हम वैदिक धर्म क्यों धारण करें? इसका उत्तर यह है कि संसार में जितने मत-मतान्तर हैं वह सब अपूर्ण ज्ञान से युक्त होने के साथ मिथ्या ज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त होने सहित भाषा आदि की दृष्टि से भी वेदों की भाषा के सदृश उन्नत भाषा से युक्त नहीं हैं। वेदों की महत्ता यह है कि यही वास्तव में मनुष्यों का धर्म है जिसे धारण करने से मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। वेदों के आधार पर वेदों के मर्मज्ञ ऋषि दयानन्द ने एक नियम दिया है कि संसार का उपकार करना आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् सबकी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। वेदों का अध्ययन कर उसके अनुसार आचरण करने पर मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी मान सकते हैं। आत्मिक उन्नति से ही मनुष्य के सभी दुःखों की निवृत्ति होकर मोक्ष की उपलब्धि होती है। शारीरिक उन्नति के लिये हमें आहार, निद्रा एवं ब्रह्मचर्य से युक्त जीवन व्यतीत करना होता है। इन नियमों को तोड़ने से मनुष्य का शारीरिक विकास भली प्रकार से नहीं होता। आहार के अन्तर्गत वह सब पदार्थ आते हैं जिनका हम अपने उदर की क्षुधा वा भूख को शान्त करने के लिये भक्षण करते हैं। वेद मनुष्य को अन्न प्राप्ति के लिये कृषि कार्य करने तथा सात्विक अन्न का भक्षण करने की प्रेरणा करते हैं। यदि हमारा अन्न वा भोजन शुद्ध एवं पवित्र नहीं होगा तो हमारे शरीर में विकार उत्पन्न होकर अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। अन्न सहित मनुष्य को देशी गाय का दुग्ध एवं फलों का सेवन भी करना चाहिये। इतना करने से ही मनुष्य अपने शरीर को निरोग, स्वस्थ व बलवान बना सकते हैं। आसन, व्यायाम व प्राणायाम आदि से भी मनुष्य का स्वास्थ्य ठीक रहता है व शरीर के बल की वृद्धि होकर उन्नति होती है। आहार सहित हमें लगभग 6 घंटे की निद्रा लेनी चाहिये। स्वास्थ्य का स्वर्णिम नियम ब्रह्मचर्य का पालन है। इससे मनुष्य ईश्वर को जानकर उसके गुणों को धारण करने में समर्थ होता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रियों के संयम से भी लिया जाता है। इसका भी जीवन को बहुत लाभ होता है। हमें अपनी सभी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्म इन्द्रियों को संयम में रखना चाहिये। ऐसा करके हम अपने शरीर को स्वस्थ रखने के साथ सुख का अनुभव व उपभोग करने में समर्थ होते हैं और दीर्घायु होते हैं।वैदिक धर्म अन्य मतों के समान मनुष्यों द्वारा प्रचलित मत वा धर्म नहीं है। वैदिक धर्म का आरम्भ वेदों से हुआ है। यह वेद हमें परमात्मा से प्राप्त हुए हैं। धर्म की आवश्यकता सृष्टि के आरम्भ से ही सभी मनुष्यों को होती है। अतः धर्म का आरम्भ भी सृष्टि के आरम्भ से हो जाता है। मनुष्यों में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह किसी भी भाषा के अभाव में एक नई भाषा का आविष्कार कर सकें। जिस प्रकार मनुष्य अपने शरीर के अंगों को नहीं बना सकता व बिना ज्ञान के अस्वस्थ अंगों को ठीक कर सकता, इसके लिये उसे ईश्वर के समान सत्ता से निर्मित शरीर की आवश्यकता होती है। हमारा शरीर बनाने वाली सत्ता परमात्मा है। परमात्मा सृष्टि को बनाता व चलाता है। उसने ही लोक लोकान्तर और इसमें विद्यमान सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि ग्रह-उपग्रहों एवं नक्षत्रों को बनाया है। वह ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वज्ञानमय है। उसी से मनुष्य को सबसे पहले ज्ञान प्राप्त होता है। वही ज्ञान वेद है। ज्ञान की दृष्टि से वेद सर्वांगपूर्ण ज्ञान है। ऋषि दयानन्द के शब्दों में वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों (मनुष्यों) का परम धर्म है। इस नियम को प्रामाणित करने के लिये ऋषि दयानन्द ने चारों वेदों की भूमिका ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं वेदभाष्य का प्रणयन किया था। वेदों में निहित ज्ञान को सरल शब्दों में समझाने के लिये हमारे वेदज्ञ ऋषियों ने वेदों पर टीकायें आदि कीं और दर्शन तथा उपनिषद आदि ग्रन्थों की रचना भी की। इन सभी ग्रन्थों के आधार पर मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि विषयक सम्यक ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। वेद एवं ऋषियों के व्याख्या ग्रन्थों उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि की उपस्थिति में मनुष्य को धर्म पालन के लिये किसी अन्य ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं है। किसी ग्रन्थ व मत की पुस्तक में ऐसी कोई प्रशंसनीय बात नहीं है जो वेद में पहले से न हो। अतः वेदेतर ग्रन्थ वेदों के पूरक होने से ही मान्य होते हैं और उनमें जहां जो वेद विरुद्ध कथन व वचन हैं वह स्वीकार करने योग्य नहीं होते। इस दृष्टि से मत व पन्थ के ग्रन्थों की परीक्षा करने पर सब में वेद विरुद्ध व सृष्टि क्रम के विरुद्ध अनेक कथन व वचन मिलते हैं जिनसे उनका मिथ्यात्व सिद्ध होता है। वेद ही सभी मनुष्यों के लिये ग्रहण वा धारण करने योग्य सिद्ध होते हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखकर ऋषि दयानन्द ने इसी बात को हमारे सम्मुख रखा है। हमारा कर्तव्य वेद और सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का प्रचार कर सत्य को मनवाना और असत्य को छुड़वाना है। ऐसा करेंगे तभी वेद विश्व धर्म बन सकता है।वेद के अध्ययन व उसकी शिक्षाओं के पालन से मनुष्य की शारीरिक उन्नति सहित आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है। यही तो मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य भी है। वेदेतर ग्रन्थों के अध्ययन से मनुष्य की आत्मिक उन्नति का स्तर वेद के समान नहीं होता। वेद पढ़कर मनुष्य ऋषि, योगी, साधु, सज्जन व वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को धारण कर पूरे विश्व को श्रेष्ठ व सदाचारी बनाने के काम में प्रवृत्त होता है। अन्य मतों के ग्रन्थों से मनुष्य इन महान लक्ष्यों को प्राप्त करने में प्रवृत्त नही होता। अन्य मतों को ईश्वर का सत्य स्वरूप भी विदित नहीं है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के नियम सहित अपने सभी ग्रन्थों में ईश्वर के सत्य स्वरूप को प्रस्तुत किया है जिसका आधार वेद, वैदिक साहित्य एवं हमारे ऋषियों का योग व समाधि अवस्था में प्राप्त सत्य ज्ञान है। वैदिक रीति से अध्ययन एवं ईश्वरोपासना करने से मनुष्य ईश्वर का प्रत्यक्ष करने में सफल होते हैं। यह आत्मिक उन्नति की चरम अवस्था कही जा सकती है। इसी से मनुष्य को जन्म व मरण के बन्धनों से अवकाश मिलता है। वेदाध्ययन मनुष्य को श्रेष्ठ व उत्तम कर्म करने की प्रेरणा करते हैं। श्रेष्ठ व उत्तम कर्म करने से मनुष्यों के दुःखों की निवृत्ति होकर परमात्मा की कर्म-फल व्यवस्था से उन्हें सुख प्राप्त होते हैं। दुःखों का कारण मनुष्य के अशुभ व पाप कर्म ही होते हैं। इसके लिये वह ग्रन्थ भी दोषी होते हैं जिन्हें मनुष्य मानता है परन्तु उनमें परोपकार, दान, दूसरों की सेवा, प्राणियों के जीवन की रक्षा, सात्विक भोजन, सदभाव व सह-अस्तित्व का भाव आदि की शिक्षा नहीं दी जाती है। अनेक ग्रन्थों में मनुष्य-मनुष्य में भेद किया गया है। इस कारण इन मतों के लोग अन्य मतों वाले लोगों से पक्षपातपूर्ण व्यवहार व अन्याय करते हैं। ऐसे मत कदापि धर्म की कोटि में परिगणित नहीं किये जा सकते। अतः वेद ही सर्वश्रेष्ठ धर्म ग्रन्थ सिद्ध होता है। हमें वेदों को ही अपना मार्गदर्शक ग्रन्थ बनाना चाहिये और उसकी तर्क, युक्ति सहित सृष्टि क्रम के अनुकूल व्याख्याओं को ही स्वीकार करना चाहिये। ऐसा करके जीवनयापन से हमारा निश्चित रूप से कल्याण होगा।वैदिक धर्म में पांच महायज्ञों व कर्तव्यों को धारण कराया जाता है। यह हैं सन्ध्या वा ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ तथा बलिवैश्वदेव यज्ञ। इन यज्ञों को करके मनुष्य का जीवन श्रेष्ठ व देव कोटि का बनता है। वैदिक धर्म का अनुयायी मनुस्मृति में कहे गये धर्म के दस लक्षणों धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, उत्तम बुद्धि, विद्या, सत्य व अक्रोध को भी धारण करते हैं। इससे मनुष्य दोषों से मुक्त तथा सद्गुणों से युक्त होता है। धर्म के इन लक्षणों से युक्त मनुष्य ही आदर्श मनुष्य कहा जा सकता है। यदि किसी आदर्श मनुष्य की परीक्षा करनी हो तो इन गुणों व लक्षणों की उनके जीवन में परीक्षा करनी चाहिये।वेद में न कोई कहानी है न किस्सा जैसे कि अनेक मत-मतान्तरों के प्रमुख ग्रन्थों में बहुतायत में है। वेद में ज्ञान की ठोस बातें हैं। वेद ईश्वर को सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, कर्म-फल प्रदाता, अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अजर, अमर, जीवों को कर्मानुसार जन्म प्रदाता तथा सृष्टिकर्ता आदि गुणों वाला बताते हैं। परमात्मा को संसार का कोई पदार्थ अपने निजी प्रयोजन के लिये अपेक्षित नहीं है। उसने यह पृथिवी, सूर्य व चन्द्र एवं समस्त पदार्थ जीवों के कल्याण के लिये बनाये हैं। जीवों व मनुष्यों का कर्तव्य ईश्वर की उपासना के द्वारा कृतज्ञता प्रकट करना है। वेद मनुष्य जीवन का लक्ष्य दुःखों की निवृत्ति को बताते हैं। दुःखों की निवृत्ति के लिये पूर्व कर्मों को भोगना तथा वर्तमान एवं भविष्य में कोई अशुभ व पाप कर्म को न करना है। ऐसे कर्म ही धर्म कहलाते हैं। धर्म पालन से मनुष्य दुःखों से मुक्त एवं यशस्वी होता है। धर्म के अनुरूप अर्थ व काम का सेवन ही उसे अभीष्ट होता है व होना चाहिये। ऐसा करने पर समाधि द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लेने पर उसके सभी दुःखों की निवृति होकर परमात्मा उसे जन्म व मरण से मोक्ष वा मुक्ति प्रदान करते हैं। यह वेदों का विशेष सिद्धान्त है। इस रूप में यह सिद्धान्त वेद धर्म से भिन्न किसी मत में नहीं पाया जाता। अतः हमें वेदों का अध्ययन कर वैदिक धर्म व कर्तव्यों को धारण कर अपने जीवन को सुखी, कल्याणप्रद एवं मोक्षगामी बनाना चाहिये। ओ३म् शम्।