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इतिहास के पन्नों से

*डॉ. अंबेडकर का संस्कृत प्रेम

इतिहास की पड़ताल पुस्तक से

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के एक ऐसे नेता रहे हैं, जिन्होंने अपनी प्रतिभा और योग्यता के बल पर अपना विशेष सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त किया। वह भारतीय संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे और प्रारूप समिति के अध्यक्ष के नाते उन्होंने संविधान में वही लिखा जो उनसे संविधान सभा के सदस्यों ने लिखवाया। ज्ञात रहे कि हमारी संविधान सभा में कुल 289 सदस्य थे। वे सभी देश की संविधान सभा में उपस्थित रहकर विशेष बिंदुओं पर या संविधान के विशेष अनुच्छेदों पर अपने अपने विचार व्यक्त करते थे और जो बात सर्व सम्मत रूप से निर्णीत हो जाती थी उसे प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉक्टर अंबेडकर के पास भेज दिया जाता था। जिसे वह लिपिबद्ध कर लिया करते थे। इस प्रकार भारत का संविधान 289 सदस्यों के मस्तिष्क की उपज है ना कि अकेले बाबासाहेब के मस्तिष्क की उपज। इस संविधान के प्रति डॉ. अंबेडकर स्वयं भी बहुत अधिक निष्ठावान नहीं थे। 2 सितंबर 1953 को देश की संसद के ऊपरी सदन राज्यसभा में उन्होंने इस संविधान के प्रति अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा था कि मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि संविधान मैंने बनाया है। लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूँ कि इसे जलाने वाला पहला व्यक्ति भी मैं ही होऊँगा। आज के अंबेडकर वादियों ने डॉ. अंबेडकर की जिस प्रकार छवि बनाई है उससे ऐसा लगता है कि जैसे वह भारत को तोड़ने वाली शक्तियों के समर्थक थे। जबकि वह ‘जय भीम और जय मीम’ का नारा लगाने वालों के विरोधी थे। डॉक्टर अंबेडकर के साथ ऐसा भी नहीं था कि वह हिंदू समाज से विद्रोह रखते थे या संस्कृत और भारतीय संस्कृति के प्रति उनके हृदय में कोई सम्मान नहीं था।

डॉ. अंबेडकर की यह विशेषता रही कि वह कभी भी दोगली बातों में विश्वास नहीं करते थे। गांधी और नेहरू की भाँति वह किसी अवसर विशेष पर चुप न रहकर अपनी स्पष्ट राय प्रकट करते थे। डॉ. अंबेडकर गांधी और नेहरू की भाँति दोगली राजनीति ना करते हुए मुस्लिम तुष्टीकरण को उचित नहीं मानते थे। गांधी नेहरू की भाँति वे भारतीय संस्कृति के भी विरोधी नहीं थे। डॉ. अंबेडकर के विषय में यह भी सच है कि वे महर्षि दयानंद द्वारा मनुस्मृति की की गई व्याख्या से भी सहमत और संतुष्ट थे और वे मानते थे कि मनु का वर्ण व्यवस्था का संकल्प ब्रह्मणवादी जातिवादी व्यवस्था से कहीं बेहतर और पवित्र था। जिसमें शूद्रों को भी अपना विकास करने का पूर्ण अवसर उपलब्ध था। वे भारतीय संस्कृति में उल्लेखित संस्कारों के भी समर्थक थे।

अब भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शरद बोबडे ने हमारे इसी मत पर अपनी सहमति की मुहर लगाते हुए (15 अप्रैल, 2021 को) स्पष्ट कहा है कि बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने सबसे पहले संस्कृत को देश की आधिकारिक भाषा बनाने का प्रस्ताव दिया। उन्होंने कहा कि बाबासाहेब को देश की समझ थी, इसलिए उन्होंने इसका प्रस्ताव दिया लेकिन यह पास नहीं हो सका। संस्कृत को देश की आधिकारिक भाषा बनाने के उनके इस प्रस्ताव से पता चलता है कि उनका संस्कृत और भारत की संस्कृति में कितना प्रगाढ़ विश्वास था? वह केवल उस ब्राह्मणवादी व्यवस्था को उचित नहीं मानते थे, जिसमें किसी वर्ग विशेष के मौलिक अधिकारों का उत्पीड़न करने की सोच एक वर्ग ने अपना लाभ देखकर पैदा कर ली थी।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बोबड़े ने महाराष्ट्र राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के शैक्षणिक भवन के उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए उपरोक्त बात कही। इस अवसर पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, केंद्रीय मंत्री और नागपुर से सांसद नितिन गडकरी तथा अन्य लोगों ने डिजिटल तरीके से आयोजित कार्यक्रम में भागीदारी की।

संस्कृत के प्रति डॉक्टर अंबेडकर का इतना लगाव केवल इसलिए था कि वह यह भली प्रकार जानते थे कि हमारे प्राचीन भारतीय ग्रंथ न्यायशास्त्र किसी भी हाल में अरस्तू और फासर के तर्क शास्त्रीय प्रणाली से कम नहीं हैं, लेकिन हमने इसे महत्त्व नहीं दिया। यदि डॉक्टर अंबेडकर की इस बात को संविधान सभा और देश का नेतृत्व उस समय स्वीकार कर लेता कि संस्कृत को देश की आधिकारिक भाषा बनाया जाए तो आज ज्ञान विज्ञान के अनेकों रहस्यों से पर्दा उठ सकता था। तब भारतीय संस्कृति का डंका विश्व मंचों पर बज रहा होता, परंतु दुर्भाग्यवश उस समय देश का नेतृत्व नेहरू के हाथों में था जो भारत की संस्कृत और संस्कृति से प्यार ना करके अंग्रेजों की अंग्रेजी और अंग्रेजियत से प्यार करते थे।

हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भारतवर्ष में दक्षिण में जिस हिंदी का विरोध किया जाता है वह संस्कृतनिष्ठ हिंदी या संस्कृत न होकर वह हिंदी है जिसे नेहरू और गांधी ने मुसलमानों को खुश करने के लिए उर्दू मिश्रित खिचड़ी भाषा के रूप में विकसित करने का अतार्किक और मूर्खतापूर्ण निर्णय लिया था।

डॉ. अंबेडकर की इस विषय में स्पष्ट सोच थी कि तमिल या मलयालम उत्तर भारत के लोगों के लिए सहज स्वीकार्य नहीं हो सकती। वैसे ही गांधी और नेहरू की हिंदी खिचड़ी भाषा भी दक्षिण के लोगों के लिए सहज स्वीकार्य नहीं है, परंतु संस्कृत एक ऐसी भाषा है जिस पर उत्तर दक्षिण-पूर्व पश्चिम सारा भारतवर्ष एक साथ अपनी सहमति की मुहर लगा सकता है। अभिप्राय है कि दक्षिण भारत के लोग गांधी नेहरू की हिंदी खिचड़ी भाषा के विरोधी हैं ना कि संस्कृत या संस्कृत निष्ठ हिंदी भाषा के।

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने जब अपना धर्म परिवर्तन करने का मन बनाया तो वह उस समय भी वैदिक हिंदू धर्म के सर्वथा निकट बौद्ध धर्म में ही गए। इससे अलग किसी दूसरे धर्म को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। क्योंकि अन्य मजहबों को लेकर उनकी यह स्पष्ट मान्यता थी कि इनमें जाने का मतलब हिंदुस्तान विरोधी हो जाना है। सन् 1950 के दशक में भीमराव अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गये। पुणे के पास एक नये बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए, डॉ. अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं और जैसे ही यह समाप्त होगी वह औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे। 1954 में अम्बेडकर ने म्यानमार का दो बार दौरा किया। दूसरी बार वो रंगून में तीसरे विश्व बौद्ध फैलोशिप के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये। 1955 में उन्होंने 'भारतीय बौद्ध महासभा' यानी 'बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया' की स्थापना की। उन्होंने अपने अंतिम प्रसिद्ध ग्रंथ, 'द बुद्ध एंड हिज धम्म' को 1956 में पूरा किया। यह उनकी मृत्यु के पश्चात् सन् 1957 में प्रकाशित हुआ।

 इस ग्रंथ की प्रस्तावना में अम्बेडकर ने लिखा है कि मैं बुद्ध के धम्म को सबसे अच्छा मानता हूँ। इससे किसी धर्म की तुलना नहीं की जा सकती है। यदि एक आधुनिक व्यक्ति जो विज्ञान को मानता है, उसका धर्म कोई होना चाहिए, तो वह धर्म केवल बौद्ध धर्म ही हो सकता है। सभी धर्मों के घनिष्ठ अध्ययन के पच्चीस वर्षों के बाद यह दृढ़ विश्वास मेरे बीच बढ़ गया है।

"मैं भगवान बुद्ध और उनके मूल धर्म की शरण जा रहा हूँ। मैं प्रचलित बौद्ध पन्थों से तटस्थ हूँ। मैं जिस बौद्ध धर्म को स्वीकार कर रहा हूँ, वह नव बौद्ध धर्म या नवयान है। उनके इस प्रकार के प्रयास से पता चलता है कि वह हीनयान और महायान के प्रचलित बौद्ध संप्रदायों से अलग एक तीसरे ऐसे तटस्थ नवयान का अभियान चलाना चाहते थे जो भारत समर्थक हो और भारतीय संस्कृति में आस्था और विश्वास रखता हो। इस नवयान संप्रदाय के माध्यम से वह भारत में जातिविहीन समाज की स्थापना करने के समर्थक थे। वास्तव में यह जाति विहीन समाज मनु की वर्ण व्यवस्था के अनुकूल ही था।

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर शहर में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने स्वयं और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक धर्मांतरण समारोह का आयोजन किया। प्रथम डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पत्नी सविता एवं कुछ सहयोगियों के साथ भिक्षु महास्थविर चंद्रमणि द्वारा पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने अपने 5,00,000 अनुयायियो को त्रिरत्न, पंचशील और 22 प्रतिज्ञाएँ देते हुए नवयान बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया।

वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन गैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक् किया जा सके इसलिए अंबेडकर ने अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएँ स्वयं निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म के दर्शन का ही एक सार है। यह प्रतिज्ञाएँ हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह में न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं। नवयान को लेकर अम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। अंबेडकर ने दूसरे दिन 15 अक्टूबर को फिर वहाँ अपने 2 से 3 लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, यह यह अनुयायी थे जो 14 अक्टूबर के समारोह में नहीं पहुँच पाये थे या देर से पहुँचे थे। अंबेडकर ने नागपुर में करीब 8 लाख लोगों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, इसलिए यह भूमि दीक्षाभूमि नाम से प्रसिद्ध हुई। तीसरे दिन 16 अक्टूबर को अंबेडकर चंद्रपुर गये और वहाँ भी उन्होंने करीब 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह केवल तीन दिन में अंबेडकर ने स्वयं 11 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर विश्व के बौद्धों की संख्या 11 लाख बढ़ा दी और भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित किया।

उनके द्वारा बढ़ाई गई यह जनसंख्या आज देश के लिए सिरदर्द बन रही है।

यदि आज के अंबेडकरवादियों की गतिविधियों पर दृष्टिपात किया जाए तो वे डॉ. अम्बेडकर की विचारधारा से बहुत दूर जाकर भारत के हितों को चोट पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं। दलित साहित्य के नाम पर जिस प्रकार का साहित्य वितरित किया जा रहा है या लिखा जा रहा है वह तेजी से भारतीय उपमहाद्वीप में किसी नए उपद्रव या उग्रवाद की ओर संकेत कर रहा है। जिन 1100000 लोगों को ले जाकर डॉ. अम्बेडकर ने नवयान संप्रदाय की स्थापना की उसका उद्देश्य भारत की सामासिक संस्कृति का विकास कर भारत के वैदिक चिंतन को आगे बढ़ाना था। दुर्भाग्य से उनकी यह व्यवस्था आगे नहीं बढ़ सकी और आज यह 11 लाख लोग बड़ी संख्या में होकर देश के हितों के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। वह ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के विरोधी थे ना कि वैदिक व्यवस्था के। कितना अच्छा होता कि उनके मानने वाले उनके विचारों को समझ कर भारत की वैदिक संस्कृति के अनुसार भारत का निर्माण करने के लिए संकल्पित होते, लेकिन जिस प्रकार के रास्ते पर यह लोग बढ़ते जा रहे हैं उसको देखकर तो यही कहा जा सकता है कि जिस अखंड भारत की संकल्पना डॉ. अम्बेडकर ने की थी उस की एकता और अखंडता को तार तार करना उनके मानने वालों का उद्देश्य बन गया है। वश चले तो मैं इसे जलाने वाला पहला व्यक्ति होऊँगा।

क्रमशः

डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)

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