वैदिक कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य जो शुभ व अशुभ कर्म करता है, उसका फल उसे परमात्मा से अवश्य मिलता है। शुभ व पुण्य कर्मों का फल सुख तथा अशुभ व पाप कर्मों का फल दुःख होता है। हम पुस्तकें पढ़ते हैं तो इसका फल पुस्तक में वर्णित विषय का ज्ञान होना होता है। इसी प्रकार से जब हम माता-पिता की संगति व सेवा करते हैं तो इससे हमें माता-पिता से आशीर्वाद, कतृव्यों-अकर्तव्यों का बोध व धन आदि की प्राप्ति भी होती है। ऐसा ही जब हम परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना व उपासना तथा अग्निहोत्र यज्ञ आदि कर्म करते हैं तो हमारे कर्म के अनुरूप इसका फल हमें परमात्मा से प्राप्त होता है। अग्निहोत्र-यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है। श्रेष्ठतम कर्म का अर्थ सभी कर्मों में सबसे श्रेष्ठ कर्म। सबसे श्रेष्ठतम कर्म इस लिए है कि मनुष्य को जीवित रहने के लिए सर्वाधिक आवश्यक पदार्थ शुद्ध वायु होती है जिसमें श्वास लेकर वह स्वस्थ रहता है। इस वायु को अशुद्ध न करना और जाने अनजाने भोजन, वस्त्रधावन, अन्न के कूटने व पीसने, निजी वाहनों से वायु प्रदुषण तथा मल-मूत्र विसर्जन आदि कार्यों से जो वायु की अशुद्धि तथा जल आदि का प्रदुषण होता है, उसकी निवृत्ति करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य होता है। वायु मनुष्य के लिये सबसे अधिक आवश्यक पदार्थ है। इसके बिना हम पांच मिनट भी जीवित नहीं रह सकते। अन्न के बिना लोग उपवास कर 100 व इससे भी अधिक दिनों तक जीवित रहे हैं। अतः वायु अन्न, जल आदि से भी अधिक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। अग्निहोत्र-यज्ञ करने से सबसे बड़ा लाभ वायु व वर्षा जल की शुद्धि होती है। इसी कारण यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है। यज्ञ से शुद्ध वायु का लाभ न केवल यज्ञ करने वाले मनुष्य को मिलता है अपितु उसके पास पड़ोस के लोग भी लाभान्वित होते हैं। यज्ञ का धूम्र दूर देश व स्थानों तक जाता है और उन-उन सब स्थानों में दुर्गन्ध का नाश तथा वायु व वर्षा जल को शुद्ध करता है। इस प्रकार से एक मनुष्य द्वारा एक बार के यज्ञ से जितनी वायु शुद्ध व जल आदि की शुद्धि होती है उतना लाभ व पुण्य यज्ञकर्ता को प्राप्त होता है। यह लाभ सुख, समृद्धि, आरोग्य, बल, यश आदि की वृद्धि तथा परजन्म में सुखों व मुक्ति आदि में सहायता के रूप में परमात्मा अवश्य ही यज्ञकर्ता जीवात्मा को देते हैं। इस दृष्टि से ईश्वर का ध्यान संबंधी ब्रह्मयज्ञ एवं अग्निहोत्र यज्ञ सहित अन्य तीन पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान सभी मनुष्यों को नित्य प्रातः व सायं अवश्य करना चाहिये। इससे उनके शुभ व पुण्य कर्मों का संचय होगा जिसका परिणाम उनके वर्तमान एवं भविष्य के जीवन में सुख, प्रसन्नता, अभीष्ट की सिद्धि, यश व बल आदि की वृद्धि व प्राप्ति के रूप में सामने आयेगा।
ब्रह्मयज्ञ प्रातः सायं ईश्वर का भली भांति ध्यान करने को कहते हैं। इससे आत्मा और परमात्मा का मेल व मित्रता स्थापित होती है। मित्रता समान गुणों वाले दो व्यक्ति व सत्ताओं में होती है। परमात्मा और जीव दोनों चेतन सत्तायें हैं। दोनों ही ज्ञानवान हैं। ईश्वर सर्वज्ञ एवं जीव अल्पज्ञ है। ईश्वर सर्वशक्तिमान एवं जीव अल्प सामथ्र्य से युक्त होता है। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी है तथा जीव ईश्वर से व्याप्य, एकदेशी तथा ससीम है। ईश्वर सभी दैवीय व पारमार्थिक गुणों से युक्त है। वह अहर्निश सभी जीवात्माओं पर उपकार करता है और इसके बदले में किसी से कुछ भी अपेक्षा नहीं रखता। ईश्वर का परोपकार परमार्थ के लिये होता है जबकि मनुष्य के परोपकार के कार्यों में भी उसका कुछ-कुछ स्वार्थ छिपा रहता है। इस कारण ईश्वर महान् कहलाता है। जब जीव शुभ कर्म करता है तो ईश्वर उसे उस कर्म का सुख आदि फल देता है। सन्ध्या में ईश्वर का ध्यान करने से आत्मा के अवगुण न्यून होते व दूर होते हैं। मनुष्य के दुव्र्यसन व दुःख भी निःसन्देह दूर होते हैं। आत्मा में ज्ञान का प्रकाश व शुभ कर्मों में प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। इसे ही आत्मा की उन्नति कहा जाता है। ऐसा होने से न केवल सन्ध्या करने वाले अपितु उसके संगी व सहयोगियों को भी लाभ होता है। सन्ध्या करने वाला मनुष्य किसी का अन्याय, पक्षपात व शोषण नहीं करता। यह प्रत्यक्ष लाभ समाज को होता है। ऐसे महत्वपूर्ण कार्य को संसार के प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिये परन्तु देखा यह जा रहा है कि संसार के लोग अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों में फंसे हुए हैं। वह ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने व मानने के लिये तत्पर नहीं है। आर्यसमाज द्वारा किये जाने वाले सत्यधर्म वेदों के प्रचार में थोड़ी संख्या में ही लोग रुचि लेते व उसे समझ कर आचरण में आते हैं। ऐसी स्थिति में संसार में दुःखों आदि की वृद्धि होना स्वाभाविक ही है। वैदिक धर्म का प्रचार व पालन ही समाज व संसार में सुख व शान्ति ला सकता है। इसके लिये वैदिक धर्म के सबसे आवश्यक अंग ईश्वर का ध्यान, सन्ध्या का प्रचार व उसका सेवन करना सभी मनुष्य का धर्म भी है व इसका राजकीय सत्ता द्वारा सभी देशवासियों से अनिवार्यतः पालन कराया जाना चाहिये क्योंकि यह सब मनुष्यों एवं प्राणीमात्र के हित व लाभ का काम है।
अग्निहोत्र-यज्ञ में वेद मन्त्रों के उच्चारण सहित अग्नि में शुद्ध गोघृत तथा कुछ लाभकारी वनस्पतियों व ओषधियों का दहन किया जाता है। मिष्ट व बल प्रदान करने वाले पदार्थों को भी यज्ञ सामग्री में सम्मिलित किया जाता है। दुर्गन्ध नाशक व सुगन्ध के प्रसारक पदार्थ घृत, केसर, कस्तूरी आदि का उपयोग भी यज्ञ में आहुति देने में किया जाता है। यज्ञ में गोघृत सहित ओषधियों व वनस्पतियों से निर्मित साकल्य की जो आहुतियां दी जाती हैं वह अग्नि में जलकर सूक्ष्म व अति सूक्ष्म होकर वायुमण्डल में चारों दिशाओं सहित ऊपर व नीचे की दिशा में भी फैल जाति हैं। अग्नि के उच्च ताप से सामग्री के सूक्ष्म परमाणुयुक्त हो जाने से उनकी भेदनशक्ति बढ़ जाती है। इसका अनुभव हम अग्नि में एक मिर्च को जला कर कर सकते हैं। इन सूक्ष्म भेदन शक्ति से युक्त सामग्री व आहुतियों का वायुमण्डल में प्रसार होने से मनुष्य सहित प्राणीमात्र को वायुसेवन के द्वारा लाभ मिलता है। यज्ञ धूम्र व वाष्प के सेवन से मनुष्य स्वस्थ रहते हैं। सभी रोगों पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है। रोग दूर हो जाते हैं। यज्ञ करने वाले व्यक्ति को अन्यों से बहुत कम रोग होते हैं। उनका मन स्वस्थ व शान्त रहता है। यज्ञकर्ता मनुष्य जीवन उन्नति के कार्यों में संलग्न रहता है। यज्ञ करते हुए वेदमन्त्रों का उच्चारण करने से मन्त्रों में निहित प्रार्थना के अनुरूप ईश्वर का सहाय व आशीर्वाद भी यज्ञकर्ता मनुष्य को प्राप्त होता है। यज्ञ कर्म से पुण्य एवं शुभ कर्मों में वृद्धि होने से मनुष्य को यज्ञ न करने वाले मनुष्यों की तुलना में अधिक सुख एवं पारमार्थिक लाभ होते हैं। जीवन में वैदिक परम्परा का पालन करते हुए यज्ञ करने से हमारा परजन्म वा पुनर्जन्म सुखों की निश्चित गारण्टी होता है। अतः सुख व कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को प्रतिदिन प्रातः व सायं अग्निहोत्र देवयज्ञ अवश्य ही करना चाहिये। यज्ञ करने से ईश्वर तथा अपने पूर्वज प्राचीन ऋषियों की आज्ञा का पालन करने से हम कृतघ्न नहीं बनेंगे और हमें देख कर सात्विक प्रवृत्ति के कुछ लोग भी हमसे प्रेरणा लेकर अपना सुधार कर सकते हैं। इन यज्ञीय लाभों के कारण यज्ञ सब मनुष्यों के लिए करणीय है।
आर्यसमाज में एक यज्ञ प्रेमी यशस्वी विद्वान जिन्हें पं. वीरसेन वेदश्रमी, इन्दौर हुए हैं। उन्होंने अपने जीवन में अनेक स्थानों पर वृहद यज्ञों का आयोजन किया। उन्होंने यज्ञ से अकाल व सूखे के दिनों में वर्षा भी कराई थी तथा अनेक असाध्य गूंगे, बहरे तथा हृदय रोगियों को भी स्वस्थ किया था। उनकी कुछ पुस्तकें भी हैं जिनका प्रकाशन व प्रचार होना चाहिये जिसे पढ़कर लोगों को यज्ञ करने की प्रेरणा मिलेगी। अनुमान किया जाता है कि जिस देश के सभी व अधिकांश लोग प्रतिदिन यज्ञ करेंगे वहां न तो अतिवृष्टि होगी, न सूखा पड़ेगा, न अकाल मृत्यु होगी और न ही भूकम्प व कोरोना आदि आपदायें व महामारियां आयेंगी। आर्यसमाज सहित भारत सरकार को यज्ञ से होने वाले सभी लाभों पर अनुसंधान कराना चाहिये। जब सरकार देश के धन से चलती है और लोगों के हित में काम करती है तो उसे यज्ञ के लाभों पर अनुसंधान कराकर उसके लाभों का प्रचार भी अवश्य करना चाहिये और यज्ञ करने विषयक सामाजिक नियम भी बनाने चाहिये। हमें लगता है कि यज्ञ करना सभी मनुष्यों के हित में होने से यज्ञ करना व कराना किसी मनुष्य व प्राणी की हानि का कार्य नहीं है। इसे केवल वैदिक धर्म से जोड़ना भी उचित नहीं है। यज्ञ करना तो प्रत्येक मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है। यह तो सृष्टिकर्ता की वेद आज्ञा के पालन के लिये सब मनुष्यों द्वारा अनिवार्यतः किया जाना चाहिये। हमने देखा व पढ़ा है कि जब भोपाल में गैस त्रासदी हुई थी तो वहां विषैली गैस के प्रभाव से हजारों लोग मरे व प्रभावित हुए थे वहीं एक याज्ञिक परिवार, जो प्रतिदिन यज्ञ करते थे, उन्हें किसी प्रकार की जान व माल की हानि नहीं हुई थी। मनुष्य जीवन को सुखी रखने सहित मेधा बुद्धि की प्राप्ति, बल की वृद्धि, आरोग्य, जीवन-उन्नति, यश-वृद्धि आदि की दृष्टि से भी अग्निहोत्र यज्ञ का महत्व है। सभी लोगों को ऋषि दयानन्द के यज्ञ विषयक विचारों को पढ़ना चाहिये और इनका सेवन करके अपने व अपने संगी साथियों के जीवनों को सुखी व यशस्वी बनाने में सहयोग करना चाहिये। ब्रह्म-यज्ञ एवं देवयज्ञ-अग्निहोत्र सहित इतर तीन पंचमहायज्ञों पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेव-यज्ञ को भी सबको जानना चाहिये व आचरण में लाना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य