आर्यसमाज एक अद्वितीय धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय संगठन है
संसार में किसी विषय पर सत्य मान्यता एक व परस्पर पूरक हुआ करती हैं जबकि एक ही विषय में असत्य मान्यतायें अनेक होती व हो सकती हैं। संसार में ईश्वर व धर्म = अध्यात्म विषयक मान्यतायें भी एक समान व परस्पर एक दूसरे की पूरक होती हैं। इसी कारण से संसार में ईश्वर एक ही है यद्यपि उसके अनेकानेक गुण, कर्म व स्वभावों के कारण उसके अनेक नाम हैं। ईश्वर का मुख्य नाम ‘‘ओ३म्” है और उसके अन्य सब नाम गौणिक, उसके कर्मों तथा उससे हमारे सम्बन्धों के सूचक हैं। श्रेष्ठ कर्मों के समुच्चय व क्रियाओं को धर्म की संज्ञा दी जाती है। अग्नि का गुण दाह, प्रकाश वा रूप आदि होता है। यही अग्नि का धर्म है। इसी प्रकार वायु का गुण स्पर्श है। वायु का हम श्वास लेने में उपयोग करते हैं। अतः प्राणियों को श्वास लेने में आवश्यक पदार्थ को वायु कहा जाता है।
वायु का धर्म है कि वह प्राणियों को श्वास लेने में सहायता दे। इसका यह गुण ही उसका धर्म है। इसी प्रकार से मनुष्य का धर्म भी सत्य ज्ञान व उस पर आधारित क्रियायें वा कर्म होते हैं जिससे मनुष्य का अपना तथा दूसरे मनुष्यों व प्राणियों का कल्याण होता है। धर्म का शब्दार्थ है, मनुष्य द्वारा धारण करने योग्य गुण, कर्म व स्वभाव। सब मनुष्यों को सत्य अर्थात् सत्य गुणों व कर्मों को धारण करना चाहिये। इसी से मनुष्य का कल्याण होता है। अतः सत्य गुणों को धारण करना ही मनुष्य का धर्म होता है। मत-मतान्तर तो अनेक हो सकते हैं व हैं भी, परन्तु धर्म सभी मनुष्यों का एक ही होता है।
ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, सर्वव्यापक, अनादि, नित्य व सृष्टिकर्ता है। यह विचार व मान्यता सत्य है, इस कारण इसका प्रत्येक मनुष्य को मानना धर्म है। जो ऐसा नहीं करता व नहीं मानता वह धार्मिक कदापि नहीं कहा जा सकता। सत्य व सत्यधर्म को न मानने वाला मनुष्य आकृति मात्र से ही मनुष्य होता है परन्तु गुण, कर्म व स्वभाव की दृष्टि से उसे सदाचार व सज्जन मनुष्य नहीं कहा जा सकता। जो मनुष्य व संगठन सत्य को स्वीकार न करें, उसका अस्तित्व देश व समाज के लाभ के लिये न होकर उनके लिये हानि करने वाला सिद्ध होता व हो सकता है। अतः मनुष्य व समाज को अपने सभी कार्यों में सत्य को सर्वोपरि स्वीकार करना चाहिये। आर्यसमाज ऐसा ही संसार का एकमात्र संगठन है जो मनुष्य व समाज में प्रत्येक विचार व मान्यता की परीक्षा कर सत्य का स्वीकार व असत्य का त्याग करता व कराता है। इस कारण से संसार में कोई संगठन आर्यसमाज के समान महान उद्देश्यों से युक्त दृष्टिगोचर नहीं होता।
आर्यसमाज में आकर मनुष्य की बुद्धि का अधिकतम वा पूर्ण विकास होता व हो सकता है और वह देश व समाज के लिये लाभदायक एवं हितकर मनुष्य सिद्ध होता है। सत्य को मानने व आचरण में लाने के कारण संसार के रचयिता व पालनकर्ता ईश्वर का प्रेम, स्नेह, आशीष तथा कृपा भी सच्चे मनुष्य वा आर्यसमाज के निष्ठावान अनुयायी को प्राप्त होती है। उसका शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक विकास होता है। आत्मिक विकास केवल और केवल सत्य को मानने व उसके अनुसार आचरण करने वालों का ही होता है अन्यों का नहीं, ऐसा हमें वैदिक साहित्य को पढ़कर व समाज में लोगों का जीवन देखकर अनुभव होता है।
आर्यसमाज से जुड़कर हम सीधे परमात्मा व उसके सब सत्य विद्याओं से युक्त ज्ञान ‘‘चार वेदों” से जुड़ जाते हैं। परमात्मा से तो संसार के बहुत से लोग जुड़े हैं परन्तु सबमें यह विशेषता नहीं है कि वह ईश्वर के जिस स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभावों को मानते हैं उनकी सत्यता की परीक्षा कर सकें व उनके आचार्यों द्वारा ऐसा किया गया व किया जाता हो। ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुण, कर्म व स्वभावों की परीक्षा आर्यसमाज के साथ जुड़कर करने का अवसर मिलता है तथा ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उसके अनुसार ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने का अवसर भी सुलभ होता है। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने व उसकी उपासना करने से अनेक लाभ होते हैं। ईश्वर एक अनादि व नित्य सत्ता है जो संसार में अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगी।
हम जीव हैं और हम भी अनादि व नित्य सत्ता हैं। हमारी न तो उत्पत्ति हुई है न कभी नाश होगा। ईश्वर व जीव अर्थात् मैं और मेरा परमात्मा दोनों सनातन व नित्य होने के कारण अनादिकाल से एक दूसरे के मित्र व सखा हैं। ईश्वर से हमारा व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक, स्वामी-सेवक तथा पिता-पुत्र आदि का सम्बन्ध है। ईश्वर अजन्मा है तथा जीव जन्म-मरण धर्मा है। जीवात्मा का जन्म व मृत्यु होती रहती है। हमें हमारा जन्म हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मिलता है। हमारे कर्मानुसार हमें मनुष्य व देव तथा पशु-पक्षी आदि योनियों में भी जन्म मिल सकते हैं। मनुष्य योनि में सुख अधिक तथा दुःख कम होते हैं। अन्य योनियों में मनुष्य योनि से अधिक दुःख व कष्ट होते हैं। मनुष्य योनि इससे पूर्व की मनुष्य योनि में अधिक पुण्य व शुभ कर्म करने से मिलती है।
ईश्वरोपासना तथा अग्निहोत्र यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्मों को करने से मनुष्य योनि में देवों का शरीर मिलना सम्भव होता है। यह लाभ हम आर्यसमाज से जुड़कर तथा वेदाचरण कर अपने परजन्मों में प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिये हमें ईश्वरीय कर्म-फल विधान का ज्ञान होना चाहिये और हमें ईश्वर द्वारा वेदों में मनुष्य के विहित कर्मों को जानकर उनका सेवन करना चाहिये। आर्यसमाज से जुड़ने व इसका सक्रिय सदस्य बनने पर वैदिक साहित्य का अध्ययन वा स्वाध्याय करने का अवसर मिलता है। इससे मनुष्य की आत्मिक उन्नति होने से वह ईश्वरीय ज्ञान वेद व मनुष्य जीवन के अनेकानेक व सभी रहस्यों से परिचित हो जाता है। इससे यह लाभ होता है कि मनुष्य सुख देने वाले कर्मों को ही करता है और जिन कर्मों का परिणाम दुःख होता है, उन्हें जानकर उनको करना छोड़ देता है। वेदानुयायी मनुष्य यह जानता है कि राग व द्वेष दोनों मनुष्यों के लिये हानिकारक होते हैं। इनके वशीभूत होकर मनुष्य जो कर्म करते हैं वह परिणाम में दुःख देते हैं। अतः राग व द्वेष को जानकर उनके स्थान पर वैराग्य के विचारों को अपनाकर तथा द्वेषमुक्त होकर सब प्राणियों को अपनी आत्मा के समान जानकर अपनी और सबकी उन्नति के लिये पुरुषार्थ करना चाहिये। ऋषि दयानन्द और अन्य वैदिक महापुरुषों स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी आदि के जीवन में हम साक्षात् ऐसा होता हुआ देखते हैं।
आर्यसमाज से जुड़कर हमें वेदों का महत्व बताने वाला तथा प्रायः सभी वैदिक मान्यताओं से परिचित कराने वाला और साथ ही सत्य व असत्य का स्वरूप प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ पढ़ने को मिलता है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में मनुष्य के जीवन के लिये उपयोगी सभी विषयों का वेद प्रमाणों से युक्त तर्क एवं युक्ति संगत ज्ञान प्रस्तुत किया गया है। इससे मनुष्य की सभी भ्रान्तियां एवं आशंकायें दूर हो जाती है। वह ईश्वर व जीवात्मा विषयों सहित संसार एवं अपने जीवन सबंधी विषयों को यथार्थरूप से जानने में समर्थ होता है। उसे यह भी विदित होता है वेद मत से इतर सभी मतों में अविद्या विद्यमान है। इसका दिग्दर्शन सत्यार्थप्रकाश के ग्रन्थकार ऋषि दयानन्द जी ने इस ग्रन्थ के उत्तरार्ध के चार समुल्लास लिखकर कराया है। इनसे यह लाभ होता है कि हम सभी मत-मतान्तरों की अविद्या से परिचित हो जाते हैं और उसे छोड़कर जीवन में होने वाली अनेक हानियों से बच जाते हैं। इनसे हमारा समय भी बचता है व हम उस बचे हुए समय का सत्कर्मों को करने में सदुपयोग करते हैं। उस समय को हम ईश्वर की उपासना, अग्निहोत्र व देश तथा समाज के हित के कार्यों में कर सकते हैं।
आर्यसमाज का महत्व आर्यसमाज का सक्रिय सदस्य बनकर तथा आर्यसमाज तथा समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ही विदित होता है। हम यहां बानगी के तौर पर आर्यसमाज के 10 नियमों को प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे स्वर्णिम नियम हमें किसी मत व संगठन में दृष्टिगोचर नहीं होते। अतः अपने मनुष्य जीवन की उन्नति करने का उद्देश्य लिये हुए बन्धुओं को आर्यसमाज की शरण में आकर अपने जीवन की उन्नति करनी चाहिये और अपने परजन्म को भी सुरक्षित व सफल बनाने का प्रयत्न करना चाहिये।
आर्यसमाज के दस नियम
1- सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।
2- ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।
3- ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’
4- ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’
5- सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहियें।
6- संसार का उपकार करना इस (आर्य)समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
7- सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये।
8- अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।
9- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये, किन्तु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।
10- सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए ओर प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।
इन नियमों की दृष्टि से भी आर्यसमाज एक सार्वभौमिक संगठन व आन्दोलन सिद्ध होता है जिसका उद्देश्य मनुष्य, समाज व विश्व का उपकार करना है। आर्यसमाज सत्य का ग्रहण कराता और असत्य को छुड़वाता है। इसके साथ ही आर्यसमाज अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि के प्रयत्न करता है। इन सभी कार्यों व अपने स्वर्णिम इतिहास के कारण आर्यसमाज विश्व का सर्वोत्म संगठन है जो वैदिक सत्य-धर्म का प्रचार व प्रसार तथा संवर्धन करता है। सभी मनुष्यों को आर्यसमाज वा वैदिक धर्म की शरण में आकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होना चाहिये। अन्य मतों व संगठनों से जुड़कर धर्म = सत्य कर्म वा सत्याचरण, अर्थ = धर्मपूर्वक अर्थोपार्जन करना, काम = धर्म विहित कामों को करना तथा मोक्ष = आवागमन से मुक्ति और सुदीर्घकाल के लिए परमानन्द की प्राप्ती नहीं होती। इससे बढ़कर कुछ प्राप्तव्य नहीं है जो वैदिकधर्म के पालन से ही मनुष्यों को प्राप्त होता व हो सकता है। ओ३म् शम्।
– मनमोहन कुमार आर्य