वेद अपौरूषेय है। सर्वप्रथम सृष्टि में परमबह्म परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि का प्रादुर्भाव कर हमें चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा के हृदय में अपौरूषेय ज्ञान क्रमशः ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को उक्त ऋषियों को दिया। इसी प्रकार सृष्टि के प्रारंभ के प्रथम सत्र में मैथुनी सृष्टि को भी उत्पन्न कर सृष्टि में समस्त जीवों में श्रेष्ठतम और उत्कृष्ट जीव मानव के रूप में ब्रह्मा आदि अनेक ऋषियों का उद्भव हुआ। ये ऋषि सभी मानवों में श्रेष्ठ और तपस्वी आत्मा थीं। इसी कारण सर्वश्रेष्ठ अमैथुनी सृष्टि के चारों ऋषियों ने ब्रह्मादि अनेकानेक ऋषियों के हृदय में अपौरुषेय ज्ञान विज्ञान को ईशादेश मानकर उनके हृदय पटल को ऋक्, यजु, साम और अथर्ववेद से प्रकाशित किया।
यही क्रम एक अरब सत्तानवें करोड़ उनतीस लाख उनपचास हजार एक सौ छब्बीस वर्ष से अनवरत चल रहा है। यह गणना महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में एक हजार चतुर्यगी के कारण प्रमाणिक होती है। यही वैदिक संस्कृति भारत भूमण्डल अर्थात् आर्यवर्त से सारे विश्व में महाभारत काल तक अपना परचम फहरा चुकी है। कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के अनुसार महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में अमेरिका के शासक बब्रूवाहन, चीन के राजा भगदत्त, यूरोप के शासक विडालाक्ष, ईरान के शासक शल्य, अफगानिस्तान आदि अनेक राजाओं ने अनेक भेंट देकर यहां की (आर्यावर्त) की अधीनता स्वीकार की थी अर्थात् वैदिक संस्कृति अनुकूल राजकीय व्यवस्थाएं थीं। वैदिक संस्कृति की पताका समस्त भूमण्डल पर थी।
इसी वैदिक संस्कृति को बोलचाल की भाषा में भारतीय संस्कृति के नाम से उच्चारित करने लगे हैं। इस भारतीय संस्कृति के आधार संस्कृत, संस्कार और संस्कृति (विचार) हैं। विचार को मंत्र कहा जाता है। संस्कृत, संस्कार, संस्कृति तीनों ही शब्द लगभग समानार्थक और एक दूसरे के पूरक हैं। संस्कृत का अर्थ है पवित्र ।दूसरा शब्द संस्कार है अर्थात् पवित्रता को आत्मसात करना। जिन सद्गुणों को धारण करने से शरीर मन हृदय और आत्मा विभूषित, सुभूषित हो जाते हैं वही संस्कार होता है। मनुष्य संस्कारों से ही द्विज होता है और तीसरा शब्द है संस्कृति अर्थात् जिन संस्कारों से मनुष्य समाज में व्यक्तित्व और कृतित्व से उच्च आदर्श एवं मान्यताएं स्थापित करता है जिसमें व्यष्टि का भाव नहीं समष्टि का भाव होता है उन्ही श्रेष्ठ विचार और स्वस्थ परंपराओं का नाम ही संस्कृति है।
वेद, वेदाङ्ग, उपनिषद, शास्त्र, रामायण, महाभारत, गीता, राम, कृष्ण, चाणक्य, बुद्ध, महावीर, गुरुनानक, महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, मदाल्सा, मैत्रेयी, गार्गी, अपाला, घोषा, अनुसूया, सुलभा, वेदवती, आदि हमारी संस्कृति के प्राण है। संपूर्ण संसार वेद को ही ज्ञान की आधारशिला मानता है। वेद से ही समस्त भूमण्डल पर ज्ञान का प्रकाश हुआ है। इस महान संस्कृति के कारण हम विश्वगुरू बने हैं। हमारे तक्षशिला, नालंदा, अवंतीपुर (उज्जैन), विक्रमशिला आदि अनेक विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान, अनुसंधान के केंद्र रहे हैं। जिस समय आर्यावर्त में प्रातः और सायंकाल वेद की ऋचाओं का उवाच सश्वर होता था उस समय यूरोप एवं अन्य सभी महाद्वीपों के लोग चमगादड़ और चिम्पांजी (वनमानुष) की तरह पेड़ों पर उल्टा लटका करते थे, बिल्कुल असभ्य लोगों की भांति रहन-सहन था यहां से शिक्षा पाकर समय का सदुपयोग करके और अपने उन्माद प्रमाद को दूर करके विश्वपटल पर छा गए और हम अत्यधिक आमोद-प्रमोद से ग्रसित होकर वेद मार्ग भूलकर आपस की फूट से एक दूसरे के शत्रु बन बैठे। यही कारण था कि भूमण्डल के चक्रवर्ती सम्राट अपना राज्य खोने के साथ-साथ अपनी थाती संस्कृत, संस्कार, संस्कृति, अपने पूर्वजों के इतिहास को भी भुला बैठे, यही कारण था कि हमारी सभ्यता और संस्कृति का पतन हुआ।
मैथिलीशरण गुप्त ने अपने महाकाव्य भारत-भारती में लिखा है:
हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।
हमारी संस्कृति से संस्कारों का गहन सम्बन्ध है। संस्कारों की कसौटी पर ही अग्निताप से सोना पीट-पीट कर कुंदन बन जाता है। संस्कारों के माध्यम से ही हम समाज में उच्च आदर्श और मूल्य स्थापित करते हैं। बिना संस्कारों के मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं होता। यही कारण है कि वैदिक संस्कृति विश्वभर में समग्रता के साथ स्वीकार्य है।
स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारी, बलिदानी, स्वर्णकार की भांति ही अग्निपरीक्षा लेकर अपनी क्रांति सेना का गठन करते थे। बलिदानी शिरोमणि भगत सिंह के साथी शिववर्मा (अलीगढ़) ने लिखा है कि जब मैं भगत सिंह से मिला तो मेरी परीक्षा, मेरे हाथ की हथेली पर दहकता शोला (कोयला) रखा गया। मेरे मुंह से आह भी न निकली, तो मुझसे भगत सिंह बोले कि तू परीक्षा में पास हो गया। ये वही शिव वर्मा (अलीगढ़) है जिन्होंने तपोभूमि नामक पुस्तक में क्रांति की ज्वाला का वर्णन किया है। इसी पुस्तक को पढ़कर पता लगा कि सुदूर अंडमान निकोबार के ३६१ टापुओं का वर्णन है। इसी अंडमान निकोबार का मान बढ़ाने के लिए वीरवर नेताजी सुभाष ने प्रथम बार भारत-भूमि पर तिरंगा फहराते हुए इसका नामकरण संस्कार शहीद स्वराज्य द्वीप रखा था। आज भी हम एक हैं तो सेफ हैं वाली सरकार, सन् २०१४ के काल से अब तक इस द्वीप का नाम शहीद स्वराज्य द्वीप नहीं रख पाई । हम गुलगुले (मालपुआ) तो खा रहे हैं सुभाष चंद्र के नाम पर, किंतु गुड़ से परहेज कर रहे हैं । ऐसी संस्कृति संस्कारों की कसौटी की अनदेखी कर रही है। मनुष्य की परीक्षा ज्ञान गुण कर्म स्वभाव से होती है स्मृतिकार मनु महाराज कहते हैं
“जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।
अर्थात् संस्कारों के बिना मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं।
महाराज भर्तृहरि भी भावनाहीन व्यक्ति को पशु की संज्ञा देते है। इसी कारण वैदिक संस्कृति विश्ववारा संस्कृति है अर्थात् समस्त विश्व हितार्थ वरण करने योग्य है। जो सदैव सर्वे भवन्तु सुखिनाः और वसुधैव कुटुम्बकम् की बात करती है जबकि इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, जैन, यहूदी आदि केवल और केवल अपने-अपने मत पंथों, सम्प्रदायों तक सीमित है जबकि वेद के अनुसार मनु महाराज बार-बार यही उद्घोष करते है
मनुर्भवः जनया दैव्यं जनम – हे मनुष्य पहले तू श्रेष्ठ मनुष्य बन और भावी संतति को अपने से श्रेष्ठ दिव्य गुणों को प्रदान कर निर्माण करो।
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेत साम्।
उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
ये मेरा है ये तेरा है,
ये छोटी बात ।
कौन है अपना कौन पराया,
सबको ले लो साथ ।।
चरित्र जिनका ऊंचा हो,
तभी बनेगी बात ।
बिना विचारे कुछ किया,
लगे न कुछ भी हाथ ।।
शुभेच्छु
गजेंद्र सिंह आर्य (वेदिक प्रवक्ता, पूर्व प्राचार्य)
धर्माचार्य जेपी विश्वविद्यालय, अनूपशहर
बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश)
चल दूरभाष – ९७८३८९७५११