संसार की श्रेष्ठतम रचना हमारी सृष्टि ईश्वर से ही प्रकाशित हुई है
प्रत्येक रचना एक रचयिता की बनाई हुई कृति होती है। हमारी यह विशाल सृष्टि किस रचयिता की कृति है, इस पर विचार करना आवश्यक एवं उचित है। सृष्टि की रचना व उत्पत्ति आदि विषयों का अध्ययन करने पर यह अपौरुषेय रचना सिद्ध होती है। अपौरुषेय रचनायें वह होती हैं जिनको मनुष्य नहीं बना सकते। संसार में अपौरुषेय सत्ता एक ईश्वर ही है। निश्चय ही जगत में ईश्वर व मनुष्य से इतर कोई चेतन, बुद्धियुक्त, बलवान वा सर्वशक्तिमान सत्ता के न होने से इसे ईश्वर रचित ही मानना होगा। यह वस्तुतः है भी सत्य। वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर विद्वानों की भी सहमति व सन्तुष्टि हो जाती है कि इस सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय का कर्ता यदि कोई है, तो वह केवल और केवल एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य एवं जन्म-मरण से रहित परमेश्वर ही है व वही हो सकता है। आर्यों व हिन्दुओं का सौभाग्य है कि उनको वेद व ऋषियों के उपनिषद, दर्शन एवं मनुस्मृति आदि ग्रन्थ बड़ी संख्या में उपलब्ध है। ऋषि दयानन्द और उनके परवर्ती आर्य विद्वानों ने भी इस विषय पर व्यापक विचार एवं मंथन किया है और एतद्विषयक साहित्य की रचना व लेख आदि द्वारा अपने अनुभव हमें प्रदान किये हैं जिनसे सृष्टि की रचना पर प्रकाश पड़ता है। ऋषि दयानन्द सरस्वती का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ ऐसा ही एक ग्रन्थ है जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति वा पालन तथा प्रलय का वर्णन मिलता है। हम सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से ही सृष्टि की रचना विषयक कुछ सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं।
सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में उपदेश करते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं कि जिस से यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी है, जिस व्यापक में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय को प्राप्त होता है, वह परमात्मा है। उसे ही मनुष्यों को जानना चाहिये और उसके स्थान पर किसी दूसरी सत्ता को सृष्टिकर्ता नहीं मानना चाहिये। ऋषि कहते हैं कि यह सब जगत् सृष्टि बनने से पहले अन्धकार से आवृत्त, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख एकदेशी (परिमित व सीमित) आच्छादित था। पश्चात परमेश्वर ने अपनी सामथ्र्य से कारणरूप प्रकृति से इसे कार्यरूप सृष्टि बना दिया। ऋषि बताते हैं कि सूर्यादि सब तेजस्वी पदार्थों का आधार परमात्मा है। जो यह जगत् हुआ है और होगा उस का एक अद्वितीय स्वामी परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था। जिस परमात्मा ने पृथिवी से लेकर सूर्यपर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, उस परमात्मा की सब मनुष्यों को प्रेम से भक्ति करनी चाहिये। यजुर्वेद के मन्त्र के आधार पर वह आगे बताते हैं कि जो सब में पूर्ण पुरुष और जो नाश रहित कारण और सभी जीवों का स्वामी है, जो पृथिव्यादि जड़ और जीवों से अतिरिक्त है, वही पुरुष इस सब भूत भविष्यत् और वर्तमान जगत् का बनाने वाला है। ऋषि दयानन्द ने वैदिक साहित्य के आधार पर यह भी कहा है कि जिस परमात्मा द्वारा की गई रचना से यह सब पृथिव्यादि प्राकृतिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जिस से जीवित व पालित होते हैं और जिस में प्रलय को प्राप्त होते हैं, वही ब्रह्म वा परमात्मा है। उस के जानने की सब मनुष्यों को इच्छा करनी चाहिये और ज्ञान, तर्क एवं युक्तियों से सिद्ध तथा वेद प्रमाणों से पुष्ट उसी सच्चिदानन्दस्वरूप सत्ता को ईश्वर को मानना चाहिये।
मनुष्य को उस ब्रह्म वा परमात्मा को जानने की इच्छा करनी चाहिये जिस से इस जगत् का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है। संसार में वह परमात्मा ही सभी मनुष्यों के लिये जानने योग्य है। यह समस्त जगत् वा सृष्टि निमित्त कारण परमात्मा से ही उत्पन्न हुआ है अन्य किसी के द्वारा व किसी अन्य अनादि पदार्थ से उत्पन्न नहीं हुआ। परमात्मा द्वारा उत्पन्न इस जगत् का उपादान कारण प्रकृति है। जगत् के उपादान कारण प्रकृति को परमात्मा ने उत्पन्न नहीं किया है। प्रकृति ईश्वर व जीव की भांति ही अनादि व अनुत्पन्न है। अनादि उन पदार्थों को कहते हैं कि जो स्वयंभू हों अर्थात् जिसकी उत्पत्ति अन्य किसी कारण पदार्थ, उपादान व निमित्त कारण से न हुई हो। हमारे संसार में ईश्वर, जीव और जगत् का कारण प्रकृति यह तीन अनादि पदार्थ हैं। ऋग्वेद और यजुर्वेद के मन्त्रों में परमात्मा ने मनुष्यों को उपदेश देकर बताया है कि ब्रह्म और जीव दोनों चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश, व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त, परस्पर मित्रतायुक्त, सनातन व अनादि हैं। ऐसा ही अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह तीसरा अनादि पदार्थ ‘प्रकृति’ है। इन तीनों अनादि पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि व अपरिवर्तनीय हैं। ब्रह्म व जीव इन दो चेतन पदार्थों में से एक जीव है। वह इस वृक्षरूप जड़ संसार में पापपुण्यरूप फलों को अच्छे प्रकार भोक्ता है और परमात्मा कर्मों के फलों को न भोक्ता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव, ईश्वर व प्रकृति यह तीनों पदार्थ परस्पर पृथक-पृथक, एक दूसरे से सर्वथा भिन्न तथा तीनों अनादि हैं। यजुर्वेद में ‘शाश्वतीभयः समाभ्यः’ वचन से परमात्मा ने कहा है कि अनादि सनातन जीवरूप प्रजा के लिये वेद द्वारा उसने सब विद्याओं का बोध किया है।
उपनिषद् में कहा गया है कि प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिन का जन्म व उत्पत्ति कभी नहीं होती और न कभी वह जन्म लेते हैं अर्थात् तीनों अनादि पदार्थ सब जगत् के कारण हैं। इन तीन अनादि पदार्थों की उत्पत्ति का कारण इनसे भिन्न अन्य कोई कारण व सत्ता नहीं है। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ इसमें कर्म के बन्धनों में फंसता है। ब्रह्म इस जगत् का जीवों की तरह सुख-दुःखरूपी भोग न करने से इसमें फंसता नहीं है।
प्रकृति का लक्षण बताते हुए ऋषि दयानन्द ने सांख्य सूत्रों के आधार पर लिखा है कि सत्व वा शुद्ध, रजः व मध्य तथा जाड्य अर्थात् जड़ता, इन तीन वस्तुओं के मिलने से जो एक संघात है उस का नाम प्रकृति है। उस प्रकृति से क्रमशः 1- महतत्व बुद्धि, उससे 2- अहंकार, उससे 3-7 पांच तन्मात्र सूक्ष्म भूत और 8-17 दश इन्द्रियां तथा 18- ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से 19-23 पृथिव्यादि पांच भूत ये तेईस, चैबीस और पच्चीसवां 24- पुरुष अर्थात् जीव और 25- परमेश्वर हैं। इनमें से प्रकृति अविकारिणी और महत्तत्व, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य और इन्द्रियां मन तथा स्थूलभूतों का कारण हैं। आत्मा और परमात्मा सृष्टि रचना में उत्पन्न विकारों व पदार्थों में से न किसी पदार्थ की प्रकृति व उपादान कारण हैं और न ही यह दोनों चेतन पदार्थ किसी मूल पदार्थ का कार्य हैं।
इस प्रकार प्रकृति नामी उपादान कारण से निमित्तकारण परमात्मा द्वारा इस सृष्टि की रचना हुई है। सृष्टि की रचना का प्रयोजन जीवों को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग अर्थात् सुख-दुःख प्रदान करना है। यदि जीव न होते तो ईश्वर को सृष्टि न बनानी पड़ती। यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान होकर भी सृष्टि की रचना व पालन न करता तो उस पर यह आरोप होता कि वह सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान नहीं है, होता तो अवश्य ही जीवों को सुख प्रदान करने के लिये सृष्टि की रचना व उसका पालन करता। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभावों में सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय करना तथा सृष्टि के आरम्भ में सभी मनुष्योें के कल्याण के लिये वेदों का ज्ञान देना उसका स्वाभाविक एवं आवश्यक कर्म, कर्तव्य व कार्य हैं। अपने इन स्वभाविक कर्मों को ईश्वर प्रत्येक सर्ग में करता है व भविष्य में भी करता रहेगा। अतः हमें अपने सभी भ्रमों को दूर कर ज्ञान व विज्ञान के आधार पर ईश्वर को ही इस सृष्टि का कर्ता, धर्ता व हर्ता स्वीकार करना चाहिये। इसका सर्वत्र प्रचार करना चाहिये। ऐसा करने से ही संसार में अविद्या दूर होगी। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का सभी मनुष्यों को अवश्यमेव अध्ययन करना चाहिये। इससे परमात्मा की बनाई इस सृष्टि के प्रायः अधिकांश व सभी रहस्यों से पर्दा उठता है। मनुष्य भ्रान्तियों से रहित होता। ईश्वर के सच्चे स्वरूप का ज्ञान होता है। ईश्वर की उपासना का महत्व व उससे मनुष्य जीवन की सफलता का रहस्य भी विदित होता है। वेदों से ही मनुष्यों को अपने सभी कर्तव्य कर्मों व निषिद्ध कर्मों का भी ज्ञान होता है। कर्तव्यों को करने की प्रेरणा में उत्साह उत्पन्न होता है व निषिद्ध कर्मों को करने में निरुत्साह एवं उनके प्रति उपेक्षाभाव जागृत होता है। वेद प्रतिपादित ईश्वर ही संसार के सब मनुष्यों का उपास्य है। सभी को मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों का त्याग कर वेदवर्णित स्वरूप वाले ईश्वर की उपासना कर उसका साक्षात्कार वा प्रत्यक्ष करना चाहिये। इसी से हम सबको सभी दुःखों से अवकाश मिलेगा और हम परमान्दमय ईश्वर को प्राप्त होकर अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त हो सकेंगे। ओ३म् शम्।
– मनमोहन कुमार आर्य