भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भाग – 412[ हिंदवी स्वराज्य के संस्थापक शिवाजी और उसके उत्ताधिकारी पुस्तक से ..] *शिवाजी द्वितीय और महारानी ताराबाई –

इससे पहले कि हम इस अध्याय के बारे में कुछ लिखें मैथिली शरण गुप्त की इन पंक्तियों रसास्वादन लेना उचित होगा-

‘हाँ! वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है।
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?
भगवान की भवभूतियों का यह प्रथम भंडार है।
विधि ने किया नर सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है।।

राजनीति को केवल सत्ता संघर्ष तक सीमित करके देखना स्वयं राजनीति के और इतिहास के साथ अन्याय करना है। परंतु राजनीति सदा ही सत्ता संघर्ष के लिए नहीं होती है। इतिहास के अनेकों अवसर ऐसे आये हैं जब राजनीति किसी क्रूर तानाशाह, अत्याचारी व निर्दयी शासक को हटाने के लिए भी की जाती है और जब यह ऐसे शासक के विरुद्ध की जाती है तो उस समय यह राजनीति न होकर राष्ट्रनीति होती है, क्योंकि राष्ट्रनीति के अंतर्गत ऐसे दुष्टाचारी और पापाचारी शासक को हटाना प्रत्येक राष्ट्रभक्त का कार्य होता है। राजनीति सत्ता संघर्ष के लिए तब मानी जाती है, जब वह किसी न्यायपूर्ण शासक को हटाकर सत्ता पर अपना नियंत्रण स्थापित कर दुष्ट लोगों के द्वारा की जाती है। अन्यायी शासक को सत्ता से हटाना राष्ट्रनीति का प्रमुख कार्य है। जो लोग जिस काल में भी इस पवित्र कार्य में लगे रहे हैं, उन्हें राष्ट्रनीति के पवित्र राष्ट्रधर्म को अपनाने वाला महानायक घोषित किया जाना इतिहास का प्रथम कर्तव्य है।

भारतीय इतिहास के संदर्भ में यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि हमारे देश के हिंदू शासकों ने यद्यपि स्वदेश की स्वतंत्रता के लिए दुष्ट, अत्याचारी, क्रूर विदेशी सत्ताधीशों से संघर्ष किया और जब लड़ते-लड़ते या तो प्रमुख राजा मर गया या उसके परिवार में कोई योग्य उत्तराधिकारी न रहा तो उस समय किसी रानी ने या किसी अन्य प्रमुख व्यक्ति ने सामने आकर जब शासन करना आरंभ किया या उस शासन पर एकाधिकार कर स्वतंत्रता के संघर्ष को आगे बढ़ाने का सराहनीय कार्य किया तो उसे भी स्वार्थपूर्ण सत्ता संघर्ष कहकर अपमानित करने का प्रयास किया गया। उदाहरण के रूप में हम रानी लक्ष्मीबाई को ले सकते हैं। जिनके राज्य को अंग्रेज अपने राज्य में मिलाने के लिए बहाना खोज रहे थे, परंतु रानी ने अपने गोद लिए पुत्र को राजा बनाने और देश के स्वाधीनता संघर्ष को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। ऐसे में रानी का यह साहसिक निर्णय स्वार्थपूर्ण सत्ता संघर्ष न होकर देश की मान्य परंपरा अर्थात दत्तक पुत्र भी राज्य का अधिकारी हो सकता है-की स्थापना करने के लिए न्यायपूर्ण संघर्ष था। जिसका उन्हें अधिकार था। इसके उपरांत भी रानी के इस संघर्ष को स्वार्थपूर्ण संघर्ष कहकर इतिहास में अपमानित किया गया है, जो कि सर्वथा दोषपूर्ण है।

छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य में भी ऐसे कई अवसर आए जब न्यायपूर्ण शासन की स्थापना के लिए किसी रानी को या राज्य परिवार के किसी अन्य व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ा। उन्हीं में से एक महारानी ताराबाई का नाम है। जिन्हें मुगलों के विरुद्ध अपने न्यायिक अधिकारों के लिए और हिंदवी स्वराज्य की सुरक्षा के लिए युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा।

*महारानी ताराबाई (1675-1761 ई.)**

नारी भी उनकी होती अरि जो देश को हैं नोंचते।
रणचंडी बन उन पर टूटती जो देश को हैं कौंधते ।।
इतिहास हमारा दे रहा प्रमाण पग-पग पर यही।
संस्कृति की रक्षार्थ नारी ने भी लड़ाइयाँ हैं लड़ीं ।।

महारानी ताराबाई का मराठा इतिहास में विशेष सम्मानपूर्ण स्थान है। महारानी छत्रपति राजाराम महाराज की दूसरी पत्नी तथा छत्रपति शिवाजी महाराज के सरसेनापति हंबीरराव मोहिते की सुपुत्री थीं। जिन्होंने अपनी वीरता, शौर्य और देशभक्ति पूर्ण कार्यों से इतिहास में अपनी विशेष और अमिट पहचान छोड़ी। राजाराम महाराज के जीवन काल में ही इन्होंने मराठा राजवंश में अपना सम्मानपूर्ण स्थान बना लिया था। यह बात पूर्णतः सत्य है कि शिवाजी की मृत्यु के उपरांत मराठा शक्ति का पतन होने लगा था। यद्यपि उनके पश्चात मराठा शक्ति को बनाए रखने के लिए प्रत्येक शासक भरसक प्रयास कर रहा था। मुगलों के आक्रमण के कारण राजाराम को 1689 में जिंजी किले में शरण लेनी पड़ी थी। उस समय ताराबाई भी जिंजी पहुंची थीं। यहाँ भी मुगलों और मराठों में लगभग 8 वर्षों तक निरंतर युद्ध चलता रहा था। इसी मध्य ताराबाई ने अपने पुत्र शिवाजी को 1696 में जन्म दिया। जिंजी का किला 1697-98 में मुगलों के हाथ लगा। इस प्रकार मराठा शक्ति को अपने शानदार राजनय से प्रभावित करने वाली इस महारानी ताराबाई का जन्म 1675 में हुआ था। ताराबाई का पूरा नाम ताराबाई भोंसले था।

जिस समय राजाराम महाराज की मृत्यु हुई थी, उस समय मराठा साम्राज्य पर संकट के बादल छाए हुए थे। मुगल बादशाह औरंगजेब की भृकुटि इस राज्यवंश पर तनी हुई थी और वह इसे निगल जाना चाहता था। ऐसे में साम्राज्य के संरक्षण के लिए और हिंदवी स्वराज्य की उन्नति और विस्तार के लिए किसी महारानी ताराबाई की ही आवश्यकता थी।

शिवाजी द्वीतीय का राज्याभिषेक

राजाराम की मृत्यु के बाद महारानी ने अपने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी तृतीय का राज्याभिषेक करवाया और स्वयं मराठा साम्राज्य की संरक्षिका बन गयीं। उस समय मराठा साम्राज्य का संरक्षक बनने का अर्थ था औरंगजेब जैसे बादशाह की शत्रुता मोल लेना। इस शत्रुता में राज्य भी जा सकता था और प्राण भी जा सकते थे। पर जो वीर और साहसी पुरुष होते हैं, वह बाजी में दांव पर क्या लगा है? यह नहीं देखते, अपितु हर स्थिति में बाजी जीतने पर ध्यान रखते हैं। अतः रानी ने बाजी जीतने के लिए बड़ा दाँव लगा दिया अर्थात अपने पुत्र को काँटों का ताज पहनाकर स्वयं उसकी संरक्षिका बन गई।

ताराबाई का विवाह छत्रपति शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम प्रथम के साथ हुआ था। जिनके विषय में हम पूर्व के अध्याय में स्पष्ट कर चुके हैं कि वह 1689 से लेकर 1700 तक मराठों के हिंदवी स्वराज्य के राजा रहे। जब सन 1700 में राजाराम महाराज की मृत्यु हो गई तो अपने नाबालिग राजकुमार की संरक्षिका बनकर शासन की बागडोर अप्रत्यक्ष रूप से महारानी ताराबाई ने संभाली। रानी शिवाजी महारोज के महान कार्यों से भली प्रकार परिचित थीं और वह जानती थीं कि उन्होंने किस भावना और कामना के वशीभूत होकर हिंदवी स्वराज्य की स्थापना की थी ? अतः उन्होंने अपने सुपुत्र का शिवाजी द्वितीय के नाम से ही राज्याभिषेक कराया। जिससे कि उसके भीतर अपने महान पूर्वज छत्रपति शिवाजी महाराज जैसी देशभक्ति व धर्मभक्ति उत्पन्न हो और वह उन जैसे महान कार्यों के लिए ही इतिहास में जाना जाए

 अपने 4 वर्षीय सुपुत्र शिवाजी द्वीतीय की संरक्षिका रहते हुए रानी ताराबाई ने औरंगजेब का निरंतर 7 वर्ष तक सामना किया। 1704 ई. तक ताराबाई के हाथ विजय श्री न लगी। मुगलों ने इस काल में मराठों से उनके अनेक किले छीन लिए थे। इनमें पेड़गांव, पुरंदर व सिंहगढ़ के अति महत्वपूर्ण किले भी सम्मिलित थे। इतना ही नहीं उन्होंने कई सरदारों को एक करके अपनी एकता का परिचय देते हुए मुगल सत्ता को नाकों चने चबाए।

रानी का स्थानीय शासन प्रबंध

महारानी ताराबाई एक योग्य प्रशासिका भी थीं। जिसका परिचय वह अपने पति राजाराम महाराज के समय से ही देती चली आ रही थीं। जब उनके पुत्र शिवाजी द्वीतीय ने सिंहासन संभाला तो उस समय सारा शासन प्रबंध रानी के ऊपर ही था, क्योंकि राजा अभी नाबालिग था। अतः स्थानीय शासन प्रबंध के लिए ताराबाई ने विभिन्न सरदारों को जागीरें देकर प्रसन्न किया था। जिससे कि इन सरदारों के विश्वास और निष्ठा को जीता जा सके और समय आने पर उनसे साम्राज्य के हित में सहायता प्राप्त की जा सके। यह सारे सरदार अपने क्षेत्रों में कार्य करने के लिए स्वतंत्र थे। रानी ने यह व्यवस्था इसलिए की जिससे कि इन जागीरदारों के मध्य किसी प्रकार का पारस्परिक विवाद उत्पन्न ना हो। इन सरदारों के लिए यह भी व्यवस्था की गई कि आक्रमण के समय ये एक दूसरे की रक्षा भी करेंगे। रानी ने जागीरें देने के उपरांत भी इन प्रांतों पर अपनी ओर से पूरी निगरानी रखने का प्रबंध किया। वह जागीरदारों को स्वतंत्र छोड़ने की समर्थक नहीं थीं, क्योंकि वह जानती थीं कि इससे वह साम्राज्य के लिए कोई भी समस्या खड़ी कर सकते थे। अतः सारे जागीरदार इस बात के लिए बाध्य किए गए. कि उन्हें छत्रपति शिवाजी द्वीतीय को कर देना ही होगा।

मुगल और मराठा 1700 ईस्वी से 1707 तक निरंतर लड़ते रहे। इस काल में होने वाले युद्ध में पूर्ण सफलता न तो मराठों को मिली और न मुगलों को।

ताराबाई अपने पुत्र को गद्दी पर बैठे देखना चाहती थी। जब औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात बहादुरशाह प्रथम ने छत्रपति साहू को दिल्ली की कैद से छोड़ दिया तो साहू ने महाराष्ट्र में आकर राज्यसिंहासन के लिए संघर्ष करना आरम्भ कर दिया। महारानी ताराबाई ने साहू को मराठा गद्दी का उत्तराधिकारी स्वीकार नहीं किया। अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के उद्देश्य से प्रेरित होकर रानी ने अपने सरदारों को शिवाजी द्वीतीय के प्रति निष्ठावान बने रहने की शपथ दिलाई। वह छत्रपति साहू को अपनी महत्वाकांक्षा के मार्ग से हटा देना चाहती थी। ऐसी परिस्थितियों में मराठों में परस्पर संघर्ष होना निश्चित हो गया। धनाजी जाधव के सेनापतित्व में एक सेना साहू के विरुद्ध युद्ध करने के लिए रानी के द्वारा भेजी गई। साहू ने नारोराम को धनाजी जाधव से मिलने को भेजा। बातचीत के पश्चात धनाजी जाधव सेना सहित साहू से मिल गए। इससे महारानी ताराबाई का पक्ष दुर्बल पड़ गया और उन्होंने अपने सरदारों को जो शपथ अपने पुत्र शिवाजी द्वितीय के प्रति निष्ठावान बने रहने की दिलाई थी वह भी निरर्थक सिद्ध हो गई। छत्रपति शाहूजी महाराज ने रानी की योजनाओं पर पानी फेर दिया और उसने अपने साथ आ मिले धनाजी जाधव को अपनी सेना का सेनापति बनाया।

रानी को कर लिया गया गिरफ्तार

अब सारा पासा पलट चुका था और पारी इस समय छत्रपति साहू जी महाराज के हाथों में आ चुकी थी। फलस्वरूप उसने ताराबाई और शिवाजी द्वितीय को गिरफ्तार कर कैद में डाल दिया। रानी के लिए यह अत्यंत अपमानजनक क्षण थे, क्योंकि रानी ने अब से पूर्व कभी भी न तो झुकना सीखा था और न ही अपने उद्देश्य को प्राप्त करने से पहले कहीं रुकना सीखा था। परंतु परिस्थितियों ने आज उसे छत्रपति शाहूजी महाराज की कैद में पहुँचा दिया था। ताराबाई 1730ई. तक क्षत्रपति शाहूजी महाराज की कैद में रहीं। इस बीच संभाजी और उनके समर्थक कई बार साहू के राज्य में लूटपाट मचाते रहे। जिससे ताराबाई के कैद में रहने से साहू को कोई लाभ नहीं हुआ।

सन् 1730 में संभाजी और साहू में घमासान युद्ध हुआ जिसमें संभाजी पराजित हो गए। ताराबाई ने साहू के साथ रहने की इच्छा प्रकट की। साहू ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। संभाजी राजाराम महाराज की दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्र थे। जिसके प्रति रानी ताराबाई का कुछ लगाव था, इसलिए उन्होंने संभाजी के साथ रहना स्वीकार किया। उनके रहने का प्रबंध सतारा के किले में किया गया। सन् 1731 में साहू और और संभाजी परस्पर प्रेम पूर्ण ढंग से मिले। साहू ने दत्तक पुत्र लेने की इच्छा प्रकट की, क्योंकि साहू को कोई अपनी संतान नहीं थी। ताराबाई ने उत्तराधिकारी के रूप में अपने पुत्र शिवाजी के पुत्र रामराजा का नाम प्रस्तावित किया। जिसे साहू ने सहर्ष स्वीकार कर लिया इस पर ताराबाई को भी बहुत प्रसन्नता हुई।

 साहू के काल में मराठा साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा। 1749 में साहू की मृत्यु हो गई। उसके पश्चात रानी ने 1750 ई. की जनवरी में अपने पौत्र रामराजा का राज्याभिषेक कराया। रामराजा भी अपने पिता की भांति अनुभवहीन था। यह वह समय था जब मराठा साम्राज्य के सामंतों और दरबारियों में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष चल रहा था। सतारा दरबार में विभिन्न सरदार अपना प्रभाव स्थापित करने में संलग्न थे। ताराबाई और पेशवा में प्रायः मतभेद रहता था। पेशवा अपने विशिष्ट अधिकारों से वंचित नहीं होना चाहता था। ताराबाई रामराजा पर अपना प्रभाव डालना चाहती थी। इस बीच रामराजा का कार्य करना कठिन हो गया। पेशवा ने ताराबाई के समर्थकों को अपनी ओर मिलाना आरंभ किया। उन्हें या तो • पराजित किया गया या कैद किया गया। ताराबाई पेशवा की नीति और प्रभुता के आगे ना झुक सकी और पेशवा को पराजित करने की तैयारियाँ करने लगी। ताराबाई के समर्थन के लिए उमाबाई और अन्य सरदार जो ताराबाई के विरोधी थे, एकत्रित हुए। ताराबाई ने अपना प्रतिनिधि निजाम-उल-मुल्क के पास भेजा वहाँ से भी उन्हें सहायता का आश्वासन मिला।

ताराबाई ने 22 नवंबर, 1750 ई. को रामराजा को सतारा किले में कैद कर लिया। इस पर ताराबाई और पेशवा के सैनिकों में लगभग 1 वर्ष 6 माह तक युद्ध होता रहा। विवश होकर सितंबर 1752 में ताराबाई को पेशवा से संधि करनी पड़ी। इसके अनुसार ताराबाई आंतरिक कार्यक्षेत्र में स्वतंत्र थी। संधि की शर्तों के अनुसार रानी पर यह अनिवार्य शर्त लागू की गई कि वह रामराजा को अपना पोता स्वीकार नहीं करेगी।

इस समय प्रशासन का प्रबंध पूर्ण रूप से पेशवा के हाथ में था। इसके पश्चात भी ताराबाई अपना सामंजस्य पेशवा के साथ स्थापित ना कर सकी, क्योंकि वह अपना विरोध प्रकट करने से नहीं चूकती थी। जिस कारण वह अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी अत्यंत दुखी रहीं। उन्होंने देखा कि छत्रपति केवल नाममात्र के शासक रह गए थे। शासन का वास्तविक अधिकार पेशवा के हाथों में आ गया था।

14 जनवरी, 1761 में पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की हार होने के बाद जून 1761 में बालाजी बाजीराव की मृत्यु हो गई और उसके बाद ही 9 दिसंबर, 1761 में महारानी ताराबाई का भी निधन हो गया। माना कि रानी ताराबाई जब मरीं तो उससे पूर्व वह अत्यंत दुखी रहने लगी थीं। परंतु इस सब के उपरांत भी उनका जीवन बहुत ही अनुकरणीय रहा। उन्होंने पूरे जीवन भर साहस और अपनी उत्कृष्ट प्रशासनिक क्षमताओं का प्रदर्शन किया। उन्होंने शत्रु के छल के सामने समर्पण करना नहीं सीखा और शत्रु के प्रत्येक छल का पूर्ण कौशल और वीरता के साथ सामना किया। उनके यही गुण उन्हें इतिहास में अमर कर गए। यही कारण है कि आज जब भी हम मराठा साम्राज्य के महान पुरुषों और वीरांगनाओं के बारे में पढ़ते हैं तो उनमें महारानी ताराबाई का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। रानी के जीवन का यह भी एक समुज्जवल पक्ष है कि वह विदेशी सत्ताधीश औरंगजेब के शासन के लिए 1700 ईसवी से लेकर 1707 ई. तक एक महत्वपूर्ण चुनौती बनी रहीं। जिससे औरंगजेब का धन, उर्जा और शक्ति का अपव्यय रानी को रोकने में होता रहा। इसका एक लाभ यह हुआ कि उत्तर भारत में औरंगजेब अपना जितना विध्वंस मचा सकता था, उतना वह उसी प्रकार नहीं मचा पाया जिस प्रकार शिवाजी के शासन काल में नहीं मचा पाया था।

इतिहास का अध्ययन करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमें कभी- कभी प्रत्यक्ष लाभ हानि में परिवर्तित हुए दिखते हैं। परंतु अप्रत्यक्ष रूप से हमें उन हानियों का भी लाभ मिलता है और यह बात शिवाजी और उनके मराठा वंश पर पूर्णतया लागू होती है।

कुल मिलाकर निष्कर्ष रूप में रानी के जीवन के बारे में यही कहा जा सकता है कि-

कष्ट जितने भी मिले यह भी सही वह भी सही।
पर देश मेरा सुरक्षित रहे थे भाव मन में उसके यही ।।
विदेशियों के ध्वज नहीं चाहते यहाँ दीखें हमें।
हम चाहते केसरिया ही रहे हिंदवी स्वराज्य में ।।
क्रमशः

डॉ राकेश कुमार आर्य

(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)

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