मनुष्य एक ज्ञानवान प्राणी होता है। मनुष्य के पास जो ज्ञान होता है वह सभी ज्ञान स्वाभाविक ज्ञान नहीं होता। उसका अधिकांश ज्ञान नैमित्तिक होता है जिसे वह अपने शैशव काल से माता, पिता व आचार्यों सहित पुस्तकों व अपने चिन्तन, मनन, ध्यान आदि सहित अभ्यास व अनुभव के आधार पर अर्जित करता है। मनुष्य एक एकदेशी व अल्पज्ञ प्राणी होता है। अतः इसका ज्ञान सीमित होता है। स्वप्रयत्नों से उपार्जित सभी ज्ञान प्रामाणित नहीं होता। ज्ञान की प्रामाणिकता की पुष्टि उसके वेदानुकूल होने पर होती है। प्राप्त ज्ञान के सत्य व असत्य की परीक्षा इस कार्य के लिए बने सिद्धान्तों का उपयोग करके की जाती है। सत्य ज्ञान का सृष्टिक्रम के अनुकूल तथा तथ्यों पर आधारित व तर्क एवं युक्तियों से सिद्ध होना आवश्यक होता है। तर्क ही एक प्रकार से ऋषि व विद्वान होता है जिसकी सहायता से हम किसी बात के तर्कसंगत व सत्य होने की परीक्षा कर उसे स्वीकार या अस्वीकार करते हैं। यही विधि देश-देशान्तर में सर्वत्र अपनाई जाती है।
धर्म व मत-पन्थों की मान्यताओं के सन्दर्भ में भी सत्य की परीक्षा करने के सिद्धान्त लागू होते हैं। पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद इतिहास में परा व अपरा विद्याओं वा ज्ञान के सत्यासत्य होने की परीक्षा ऋषि दयानन्द ने की थी और उन्होंने सभी धर्म व समाज विषयक मान्यताओं की समीक्षा व परीक्षा कर सत्य को प्राप्त कर उसे देश की जनता व समाज से साझा किया था। उन्होंने वेदाध्ययन तथा अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर जिन मान्यताओं को सत्य जाना था, उसका उन्होंने देश देशान्तर में प्रचार भी किया। इसका परिणाम यह हुआ कि देश से अविद्या दूर होने के साथ विद्या की वृद्धि व ज्ञान का प्रकाश हुआ। आज हम आधुनिक भारत व अपने समाज को मध्यकालीन समाज से कोसों दूर पाते हैं। मध्यकाल में हमारा देश व समाज धार्मिक एवं सामाजिक अन्धविश्वासों, पाखण्डों, अनेकानेक सामाजिक कुरीतियों से आबद्ध हो गया था जिससे देश व समाज को ऋषि दयानन्द ने ही बाहर निकाला है। आज का समाज ज्ञान व विज्ञान से युक्त तथा विद्या से भी आंशिक रूप से युक्त होने सहित कुछ-कुछ अज्ञान व अविद्या से भी युक्त है। आज के समाज का बहुत बड़ा भाग ज्ञान व विद्या प्राप्त करने के साधनों से दूर है और जिन मनुष्यों को ज्ञान प्राप्ति के अवसर मिलते भी हैं, वह सभी लोग अपने हित व स्वार्थों के कारण उस ज्ञान विज्ञान व विद्या के सिद्धान्तों को जानने का प्रयत्न नहीं करते और न ही उन्हें अपनाते हैं। अपने स्वार्थों पर विजय प्राप्त किये बिना हम सत्य व सत्य ज्ञान से युक्त आचरण को प्राप्त नहीं कर सकते। सत्य को जानना, प्राप्त करना, सत्य का आचरण करना व दूसरों से करवाना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इसे प्राप्त होकर ही मनुष्य दुःखों से सर्वथा दूर तथा कल्याण को प्राप्त होते हंै। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हम अपने पूर्वज ऋषि व मुनियों के जीवन सहित राम, कृष्ण एवं दयानन्द आदि महापुरुषों के जीवन में भी देखते हैं। इन महापुरुषों से प्रेरणा ग्रहण कर हम अपने जीवन को अविद्या व दुःखों से मुक्त करने सहित जीवन को उत्तम व श्रेष्ठ कर्मों से युक्त बनाकर जीवन को सफल कर सकते हैं।
मनुष्य जीवन के उद्देश्य पर विचार करते हैं तो यह विद्या की प्राप्ति ही सिद्ध होता है। बिना विद्या के मनुष्य पशुओं के समान अज्ञान से युक्त ही होता है। ज्ञान व विद्या मनुष्य को मनुष्यता व देवत्व प्रदान करते हैं। जो मनुष्य सत्य ज्ञान वा विद्या से विहीन होता है वह अच्छा व उत्तम मनुष्य नहीं कहा जा सकता। ज्ञान विज्ञान युक्त मनुष्य जो सत्य व श्रेष्ठकर्मों का आचरण करता है वही मनुष्य प्रशंसनीय एवं यशस्वी होता है तथा देश व समाज में आदर व सम्मान पाता है। अतः विद्या प्राप्ति में सभी मनुष्यों को तत्पर रहना चाहिये। यह जान लेने के पश्चात यह प्रश्न होता है कि विद्या प्राप्ति के साधन क्या हैं? इसका उत्तर है कि हमें शब्द, अर्थ, इनका परस्पर संबंध जानने के साथ संस्कृत आदि भाषाओं के व्याकरण को जानकर वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करना होता है। वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ही विद्या की प्राप्ति होती है। आधुनिक विज्ञान तो हम विज्ञान की पुस्तकों में पढ़ सकते हैं परन्तु उससे मनुष्य सभ्य, शिष्ट, संस्कारी तथा सज्जन प्रकृति व स्वभाव का बनता हो, यह आवश्यक नहीं है। मनुष्य को सुसंस्कृतज्ञ व संस्कारी बनाने के लिये उसका वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करना आवश्यक होता है। ऐसा ही प्राचीन काल से होता आया है। यही कारण था कि वेदाध्ययन से ही हमारे देश में ऋषि परम्परा चली और लोग ऋषियों से ज्ञान विज्ञान व आचरण की शिक्षा लेकर सभ्य व संस्कारी मनुष्य बनते थे जिससे देश व समाज में एक सुखद एवं समरसता का वातारण बनता था। समाज अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों से रहित होता था और सर्वत्र सुख व शान्ति का वातावरण हुआ करता था। आज भी यदि वेदों के सत्य अर्थों का प्रचार हो और सभी मनुष्य व सम्प्रदाय सत्य को स्वीकार कर वेदों की शरण में आ जाये, तो हमारी पृथिवी स्वर्ग का धाम बन सकती है, ऐसा वैदिक समाज शास्त्री विद्वान स्वीकार करते हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही ऋषि दयानन्द ने अपना जीवन वेद, वैदिक साहित्य, वेद के सत्यार्थ, ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने, ईश्वर की उपासना की सत्य एवं कारगर विधि, मनुष्य के भिन्न भिन्न अवस्थाओं में कर्तव्य आदि को जानने व उनके प्रचार में लगाया था। उसे जान लेने के बाद उन्होंने विश्व के कल्याण के उद्देश्य से ही इन विचारों व मान्यताओं का देश-देशान्तर में प्रचार प्रसार किया और इसी के लिये उन्होंने अपने जीवन का बलिदान भी किया। अतः जीवन की उन्नति व सफलता के लिये सभी मनुष्यों को इसी मार्ग को अपनाना चाहिये। इसी पर चलकर उन्हें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। सभी मनुष्य सुख व शान्ति से जीवन व्यतीत करते हुए स्वस्थ एवं बलवान होकर दीर्घायु को प्राप्त कर मोक्षगामी वा मोक्ष के निकट व निकटतर हो सकते हैं। यही मानवमात्र के लिये अभीष्ट व प्राप्तव्य है।
वेदों से अविद्या दूर होती है इस बात को जानने के लिये यह जानना आवश्यक है कि वेद मनुष्य रचित रचना व ज्ञान न होकर सृष्टि के आरम्भ में सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा द्वारा स्वज्ञान व सामथ्र्य से अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों को दिया गया ज्ञान है। परमात्मा सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान तथा इस सृष्टि का कर्ता व धर्ता है। अतः परमात्मा को इस सृष्टि के बारे में समस्त व पूर्ण ज्ञान है। ऐसा ही पूर्ण ज्ञान वेदों में मिलता है। वेदों का ज्ञान भ्रान्तियों से रहित व सभी भ्रान्तियों को दूर करने वाला होता है। यह ज्ञान ईश्वर ने चार ऋषियों को किस विधि से दिया और उन ऋषियों ने इसका शेष मनुष्यों तक प्रचार किस प्रकार से किया, इसे ऋषि दयानन्द के विश्व प्रसिद्ध महनीय ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर जाना जा सकता है। वेदों की तरह ही सत्यार्थप्रकाश भी अविद्या को दूर करने वाला ग्रन्थ है। गुजरात प्रान्त में जन्में और संस्कृत के शीर्ष विद्वान होकर भी ऋषि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की हिन्दी में रचना व प्रचार कर देश की सामान्य जनता के प्रति परोपकार का महान कार्य किया है। यदि यह ग्रन्थ हिन्दी में न होता तो इससे देश के करोड़ों लोगों को जो लाभ हुआ है वह न होता। इससे एक सामान्य व साधारण मनुष्य भी धर्म विषयक गहन तत्वों को जान सकता है व असत्य को छोड़ सकता है। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर मनुष्य की सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती हैं। आत्मा सत्य ज्ञान से प्रकाशित हो जाता है। ईश्वर व जीवात्मा का ठीक-ठीक यथार्थ ज्ञान होता है।
ज्ञान व विज्ञान के क्षेत्र में सबसे अधिक महत्व ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना ही है। यह ज्ञान मत-मतान्तरों के अविद्यायुक्त ग्रन्थों से नहीं होता। इस आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति मनुष्य को वेद, उपनषिद, दर्शन तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों से ही होती है। मनुष्य की अविद्या दूर हो जाने पर वह सत्कर्मों व सत्याचरण में प्रवृत्त होता है। सत्याचरण व ईश्वर की सत्य विधि से उपासना ही मनुष्य का सत्य धर्म व कर्तव्य होता है। यह भी ज्ञातव्य है कि संसार में धर्म एक ही है और वह सत्य वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का नाम है। वेद के सभी सिद्धान्त एवं मान्यतायें असत्य व अज्ञान से रहित तथा सद्ज्ञान वा विद्या से युक्त हैं। वेदों का अध्ययन कर तथा ऋषि पतंजलि प्रणीत योगदर्शन के अभ्यास से मनुष्य ध्यान व समाधि को प्राप्त होकर ईश्वर का प्रत्यक्ष व साक्षात्कार तक कर सकता है। ईश्वर का साक्षात्कार होने पर ही मनुष्य की समस्त अविद्या दूर होती है। वह जन्म व मरण के चक्र से मुक्त होकर ईश्वर के सान्निध्य में निवास करने की अवस्था मोक्ष को प्राप्त होता है। यही वेदाध्ययन या वेदप्रचार का महत्व है। ईश्वर व आत्मा का ज्ञान, वेद विहित यौगिक विधि के आचरण, अभ्यास व व्यवहार से इतर अन्य किसी साधन से प्राप्त प्राप्त नहीं होता। वैदिक जीवन शैली वा जीवन पद्धति ही संसार में श्रेष्ठतम जीवन शैली है। इसी की शरण में आकर मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। इसी कारण से वैदिक संस्कृति को प्रथम विश्ववारा संस्कृति कहा गया है। संसार में विश्व के सभी लोगों की वरणीय एक ही संस्कृति वैदिक संस्कृति है जो मनुष्य का पूर्ण विकास कर उसे जन्म व मृत्यु के बन्धनों से मुक्त कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कराती है। यह लाभ वेदाध्ययन व वेदप्रचार से अविद्या दूर होने पर प्राप्त होता है। इसीलिये हमने इसे अपने लेख का विषय बनाया। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख की विषय-वस्तु से लाभ को प्राप्त होंगे। ओ३म् शम्।
– मनमोहन कुमार आर्य