हमारा यह संसार अनादि काल से बना हुआ है जिसे इसके कर्ता ‘सृष्टिकर्ता’ अर्थात् सर्वशक्तिमान ईश्वर ने बनाया है। संसार का यह स्वाभाविक नियम है कि कोई भी पदार्थ कर्ता के द्वारा ही बनाया जाता है। कर्ता द्वारा ही किसी पदार्थ का स्वरूप परिवर्तन भी किया जाता है जिसे भी निर्माण की संज्ञा दी जाती है। पदार्थों में जो परिवर्तन देखे जाते हैं उसके पीछे कई कारण होते हैं। अपने आप न तो कोई वस्तु बनती है और न ही बिगड़ती है। वस्तु के बनने का एक निमित्त कारण होता है। इसी प्रकार हमारी यह सृष्टि भी अपने आप नहीं बनी है। इसे एक सृष्टिकर्ता ने बनाया है। इस सृष्टि के बनने से यह स्पष्ट है कि सृष्टिकर्ता ईश्वर को सृष्टि को बनाने का ज्ञान था। केवल ज्ञान से ही किसी वस्तु या पदार्थ का निर्माण नहीं होता। हर पदार्थ का उपादान कारण होता है जिससे वह पदार्थ बनता है जिसे कोई चेतन एवं ज्ञानयुक्त सत्ता बनाती है। यह उपादान कारण भौतिक पदार्थ ही हुआ करता है। हम अपने घरों में भोजन का उदाहरण ले सकते हैं। घर में सभी वस्तुओं के होने पर भी इच्छित पदार्थ व व्यंजन अपने आप बनते नहीं है जब तक की उन्हें बनाने का ज्ञान रखने वाली सत्ता अर्थात् घर का पाचक उन पदार्थों का उपयोग कर उन्हें पकाकर भोज्य पदार्थ न बनाये। इसी प्रकार इस सृष्टि का ज्ञान तथा शक्ति से युक्त निमित्त कारण एक सर्वव्यापक ईश्वर है। सृष्टि का उपादन कारण प्रकृति है जिससे परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है।
परमात्मा इस संसार में अनादि व नित्य सत्ता है। उसका अस्तित्व अनादि काल से स्वयंसिद्ध है। उसके माता, पिता व जनक कोई नहीं हैं। परमात्मा ने न तो परमात्मा से भिन्न प्रकृति को बनाया है और न ही अल्पज्ञ चेतन जीवों को। जीव और प्रकृति भी अनादि, नित्य व सनातन सत्तायें हैं। यह तीन पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति सृष्टि में अनादि काल से अस्तित्व में है। अनादि पदार्थ का अन्त, नाश व अभाव कभी नहीं होता। एक वैज्ञानिक नियम भी है कि संसार में मनुष्य व अन्य कोई सत्ता न किसी नये पदार्थ को बना सकती है और न ही उसको नष्ट अर्थात् उसका अभाव ही कर सकती है। ईश्वर अनादि, नित्य, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक होने पर भी संसार में अभाव से किसी पदार्थ को बना नहीं सकता है। ऐसा होना ज्ञान व विज्ञान के विरुद्ध है। हां, वह प्रकृति तत्व से उसमें विक्षोभ व हलचल करके उसे ज्ञान व विज्ञान के नियमों के अनुसार प्रकृति से परमाणु, अणु व अनेक इच्छित विकारों व पदार्थों को बना सकता है। सांख्य दर्शन में त्रिगुणात्मक सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति का वर्णन है। परमात्मा इस प्रकृति में विकार उत्पन्न करके प्रकृति से ही क्रमशः महतत्व बुद्धि, उस से अहंकार, उस से पांच तन्मात्रायें सूक्ष्म भूत, दश इन्द्रियां, ग्यारहवां मन बनाता है। पांच तन्मात्रओं से परमात्मा ही पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों को बनाता है। प्रकृति से ही इसके तेईस विकार अस्तित्व में आते हैं। इन तेईस विकारों की गणना इस प्रकार है 1- महतत्व बुद्धि, 2- अहंकार, 3-7 पांच तन्मात्रायें (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द), 8-17 दश इन्द्रियां, 18- मन तथा 19-23 पृथिवी आदि पांच महाभूत। प्रकृति के इन तेईस विकारों के अतिरिक्त संसार में अन्य दो अनादि तत्व ईश्वर व जीवात्मायें हैं। इस प्रकार इन पच्चीस पदार्थों से मिलकर यह सारा ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है। इस सृष्टि सहित हमारे शरीर, समस्त भौतिक पदार्थों तथा वनस्पति जगत् को बनाने में इन तेईस पदार्थों का ही उपयोग परमात्मा ने किया है। इस प्रकार ईश्वर एक सत्यस्वरूप वाली यथार्थ व वास्तविक सत्ता है। ईश्वर असत्य व काल्पनिक सत्ता नहीं है। वह संसार में विद्यमान है तथा वेदाध्ययन कर योगी व उपासक जन उसके गुणों आदि का ध्यान कर अपनी आत्मा में उसका साक्षात्कार वा उसका अनुभव करते हैं।
सृष्टि में विद्यमान ईश्वर चेतनस्वरूप वाला है। चेतन ज्ञानयुक्त सत्ता को कहते हैं। प्रकृति, जो इस सृष्टि का उपादान कारण है, वह एक जड़ व निर्जीव सत्ता है। उसमें चेतन व ज्ञानादि गुण नहीं है। जड़ पदार्थों को सुख व दुःख की अनुभूति नही होती परन्तु चेतन पदार्थ को सुख व दुःख की अनुभूति होती है। चेतन पदार्थ में ज्ञान को ग्रहण व धारण करने तथा उसका सदुपयोग कर उससे सुखों की प्राप्ति की जाती है। परमात्मा चेतन सत्ता है। वह अनादि काल से है। वह सर्वज्ञ अर्थात् सभी विद्याओं व ज्ञानों से युक्त सत्ता है। उसके लिये संसार में जानने योग्य कुछ भी नहीं है। वह पहले ही जीवों के कर्मों की अपेक्षा से सब कुछ जानता है। समस्त ज्ञान उसके स्वरूप में अधिष्ठित हैं। उसे अपने स्वरूप का भी ज्ञान है तथा प्रकृति का भी पूर्ण ज्ञान है। सृष्टि की रचना करने, उसका पालन व संचालन करने सहित प्रलय करने का ज्ञान भी परमात्मा को अनादि काल से है। ईश्वर में सृष्टि की रचना करने का सामर्थ्य भी अनादि है। इसी गुण व शक्तिरूप (ईश्वर सर्वशक्तिमान है) सामथ्र्य से वह सर्ग काल के आरम्भ में प्रकृति से इस सृष्टि की रचना करते हैं। हमारा सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, संसार के समस्त सौर्य मण्डल, नक्षत्र, पृथिवीस्थ सभी पदार्थ, वनस्पतियां व फल, पर्वत, नदियां व समुद्र आदि भी परमात्मा ने प्रकृति के द्वारा ही अपनी सामथ्र्य से बनाये हैं। सृष्टि प्रवाह से अनादि है। परमात्मा अनादि काल से इस प्रकृति से सृष्टि की रचना व पालन तथा अन्त में प्रलय करता आ रहा है। परमात्मा अमर व अविनाशी है। प्रकृति भी अमर व अविनाशी है। अतः इस सृष्टि के बाद प्रलय होगी और उसके बाद भी सृष्टि रचना व पालन आदि का यह प्रवाह निरन्तर चलता रहेगा। परमात्मा चेतन, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान होने से ही इस सृष्टि का निर्माण, पालन व प्रलय करने में समर्थ होता है। यदि ईश्वर चेतन न होता तो उससे इस सृष्टि की रचना व पालन कदापि न हो सकता। अतः यह स्वीकार करना पड़ता है कि ईश्वर चेतन है। समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार कर उसके स्वरूप का प्रत्यक्ष किया जा सकता है। इससे ईश्वर की सत्ता के प्रति किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं रहती। अतः ईश्वर एक चेतन सत्ता है यह स्पष्ट हो जाता है।
ईश्वर आनन्दस्वरूप है। आनन्द सुख को कहते हैं। सभी चेतन सत्तायें सुख को प्राप्त होना चाहती हैं। ईश्वर एकमात्र ऐसी चेतन सत्ता है जो आनन्दस्वरूप अर्थात् आनन्द से युक्त है। ईश्वर का आनन्द नैमित्तिक नहीं है अपितु यह स्वभाविक है और सदा से अर्थात् अनादि काल से उसमें है और सदैव रहेगा। इस आनन्द गुण के कारण ईश्वर के अपने लिये संसार में कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है। वह अपने आनन्दस्वरूप में मग्न रहता है। ईश्वर आनन्दस्वरूप है इसका अनुभव सभी जीवों को भी मिलता है। जब हम गहरी निद्रा में होते हैं तो हमें सुख की प्राप्ति होती है। कई दिनों से किसी रोग के कारण यदि कोई व्यक्ति सो न सके तो जब उसे गहरी नींद आती है तो वह स्वयं को सुखी एवं ताजगी से युक्त अनुभव करता है। वह पूछने पर बोल उठता है कि आज उसे बहुत आनन्द की नींद आई। यह आनन्द निद्रावस्था में ईश्वर के सान्निध्य में ही प्राप्त होता है। नींद में आनन्द आने की गुत्थी अन्य किसी हेतु से सुलझती नहीं है। नींद में आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध शिथिल हो जाता है। हम समझते हैं कि जिस मात्रा में शरीर से सम्बन्ध शिथिल होता है, वह उतना व कुछ मात्रा में परमात्मा से जुड़ता है। इसी कारण गहरी निद्रा में जीव व आत्मा को सुख की अनुभूति होती है। निद्रा का यह सुख संसार के भौतिक पदार्थों की तुलना में जीवों को उनसे कहीं अधिक अनुभव होता है। मनुष्य के पास संसार के सुखदायक सभी भौतिक पदार्थ हों परन्तु यदि उसे नींद न आये तो सभी पदार्थ दुःखरूप हो जाते हैं। इस प्रकार ईश्वर के सान्निध्य का सुख विशेष महत्व रखता है और यह सुख ईश्वर के आनन्द के आत्मा में संचरण से प्राप्त होता है, ऐसा हम अनुभव करते हैं।
ईश्वर आनन्दमय सत्ता है। जीव वा आत्मा भी एक अल्प परिमाण, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ, अल्पसामथ्र्य से युक्त, अनादि, नित्य, सनातन, जन्म-मरण धर्मा सत्ता है। आत्मा के स्वरूप में स्वाभाविक सुख व आनन्द विद्यमान नहीं है। अतः इसे सुख व आनन्द की अपेक्षा रहती है। यह आनन्द यह भौतिक पदार्थों में ढूंढती है। इन्द्रियों के द्वारा भौतिक पदार्थों से सीमित मात्रा में सुख का अनुभव करती है। वेदाध्ययन करने वाले ज्ञानीजन भौतिक पदार्थों में न्यून मात्रा में अस्थाई सुख व उसके परिणाम में दुःखों की प्राप्ति को जानते हैं। अतः वह आनन्द के अजस्र स्रोत आनन्दमय ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के द्वारा उसके स्थाई आनन्द को प्राप्त करने के लिये ज्ञान से युक्त होकर सन्ध्या, ध्यान, उपासना, भक्ति, आराधना, पूजा वा ईश्वर की संगति में अपना पुरुषार्थ करते हैं। महर्षि पतंजलि ने ईश्वर की उपासना के लिये योगदर्शन शास्त्र की रचना की है। इसका अध्ययन, प्रयोग अथवा अभ्यास करने से मनुष्य ध्यान व समाधि को प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार करता है। ध्यान व समाधि अवस्था में योगी का आत्मा परमात्मा से जुड़ जाता है। अतः उसे ईश्वर के परम तृप्तिदायक आनन्द का अनुभव होता है। यह ऐसा आनन्द कहा जाता है कि जिसके समान संसार के सभी सुख फीके होते हैं। ईश्वर के साक्षात्कार से मनुष्य व आत्मा के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। वह ईश्वर सहित सृष्टि के अधिकांश रहस्यों को प्राप्त होकर ईश्वर भक्ति में ही रमण करता है। ईश्वर का साक्षात्कार ही आत्मा की सर्वोच्च गति व स्थिति है। इसी से जीवात्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस आनन्द की प्राप्ति के लिये ही जीव जन्म-जन्मान्तरों में भटकता रहता है। उससे अज्ञान व लोभ आदि के कारण दुष्ट व पाप कर्म हो जाते हैं जिसे उसे भोगने के लिये पशु, पक्षी आदि नीच योनियों में भी जाना पड़ता है जहां दुःखों की भरमार होती। उसको विराम व विश्राम मनुष्य योनि को प्राप्त होकर समाधि व मोक्ष की अवस्था में ही प्राप्त होता है। ईश्वर के आनन्दस्वरूप होने से उसे आनन्द की अवस्था समाधि लगने पर प्राप्त रहती है। जो व्यक्ति वेदाध्ययन करते हैं वह भी जीवात्मा के लक्ष्य समाधि व मोक्षानन्द को जानकर वेदमार्ग पर चलकर अजस्र व चिर आनन्दरूपी मोक्ष को सिद्ध करते हैं। यही जीवात्मा का चरम लक्ष्य है। इसे प्राप्त कर जीवात्मा को कुछ और प्राप्त करना शेष नहीं रहता।
ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्दस्वरूप अर्थात् सच्चिदानन्दस्वरूप है। यह सर्वथा सत्य है। इस विषय की हमने लेख में चर्चा की है। हम आशा करते है कि हमारे पाठक-मित्र इस लेख को पसन्द करेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य