से ये करते हैं वैसा हमने आज तक दूसरे किसी व्यक्ति को नहीं करते देखा । जिन लोगों ने आचार्य जी को निकट से देखा है वे इस बात की सत्यता से भलीभांति परिचित होंगे । सन् १९५० से पूर्व आचार्य जी गुरुकुल झज्जर के पुराने कुएं के पास बनी गुफा में कई घण्टे ध्यानमग्न रहते थे । इनका यह अभ्यास कई वर्षों तक चलता रहा । एक बार आपको सांप ने भी काट लिया था किन्तु नमक व मीठा न खाने का स्वभाव होने से उसका विशेष प्रभाव नहीं हुआ । जिस तरह का त्यागी, तपस्वी और व्रती जीवन इनका है उसी तरह की दिनचर्या और जीवन की अपेक्षा ये ब्रह्मचारियों से भी रखते रहे हैं । वास्तव में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तलवार की धार पर चलने के समान तप है । यह तभी सफल होता है जब व्यक्ति हर क्षण इसके लिये चौकन्ना रहे ।
चरित्र वह थाती है जो व्यक्ति व राष्ट्र को आगे ले जाती है । ब्रह्मचर्य उसकी आधारभूमि है । इस कारण आचार्य जी ने गुरुकुल संभालने के कुछ दिन बाद ही जगह-जगह पर स्कूल व कालेजों में भी ब्रह्मचर्य शिक्षण शिविर लगाने प्रारम्भ कर दिये थे । सन् १९४७ की डावांडोल स्थिति के कारण तथा स्वयं उधर लगे रहने के कारण इनके शिविरों के कार्य में व्यवधान आ गया था किन्तु इन्होंने अब फिर वह नये सिरे से आरम्भ किया । ब्रह्मचारी हरिशरण जी इन शिविरों के आयोजन में प्रमुख भूमिका निभाते थे । वे स्वयं व्यायाम, आसन और लाठी, भाला आदि प्रशिक्षार्थियों को सिखलाते और आचार्य जी महाराज उनको उपदेश देते और ब्रह्मचर्य व चरित्र का महत्त्व बतलाते । शिविरार्थियों को नियमित समय पर प्रातः चार बजे उठाना, शौचादि से निवृत हो व्यायाम व संध्या यज्ञादि कराना सब बहुत नियमित होता । आचार्य जी के तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजस्वी वाणी का मोहक प्रभाव होता । जो एक बार इन शिविरों में आ गया वह सदा के लिये इनका अनुयायी बन गया । इन शिविरों में ब्रह्मचर्य की शिक्षा देकर नवयुवकों को सच्चरित्र बनाया और उनको नैतिक उन्नति के मार्ग पर लगाया । इस शिक्षा का प्रभाव केवल विद्यार्थियों पर ही नहीं अपितु अध्यापक, प्र्धानाध्यापक और प्रिंसिपलों पर भे बहुत अधिक पड़ा । उस समय ऐसे अनेक स्कूल थे जो इसी प्रभाव के कारण गुरुकुलों की तरह चलते थे । इमलौटा आदि स्कूलों में गुरुकुलों जैसे ही नियम बन गये थे । दिल्ली, राजस्थान व हरयाणा में सैंकड़ों ऐसे अध्यापक हैं जिन्होंने इन शिविरों में प्रशिक्षण लेकर हजारों विद्यर्थियों के जीवन सुधारे हैं । ये सब अध्यापक आचार्य जी के विशेष सहायक बने और इन्होंने इनका सदा भरपूर साथ दिया । इन शिविरों के कारण पढ़े-लिखे लोगों की एक ऐसी शक्ति (फोर्स) खड़ी हो गई जो हर कार्य में सदा आगे रहती । इनमें श्री सुखदेव शास्त्री आसन, मास्टर रघुवीरसिंह जी छारा, मा० लज्जेराम जी समसपुर, मा० हरिसिंह ठींठ मिलकपुर, मा० महासिंह किड़हौली, स्व० पं० शिवकरण जी डोहकी, मा० भूपसिंह भागी, मा० राजेराम जी खातीवास, पं० नानकचन्द जी डालावास, सरदार इन्द्रसिंह जी, मा० कुन्दनसिंह जी रासीवास, मा० सरदारसिंह ठीठ मिलकपुर, प्रिंसीपल भगवानसिंह फरमाणा, प्रिंसीपल होशियारसिंह जी बाजीतपुर, मा० रोहतास माजरा डबास दिल्ली आदि विशेष उल्लेखनीय हैं ।
इन शिविरों के कार्यक्रम को स्थायित्व देने और इनमें आने वाले प्रशिक्षणार्थियों के स्वाध्याय के लिए आचार्य जी ने “ब्रह्मचर्य के साधन” (११ भाग) पुस्तक लिखी । इनकी ‘ब्रह्मचर्यामृत’ नामक पुस्तक तो इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उसके लगभग दस संस्करण निकालने पड़े । लाखों नवयुवकों ने उसको पढ़ा और मार्गदर्शन पाया है । इन शिविरों का इतना अधिक प्रचार था कि सैंकड़ों नवयुवक इनमें भाग लेने के लिये उतावले रहते थे । इन शिविरों की शिक्षा ने अनेक ऐसे नवयुवकों के जीवन भी सुधारे हैं जो किशोरावस्था से ही कुटेवों में पड़कर अपने जीवन का सर्वनाश कर चुके थे, सर्वथा निराश और हताश थे । ऐसे युवकों के लिये ये शिविर जीवनदायिनी संजीवनी सिद्ध हुए । कालान्तर में आचार्य जी गुरुकुल व समाज के कार्यों में अधिक व्यस्त हो गये और शिविरों की परम्परा शिथिल पड़ गई । ब्रह्मचारी हरिशरण जी भी प्रचार के लिए उड़ीसा चले गये । वहां उन्होंने ईसाई मिशनरियों का मुकाबला किया और हजारों गरीब लोगों को धन के लालच में ईसाई बनने से बचाया । वहीं जादू के खेल दिखाते हुए गले में पड़े काले नाग ने (सांप) ने उनको काट लिया और वे हम से विदा हो गये । आचार्य जी पर भी अनेक कार्य आ पड़े । आज भी इस प्रकार के शिविरों की बहुत मांग है । सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने के लिये युवकों को तैयार करने का यह एक बहुत उत्तम माध्यम है । आचार्य जी ने इस प्रकार के छोटे-बड़े सैंकड़ों शिविरों का आयोजन किया था ।
पुस्तक : स्वामी ओमानंद सरस्वती जीवन चरित
लेखक : श्री वेदव्रत शास्त्री जी
प्रस्तुति : अमित सिवाहा
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