यज्ञ (हवन) करने की सही विधि
हमारे बहुत से आर्य समाज के मित्र या अन्य सनातनी भी बहुत सा यज्ञ करते और करवाते हैं परन्तु यज्ञ का पूरा लाभ जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है वैसा लाभ नहीं उठा पाते। इसका कारण है कि बहुत प्रकार की भिन्न भिन्न यज्ञ पद्धतियों का प्रचलित होना। प्रत्येक आर्य समाज में या गायत्री संस्थानों में या अन्य सनातनी मंदिरों, मठों में यज्ञ करने की प्रक्रिया अलग अलग है। कुछ लोग आर्य समाज के विद्वानों से यज्ञ की महिमा सुनकर चाव में आकर अपने घरों में यज्ञ तो शुरु कर देते हैं परन्तु फिर कहते हैं “हमने तो पूरा एक वर्ष यज्ञ किया परन्तु हमें तो कोई लाभ नहीं हुआ” इसका कारण गलत प्रकार से यज्ञ करना है। ठीक विधि से यज्ञ न करने से लाभ के बजाए हानि होने की संभावना भी रहती है। सही और गलत विधि क्या है इस पर नीचे के बिन्दुओ में विस्तार से लिखा जाता है :-
(१) सबसे पहले तो यज्ञ कुंड उसी आकार और परिमाण का होना चाहिए जैसा की शास्त्रों में बताया गया है। अर्थात कि ऊपर का चौकोर (Square) नीचे के चौकोर से चार गुना चौड़ा होना चाहिए। उदाहरण :- जैसे कि ऊपर का चौकोर यदि 16″ x 16″ है तो नीचे का 4″ x 4″ होना चाहिए और ये यज्ञ कुंड उतना ही गहरा यानी कि 16″ होना चाहिए । यज्ञकुंड के इस आकार को गणित में Frustrum Square Pyramid भी कहा जाता है। इससे अलग परिमाण में बना हुआ यज्ञकुंड सही नहीं माना जाता। समिधाओं के व्यय का पूरा लाभ इस विधि से बने यज्ञ कुंड में ही हो सकता है।
(२) यज्ञकुंड सबसे सर्वोत्तम तो मिट्टी का ही माना गया है जिसकी लिपाई देसी गाँय के गोबर से होती रहे। क्योंकि इस यज्ञकुंड में किए गए यज्ञ से चारों ओर सुगँध का प्रभाव अति तीव्र होता है जो कि धातु निर्मित यज्ञकुंड से नहीं होता। यद्यपि धातु के यज्ञकुंड का निर्माण भी किया जा सकता है जो कि बाजार में मिलते हैं। धातु के यज्ञकुंड में चिकनी मिट्टी पोत लेनी चाहिए जिससे कि उससे वही सारे लाभ मिलें जो कि मिट्टी के यज्ञकुंड से मिलते हैं।
(३) यज्ञकुंड का निर्माण भी यज्ञ के प्रकारों के अनुसार ही करना चाहिए। जैसे अकेले दैनिक यज्ञ करने के लिये छोटा यज्ञकुंड, घर के सदस्यों के साथ करने के लिये थोड़ा बड़े आकार का और बहुत बड़े यज्ञ के करने के लिये बड़े यज्ञकुंडों का निर्माण आवश्यकता के अनुसार करवा लेना चाहिए। यज्ञकुंड के आकार के अनुसार ही उसमें ईंधन का व्यय होता है।
(४) यज्ञकुंड के आकार के अनुसार ही समिधाओं (हवन की लकड़ियों) का चयन करना चाहिए। यदि छोटा यज्ञ करना हो तो छोटी समिधाएँ पर्याप्त हैं। अधिक मात्रा में ली गईं या बड़ी समिधाओं से आवश्यकता से अधिक अग्नि उत्पन्न होना समिधाओं का दुरूपयोग होना है। समिधाएँ भी ऋतु अनुकूल ही लेनी चाहियें। इसके लिये आम, ढाक, पीपल, बड़, चन्दन, बेरी, शमी, पलाश, गुलर आदि की समिधाएँ सबसे उत्तम मानी गई हैं। देखना चाहिए कि समिधाओं में किसी प्रकार की दीमक न हो या कोई गंदगी न लगी हो यज्ञ करने से पहले प्रयोग होने वाली इन समिधाओं को शुद्ध और साफ कर लेना चाहिए।
(५) ये देखा गया है कि बहुत से लोग बाजार में मिलने वाले मिलावटी घी, भैंस के घी या डालडा आदि घृत से यज्ञ करते और करवाते हैं जो कि पूर्ण रूप से गलत है इससे तो प्रदूषण दूर होने के स्थान पर और बढ़ता है। भैंस के घृत से तो आलस्य ता संचार होता है। यज्ञ करने के लिये तो सर्वोत्तम मिलावट रहित गाय का शुद्ध देसी घृत ही है। यदि आप मात्र 6 ग्राम ऐसा शुद्ध देसी घी अग्नि में डालेंगे तो इस एक चम्मच से लगभग 1000 किलो वायु शुद्ध होती है ऐसा यज्ञ पर शोध करने वालों ने पता लगाया है।
(६) जो हवन सामग्री है वह ऋतु के अनुकूल ही होनी चाहिये क्योंकि प्रत्येक ऋतु में यदि एक ही प्रकार की फल सब्जियाँ सदा लाभ नहीं करतीं तो ठीक वैसे ही सर्वदा एक ही प्रकार की आयुर्वैदिक औषधियाँ सदा लाभ नहीं कर सकती। बहुत से आर्य समाजों में वही पैकेट में पड़ी पुरानी सामग्री से ही लोग हवन करते रहते हैं जिससे किसी प्रकार का लाभ नहीं होता बल्कि हानि ही होती है। हमें प्रत्येक ऋतु के अनुकूल लाभ और हानि विचारकर ही हवन सामग्री का निर्माण स्वयं करना चाहिए जिसके लिये आप पंसारी की दुकान से सभी औषधियाँ, जड़ी बूटियाँ मात्रा के अनुसार ओखली में कूटकर स्वयं तैय्यार कर सकते हैं जिसका कि आपको विशेष लाभ होगा। जैसे कि मान लें शरद ऋतु में लगभग 25 ऐसी औषधियाँ (जटामासी, चिरायता आदि) हैं तो प्रत्येक को लगभग २० ग्राम लें और पाऊडर करके आपके पास 250 ग्राम की सामग्री तैयार हो गई। जो कि समाप्त होने पर फिर से बनाई जा सकती है। ये ध्यान रखें कि सामग्री में चारों प्रकार के पदार्थों की मात्रा प्रचुर होनी चाहिए (क) मीठे पदार्थ (मेवा, खाण्ड आदि) (ख) रोगनाशक (गिलोय, गूगल आदि) (ग) पुष्टिकारक (अखरोट, मखाने आदि) (घ) बलवर्धक, बुद्धिवर्धक (शंखपुष्पि, ब्राह्मी, गौघृत आदि)।
(७) यज्ञ के जितने मंत्र हैं वे सब कंठस्थ होने चाहियें जिससे कि यज्ञ करने में आपका समय अधिक न लगे। इसके अतिरिक्त यज्ञ के मंत्रों के अर्थ भी आपको पता होने चाहियें। जैसे कि ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासन, प्रातः साँयकालीन, स्वस्तिवाचनम्, शान्तिकरणम् , जन्मदिवस आदि के मंत्रों के स्पष्ट अर्थ आपको पता होने चाहियें। ऐसा होने से आपके यज्ञ करने में हृदय में विशेष प्रकार का रस आयेगा। मंत्रों का उच्चारण आपका शुद्ध और स्पष्ट होना चाहिये जिससे सुनने वाले यजमानों को और दूर से सुनने वालों को भी विशेष आनंद आये और ये यज्ञ के प्रति आकर्षित हो पायें। वेद मंत्रों में वैसे ही आकर्षण और सौन्दर्य है जिससे कि सामने वाला सुनकर खिंचा चला आता है।
(८) यज्ञ करते समय ये ध्यान रखें कि पर्याप्त समिधाएँ और पर्याप्त घृत अग्नि को अर्पण करते रहें जिससे अग्नि की लपटें ऊपर ऊपर तक जाएँ क्योंकि ऊँची लपटों वाला यज्ञ सर्वोत्तम माना जाता है।
(९) यज्ञ की अग्नि में कोई उच्छिष्ट (जूठा) पदार्थ , नमकीन, कृमियुक्त (कीड़ों वाला) पदार्थ कभी न डालें।
(१०) यज्ञ करने से पूर्व यज्ञ के स्थान को स्वच्छ कर लें।
(११) यज्ञ करने के स्थान पर शोर न हो। प्रयास करें कि शांतमय वातावरण में यज्ञ हो और आपका ध्यान न भटके।
(१२) यज्ञ करते समय गले में गायत्री मंत्र या ओ३म् के पट्टे डालें तांकि जिससे स्वयं की और सामने देखने वालों में भी यज्ञ के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो।
(१३) यदि संभव हो तो प्रतिदिन दो समय दैनिक यज्ञ घर में किया करें, यदि नहीं तो एक बार किया करें यदि इससे भी नहीं तो सप्ताह मे एक बार यदि इतना भी नहीं तो पूर्णमासी और अमावस्या को ही यज्ञ घर में अवश्य किया करें।
(१४) जिस स्थान पर यज्ञ किया हो उस स्थान पर वायु अत्यन्त शुद्ध होती है वहाँ पर किये गए प्राणायाम और ध्यान आदि का विशेष लाभ होता है।
(१५) यज्ञ समाप्त होने पर यजमानों के साथ वैदिक धर्म के सिद्धान्तों पर भी थोड़ी सी चर्चा किया करें या फिर रामायण, महाभारत या मनुस्मृति की शिक्षाप्रद बातों पर चर्चा किया करें जिससे कि अच्छे संस्कारो का संचार प्रत्येक यजमान के मन में होता रहे।
(१६) जन्मदिवस, वैवाहिक वर्षगांठ आदि पर सामूहिक भोजन करके धन को व्यर्थ बहाने के स्थान पर कम खर्च में ही घर में बड़ा यज्ञ करवाया करें। जिससे कि सभी सगे सम्बन्धियों में अपनी प्रतिष्ठा भी बढ़े, पवित्रता का संचार घर में हो और यज्ञ की परिपाटी समाज में स्थापित हो।
(१७) प्रयास करना चाहिए कि यज्ञ धूएँ रहित हो या कम से कम धूआँ उत्पन्न हो।
(१८) यज्ञ करने का सही समय सूर्योदय से लेकर आगे ४५ मिनट तक का और सांयकाल में सूर्यास्त से पूर्व ३० मिनट का होता है अर्थात् सूर्य के प्रकाश में ही यज्ञ करने का विधान है।
अतः ऐसे ही अनेक सुधार यज्ञ पद्धति में करने से ही यज्ञ का विशेष लाभ मिलेगा। गलत विधि से यज्ञ करके यज्ञ की निन्दा करने वाले महामूर्ख होते हैं।