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कविता

बहता चल तू बहता चल,

गाता चल तू गाता चल,
गीत ओज के गाता चल।
राष्ट्र का यौवन मचल उठे,
वही गीत निराला गाता चल।।

चार दिनों की चांदनी होती,
फिर रात अंधेरी आएगी।
चांदनी रहते पौरुष दिखला,
तभी कथा तेरी मचलाएगी।।

कोठी – बंगले, हाथी- घोड़े,
किसके साथ गए पगले ।
संसार की चिकनी फिसलन पर ,
बड़े – बड़े रावण फिसले।।

यह अहम तुझे खा जाएगा,
तू क्यों जपता इसकी माला ?
निकल अहम के बहम से बाहर,
तू मार इसे कसके भाला।।

बहता चल तू बहता चल,
सतो भाव में बहता चल।
तम-रज को तू लात मारकर,
हरि – भाव में रहता चल।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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