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चौधरी मातूराम का जनेऊ संघर्ष

लेखक – जगतसिंह हुड्डा
स्त्रोत – देहात रत्न चौधरी मातूराम आर्य जीवन वृत

प्रथम पीढ़ी के आर्यसमाजी

चौ० मातूराम ने चौथी पास करने के बाद ‘पढ़ाई छोड़ दी’ और 16 वर्ष की आयु में ही इस क्षेत्र में पहले यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण कर आर्य समाजी बने और समाज में फैली कुरीतियों का पर्दाफाश करने का निश्चय किया। यह घटना दिसम्बर 1881 की है। यह घटना लाहौर में 1877 में आर्य समाज की स्थापना के बाद की है। उन दिनों आर्य समाजी बनना बुरा समझा जाता था और आर्यो का मजाक करने के लिए कहा जाता था। ‘भाई तू क्या बनगया वह कहता मैं तो आर्य बन गया और फिर उन्हें कहा जाता था कि यार तू नारा ।। बैल।। क्यों नहीं बन गया खेती कर लेते।” लेकिन चौ० मातूराम ने इन सब बातों को दरकिनार करते हुए जनेऊ धारण किया ।

सांघी में हुड्डा खाप की पंचायत

30 अक्तूबर 1883 को महर्षि दयानन्द का निर्वाण हुआ तो सनातनी बहुत खुश हुए और सन् 1883 के दिसम्बर मास में गांव खाण्डा जो कि दहिया खाप का प्रमुख गांव है यहां के एक सनातन धर्मी स्वामी जयरामदास के शिष्य फूला बह्मचारी हुए जो कि उस समय बहुत ही प्रतिष्ठित व्यक्ति थे (जिसको कूड़ा भी कहते थे) ने आर्य समाज के बढ़ते हुए प्रचार का सख्त विरोध किया और सांघी की पंचायती चौपाल में हुड्डा खाप के 12 गांव की पंचायत ले जाकर मातूराम से जनेऊ (यज्ञोपवीत) उतारने के लिए कहा। ज्ञात रहे कि सर्व हुड्डा खाप की सभी पंचायते इसी पंचायती चौपाल में होती थी। ऐसी ही एक चौपाल किलोई गांव में भी है।

यह घटना लाला लाजपतराय के रोहतक आने से पहले की है। पाखण्डी जाटों को शुद्र मानते थे और मातू राम के जनेऊ लेने पर कहने लगे, “पाप हो गया, मातूराम ने जनेऊ नहीं उतारा, तो प्राकृतिक प्रकोप आ जाएगा।”
“भगवान नाराज हो जाएगा। किसान का बुरा हाल हो जाएगा।

सूखा पड़ेगा या बाद आएगी या अन्य कोई प्राकृतिक प्रकोप । “ इस पंचायत में चौ० मातूराम जी तलवार ले आए थे और कहा जनेऊ नहीं उतरेगा। पंचायत ने उनका बहिष्कार कर दिया और बहिष्कार के बाद मालूराम हुड्डा गौत्र के ही गांव धामड़ गए जो सांघी से 10 कि.मी. दूर है ज्ञात रहे कि धामड गांव सांघी बारहे में नहीं आता था यह हुड्डा खाप के किलोई बारहे में आता है। और धानकों के यहां खाना खाया और उसके बाद खाना खिलाया। यही कारण है कि उन 1967 में जब हरियाणा राज्य अलग होने के बाद पहला चुनाव हुआ था तो स्वामी आत्मानन्द जी जो रोहतक जिले कांग्रेस के प्रधान थे ने दलितों की भरी सभा में ये कहा कि केवल चौ० रणबीर सिंह को जितवाओं और ज्यादा से ज्यादा मत इनको डलवाओं क्योंकि मै जब भी इनके घर जाता हूँ मुझे धानक इनके घर पर मिलते हैं और ये उनकी सेवा में लीन रहते हैं और यह परम्परा चौ० मातूराम के समय से जारी है जो अब भी कायम है। बाकि किसी का समर्थन स्वामी आत्मा नन्द ने नहीं किया था। स्वामी आत्मा नन्द जी धानक बिरादरी से सम्बन्ध रखते थे और अपनी बिरादरी में उनका बहुत सम्मान था।

खिड़वाली की दूसरी पंचायत

सांघी पंचायत में चौ० मातूराम के बहिष्कार होने की बात आग की तरह पूरे इलाके में फैली तो इसलिए कुछ दिन बाद पड़ोसी गांव खिड़वाली में दूसरी पंचायत हुई, क्योंकि सांघी की पंचायती चौपाल जो कि बाजार में थी में जगह कम होने के कारण इस पंचायत को खुले में करने का निर्णय हुआ। यह पंचायत गांव खिड़वाली में जहां पर गऊशाला है उस स्थान पर हुई थी। बाद में इसी स्थान पर गऊशाला का निर्माण हुआ। इस पंचायत में दूर-दूर से लोग काफी संख्या में आए। बहस शुरू हुई। सनातनियों ने मातूराम को जनेऊ उतारने के लिए कहा। हालांकि फूला ब्रह्मचारी का उस समय बहुत सम्मान था और सनातन धर्म के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। इस बार फूला ब्रह्मचारी ने काशी से किसी पण्डित को बुलवाया था। यह घटना दिसम्बर 1883 (सर्द ऋतु) की है।

मातूराम ने पंचायत में क्या कहा-

“जनेऊ कीकर का डाला नहीं है अक इसमें जनेऊ डाल रखा है। मातू राम के गले में है, गर्दन उतर सकती है जनेऊ नहीं उतर सकता।”
यह जनेऊ लकड़ी पर नहीं टंगा है यह गर्दन में है जनेऊ तभी उतर सकता है, जब गर्दन कट जाए। चौ० मातूराम ने कहा, “मै तो किसी के घर बिना बुलाया जाता नहीं उन्हीं के घर जाता हूँ जो इज्जत से बुलाते है। उन्हीं के घर हुक्का-पानी पीता हूँ जो घोड़ी की लगाम पकड़ कर घोड़ी से उतरने के लिए कहते है और स्वागत करते हैं।”

सब तरफ सन्नाटा छा गया। खडवाली के कुछ लोग खड़े हो गए और कहने लगे, “चौधरी साहब, हमारे घर चलो और हुक्का-पानी पीओ और जिसका जो जी चाहे सो कर ले।

बस फिर क्या था, चारों तरफ शोर मच गया। पंचायत बिखर गई, बहुत से लोगों ने जनेऊ धारण किया। आर्य समाज का सब तरफ बोलबाला हो गया। इस घटना के बाद आर्य समाजियों को बहुत बल मिला और उनकी संख्या बढ़ने लगी।

अन्ततः हुड्डा खाप की पंचायत निराश होकर चली गई। मातूराम नहीं माने (ज्ञात रहे कि हुड्डा खाप की उस समय 42 गांवों की पंचायत होती थी जो अब 46 गांव की है। चौगामा इसमें शामिल नही था)। इसके बाद यही फूला (कूड़ा) आहूलाना गांव में जाकर (जो कि गठवाला खाप का मुख्यालय है) गठवाला खाप की पंचायत कर गांव-भगाण में चौधरी रामनारायण सिंह (पिता पूर्व मंत्री चौ० लहरी सिंह एवं पडदादा चौ० जितेन्द्र मलिक सांसद) के गले से जनेऊ उतरवाने हेतू जाता है तो चौ० रामनारायण सिंह ने सोचने का पंचायत से समय मांगा। पुनः पंचायत आने पर चौ० रामनारायण सिंह ने कहा कि पहले आपकी दहिया खाप के पीरूसिंह व मूडतोड़ के जुगलाल आदि ने भी तो जनेऊ धारण किया है पहले मंटिडू व फरमाणा जाकर उनके गले से जनेऊ उतरवायों इस प्रकार से फूला बह्मचारी की योजना असफल हो गयी ।।

इस घटना के बाद देहातों में एक गीत ब्याह-शादियों में व पनघट पर बड़े प्रेम और श्रद्धा के साथ महिलाओं के द्वारा गाया जाता था। उसकी एक टेक इस प्रकार से है

घर-घर बांटो मिठाई
रल-मिल गाओ बधाई
हे मातूराम आर्य हो गया ।।

रोहतक में आर्य समाज की स्थापना

चौ० मातूराम के जनेऊ धारण करने के कुछ समय बाद ही सन् 1881 में रोहतक जिले में आर्य समाज की स्थापना हुई। आर्य समाज की स्थापना करने में चौ० मातूराम का मुख्य योगदान था इनके अतिरिक्त चौ० पीरू सिंह मटिण्डू, चौ० देवी सिंह बोहर एवं चौ० रामपत सिंह की भी मुख्य भूमिका थी। चौ० मातूराम भी रोहतक जिला आर्य समाज के प्रधान रहे। रोहतक, महम, झज्जर व सांघी में आर्य समाज की स्थापना सबसे पहले हुई। खिड़वाली पंचायत के बाद आर्य समाजियों की संख्या दहाई के आकड़े को पार कर 250 हो चुकी थी। इस संख्या को बढ़ाने में देहाती क्षेत्र में चौ० मातूराम, पं० बस्ती राम, चौ० देवी सिंह व शहरी क्षेत्रों में लाला लाजपतराय, महात्मा हंसराज व पं० लखपतराय प्रमुख थे।

चौ० मातूराम आर्य समाजी है। लाला जी सांघी गए व समाज के प्रचार की सन् 1884 में लाला लाजपत राय यहां आए उनको पता लगा कि बात की। रोहतक में लाला लाजपतराय के आने से पहले आर्य समाज की स्थापना हो चुकी थी। 1884 में लाला लाजपत राय यहां आर्य समाज के सेक्रेटरी बने और आर्य समाज में नए प्राण फूंके । चौ० मातूराम सांघी, चौ० पीरू सिंह मटिण्डू, चौ० रणपत सिंह आदि स्थानीय नेताओं ने उनका भरपूर साथ दिया। आर्य समाज के प्रचार दूर-दूर तक गांव में जाकर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ प्रचार करने लगे। आर्य प्रचारकों ने देश भक्ति के मनोहर व्याख्यान देकर यहां राजनैतिक जागरण की पृष्ठभूमि तैयार की। शीघ्र ही रोहतक जिले के लोगों विशेषकर जाटों में नवजागरण के लक्षण दिखाई देने लगे। लाला लाजपतराय दो वर्ष यहां रहने के बाद 1886 में हिसार चले गए। इन दो वर्षो में आर्य समाज का प्रभाव बहुत बढ़ा, शहरी क्षेत्र में लाला जी ने मोर्चा सम्भाला तो देहात में चौ० मातूराम व पं० बस्ती राम ने ।

फरमाणा में मातूराम द्वारा धार्मिक शास्त्रार्थ में भाग लेना

गांव फरमाणा रोहतक जिले का प्रमुख गांव है, जो आजकल सोनीपत में है हुड्डा खाप का एक तपा है। जिसको मूडतोड़ (अठगांमा) के नाम से जाना जाता है यहां गहलावत गौत्र के जाट निवास करते है, इसी गांव के लाला लच्छीराम द्वारा सनातन धर्म व आर्य समाज के जलसे रखे। सनातन धर्म के प्रसिद्ध पंडित काशी से बुलाए गए थे। आर्य समाज की तरफ से यज्ञोपवीत धारण करने वाले आठों प्रमुख व्यक्ति जिसमें चौ० मातूराम सांघी इसी गांव के चौ० जुगलाल भी शामिल है उपस्थित थे। इसके अतिरिक्त लाला लच्छीराम (फरमाना) श्री मुंशीराम (दिल्ली) मास्टर नाथूराम (लोवा माजरा) चौ० जयराम (निरथान) व आर्य समाज के प्रसिद्ध भजनोपदेशक पं० बस्तीराम व पं० रामचन्द्र देहलवी शामिल थे। इन सबने आर्य समाज का जोर-शोर से प्रचार किया और अपने जलसों में ऐलान किया कि वे सनातन धर्म वालों से शास्त्रार्थ करना चाहते है। लेकिन सनातन धर्मियों का हौंसला नहीं हुआ कि वे शास्त्रार्थ करें और सनातन धर्म का खण्डन सुनने के बाद मायूस होकर बगैर शास्त्रार्थ किए अपनी सभा समाप्त करके चले गए। इस सभा के बाद आर्य समाज का प्रचार इलाके में बड़े जोर से शुरू हुआ। इस प्रकार से चौ० मातूराम अनेक स्थानों पर आर्य समाज के कार्यक्रमों में जाते थे।

सांघी में आर्यसमाज का उत्सव

इसके बाद 30-31 जुलाई 1904 को सांघी में आर्य समाज का जलसा करवाया जिसमें ग्रामीणों के मसीहा डा० रामजीलाल हुड्डा भी (हिसार) से विशेष रूप से पधारे थे। उस समय तक आर्य समाज का प्रभुत्व ज्यादा नहीं था, लेकिन धीरे-धीरे बढ़ रहा था। पांखडियों ने इसके बाद बवाल कर दिया।

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