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धर्म-अध्यात्म

ग्रृहस्थ आश्रम और यजुर्वेद

यजुर्वेद के अनुसार (महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा किया गया भाष्य)
२) ॥अध्याय ८ मंत्र १० ।।
भावार्थ – इस संसार में मनुष्यजन्म को पाकर स्त्री और पुरुष ब्रह्मचर्य्य, उत्तम विद्या, अच्छे गुण और पराक्रमयुक्त होकर विवाह करें। विवाह की मर्यादा ही से सन्तानों की उत्पत्ति और रतिक्रीड़ा से उत्पन्न हुए सुख को प्राप्त होकर नित्य आनन्द में रहें। विना विवाह के स्त्री-पुरुष वा पुरुष-स्त्री के समागम की इच्छा मन से भी न करें। जिससे मनुष्यशक्ति की बढ़ती होवे, इससे गृहाश्रम का आरम्भ स्त्री-पुरुष करें।

३)॥ अध्याय ८ मंत्र ३३
भावार्थ – गृहाश्रम के आधीन सब आश्रम हैं और वेदोक्त श्रेष्ठ व्यवहार से जिस गृहाश्रम की सेवा की जाय, उससे इस लोक और परलोक का सुख होने से परमैश्वर्य्य पाने के लिये गृहाश्रम ही सेवना उचित है।

४)॥ अध्याय ११ मंत्र ७१
भावार्थ – कन्या को चाहिये कि अपने से अधिक बल और विद्या वाले वा बराबर के पति को स्वीकार करे, किन्तु छोटे व न्यून विद्या वाले को नहीं। जिस के साथ विवाह करे उसके सम्बन्धी और मित्रों को सब काल में प्रसन्न रक्खे।

५)॥अध्याय ११ मंत्र ७२
भावार्थ – मनुष्यों को चाहिये कि अपनी कन्या वा पुत्र का समीप देश में विवाह कभी न करें। जितना ही दूर विवाह किया जावे, उतना ही अधिक सुख होवे, निकट करने में कलह ही होता है॥

६)॥अध्याय ११ मंत्र ७४
भावार्थ – जिस पुरुष से पुरुष वा स्त्री का व्यवहार सिद्ध होता हो, उस के अनुकूल स्त्री-पुरुष दोनों वर्त्तें। जो स्त्री का पदार्थ है, वह पुरुष का और जो पुरुष का है, वह स्त्री का भी होवे। इस विषय में कभी द्वेष नहीं करना चाहिये, किन्तु आपस में मिलकर आनन्द भोगें॥

७)॥अध्याय ११ मंत्र ५
भावार्थ – जो स्त्री न होवे तो बालकों की रक्षा होना भी कठिन होवे। जिस स्त्री से पुरुष बहुत सुख और पुरुष से स्त्री भी अधिकतर आनन्द पावे, वे ही दोनों आपस में विवाह करें॥

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