कोई माथा पीट रहा जग में,
एक धेला उसके पास नहीं।
कोई कुबेर बना बैठा जग में,
दुख का तनिक आभास नहीं।।
कोई बनी कोठी को त्याग रहा ,
कोई कब्ज़ा करता कोठी पर।
कोई भोजन को भी त्याग रहा,
कोई लड़ता देखा रोटी पर।।
कोई रक्त बहाता बंधु का,
कोई निज रक्त लुटाता बंधु पर।
कहीं दिखती बहन रक्त की प्यासी,
कहीं मरती बहन निज बंधु पर।।
कहीं पिता पुत्र झगड़ा करते,
कहीं संतान से मां को खतरा है।
कर्तव्य परायण संतान कहीं पर,
करती काम सदा ही सुथरा है।।
कहीं यौवन की धूप मचलती है,
कहीं छुप रहा सूरज जीवन का।
कहीं जीवन ही जीवन से पूछ रहा,
क्या मूल्य है तेरे जीवन का ?
– डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत