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ओ३म् “वैदिक विवाह का स्वरूप और आधुनिक विवाह परम्परा में धन का अपव्यय”

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संसार का सबसे प्राचीन धर्म व संस्कृति वैदिक धर्म है। संसार के सभी मनुष्यों का धर्म एक ही होता है और वह वैदिक धर्म ही है। वैदिक धर्म वेदानुकूल सिद्धान्तों पर आधारित मान्यताओं के पालन को कहते हैं। वेद से भिन्न इतर मान्यताओं का पालन धर्म नहीं होता। आजकल संसार में जितने भी मत-मतान्तर प्रचलित हैं वह धर्म नहीं अपितु मत हैं जिनका प्रचलन उन मतों के प्रर्वतकों ने किसी देश व काल विशेष में किया है। इन मतों का कुछ भाग वेदोनुकूल होने से धर्म है परन्तु बहुत सी बातें ऐसी भी हैं जो वेदानुकूल न होने से धर्म न होकर अनुचित व अनावश्यक हैं। इससे संसार में सब मनुष्यों का एक धर्म होने में बाधा उत्पन्न होती है और भिन्न भिन्न मतों के अनुयायियों का भी कल्याण नहीं होता। लोग मतों की अविद्या में फंस कर अपने हीरे रूपी जन्म को नष्ट कर डालते हैं। दूसरी ओर पाश्चात्य जीवन शैली के कारण हमारे वैदिक धर्मी लोग भी प्रभावित हो रहे हैं। वह भी अविद्या से ग्रस्त हो रहे हैं। उनके घरों व परिवारों की सन्तानें भी अधिकांशतः पाश्चात्य मान्यताओं के आधार पर अपना जीवन व्यतीत कर रही हैं। उनके घरों में विवाह आदि जो भी आयोजन होते हैं वह सब भी प्रायः वैदिक मत के अनुसार न होकर पाश्चात्य जीवन शैली पर आधारित मान्यताओं के अनुसार हो रहे है। केवल विवाह संस्कार कुछ कुछ वैदिक रीति से ही होता है और वह भी सभी में नहीं अपितु कुछ थोड़े से आर्य परिवारों में। कुछ आर्य पारिवारों में विवाह संस्कार भी पौराणिक विधि विधानों के अनुसार कराने पड़ते हैं। इसका कारण यह होता है कि एक परिवार आर्यसमाजी है तो दूसरा पौराणिक वा सनातनी। अनेक बार सनातनी परिवारों की बातें आर्य परिवार वालों को माननी पड़ती है जिससे आर्य परिवारों को विवाह संस्कार अपनी आर्य पद्धति से कराने में बाधा आती है। यह सब आजकल के समाज में हो रहा है। आर्यसमाज के प्रचार में न्यूनता व उसके निष्प्रभावी होने से समाज में अज्ञान व मिथ्या मान्यताओं का प्रचलन दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। जो विवाह कुछ हजार या लाख दो लाख रूपये में हो सकते हैं उस पर कुछ घण्टे के कार्यक्रम में कई लाख रूपये व्यय किये जाते हैं और जीवन भर की कमाई उसी में व्यय वा नष्ट हो जाती है। कई लोगों को तो विवशता के कारण अपनी सम्पत्तियां बेच कर या ऋण लेकर इन कार्यों को पूरा करना पड़ता है। यदि आज की परिस्थितियों पर विचार करें तो समाज एक ऐसी अवस्था में पहुंच गया हैं जहां से उसे वापिस वैदिक मान्यताओं पर ले जाना कठिन व असम्भव प्रतीत होता है।

ऋषि दयानन्द ने विवाह का उल्लेख कर आश्वलायन गृह्यसूत्र के आधार पर लिखा है कि विवाह उसको कहते हैं कि जो पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत द्वारा विद्याबल को प्राप्त तथा सब प्रकार से शुभ गुण-कर्म-स्वभावों में तुल्य, परस्पर प्रीतियुक्त होके सन्तानोत्पत्ति और अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुकूल उत्तम कर्म करने के लिए स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध होता है। स्वामी जी ने इससे सम्बन्धित आश्वलायन गृह्यसूत्र, पारस्कर एवं गोभिलीय गृह्यसूत्र आदि के प्रमाण भी दिये हैं। स्वामी जी प्राचीन वैदिक ग्रन्थ शौनक गृह्यसूत्र के आधार पर विधान करते हैं कि उत्तरायण शुक्लपक्ष के अच्छे दिन अर्थात् जिस दिन प्रसन्नता हो, उस दिन विवाह करना चाहिए। वह यह भी कहते हैं कि बहुत से आचार्यों का ऐसा भी मत है कि सब कालों व सब दिनों में विवाह करना चाहिये अथवा विवाह किया जा सकता है। शास्त्र वचनों के आधार पर वह कहते हैं कि जिस दिन प्रसन्नता हो उस दिन सर्वथा शुभ गुणादि से उत्तम जो स्त्री हो उससे पाणिग्रहण करना चाहिये। स्वामी जी फलित ज्योतिष व उसके ग्रन्थों के विधानों को नहीं मानते। आजकल जिस प्रकार से फलित ज्योतिष के ग्रन्थों के अनुसार कन्या व युवक की जन्मपत्री व उसमें दिये हुए राशि, नक्षत्रों आदि के अनुसार विवाह की तिथि निश्चित की जाती है, हमारे प्राचीन शास्त्रकार व महर्षि दयानन्द उसके विरुद्ध हैं व उनके वचनों से आधुनिक तिथि निर्धारण आदि का खण्डन होता है। प्राचीन शास्त्र यहां तक विधान करते हैं कि सब कालों में विवाह किया जा सकता है। यदि हम पूरे विश्व पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि यूरोप, मुस्लिम देशों व कम्यूनिस्ट देशों में विवाह किसी तिथि विशेष पर न करके सभी तिथियों व समयों में किया जाता है। वहां विवाह सफल भी होते हैं। परिवार स्वस्थ, सुखी व दीर्घ जीवी होते हैं। वैसा यहां ज्योतिषियों के अनुसार विवाह करने पर भी नहीं होता। यह आश्चर्य कि बात है कि विधर्मी तो वेद व शास्त्रों के अनुसार बिना तिथि के विवाह कर लेते हैं और वह सफल भी होते हैं जबकि हमारे देश के हमारे पौराणिक बन्धु उन विधानों के विरुद्ध विधान निश्चित करते हैं जिससे समाज में अनेक प्रकार की अव्यवस्थायें उत्पन्न होती हैं। हम अनुभव करते हैं कि ऋषि दयानन्द जी द्वारा अपनी पुस्तक संस्कार विधि में दिये गये विधानों का पालन किया जाना चाहिये। विवाह संस्कार का सबसे उपयुक्त समय गोधूलि वेला होता है। यदि पौराणिक भाई इस समय पर ही विवाह करायें तो यह उचित होगा। रात्रि के समय में अज्ञानता के कारण मुहुर्त निकाल कर निशाचरों की तरह जागना व विवाह संस्कार करना कराना उचित नहीं है। अतः वर्तमान परम्परा का परिमार्जन आवश्यक प्रतीत होता है। हमें नहीं लगता कि ईसाई, मुसलमान, सिख व साम्यवादी लोग रात्रि 11.00 बजे व उसके बाद संसार भर में कहीं अपने विवाह सम्पन्न करते कराते होंगे।

ऋषि दयानन्द ने एक महत्वपूर्ण बात यह भी लिखी है कि वधू और वर की आयु, कुल, वास्तव्य स्थान, शरीर और स्वभाव की परीक्षा अवश्य करें अर्थात् दोनों सज्ञान और विवाह की इच्छा करने वाले हों। यह परीक्षा कन्या व वर के माता, पिता, आचार्य व वृद्ध बुद्धिमान सगे सम्बन्धी कर सकते हैं। इन लोगों का धार्मिक अर्थात् वैदिक धर्मी होना उपयुक्त हो सकता है। ऐसा करने पर हिन्दू समाज में व्याप्त जन्मना जातिवाद की कुप्रथा, जिसे ऋषि दयानन्द ने मरण व्यवस्था कहा है, कुछ समय बाद समाप्त हो सकती है। स्वामी दयानन्द जी यह भी कहते हैं कि स्त्री की आयु से वर की आयु न्यून से न्यून डयोढ़ी और अधिक से अधिक दूनी हो सकती है व हो। इस पर शरीर विज्ञानियों को विशेष ध्यान देना चाहिये और इसमें जो वैज्ञानिक रहस्य है, उसे जन सामान्य को बताना चाहिये।

कन्या व युवक का विवाह दो भिन्न कुलों वा परिवारों के मध्य सम्पन्न किया जाता है। दोनों कुलों की परीक्षा किस प्रकार करनी चाहिये इस पर भी ऋषि दयानन्द जी ने शास्त्रों के आधार पर विधान किया है व अपने विचार लिखे हैं। उनके अनुसार गृहस्थ धारण करने के लिए कन्या व वर को चार, तीन, दो अथवा न्यूनतम किसी एक वेद का यथावत् पढ़ा हुआ होना चाहिये और इसके साथ ब्रह्मचारी भी होना चाहिये। उनके अनुसार विवाह में अपने वर्ण की कन्या व वर को प्राथमिकता देनी चाहिये। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द जन्मना जातिवाद को नहीं मानते। वह गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था को मानते हैं। एक विशेष विधान उन्होंने यह किया है कि कन्या माता की 6 पीढ़ी और पिता के गोत्र की न हो। द्विजों में यही कन्या विवाह के लिए उत्तम होती है। स्वामी जी 10 कुलों को विवाह के लिए वर्जित करते हैं। वह कुल हैं पहला जिस कुल में उत्तम क्रिया न हो। दूसरा जिस कुल में कोई भी उत्तम पुरुष न हो। तीसरा जिस कुल में कोई विद्वान न हो। चैथा जिस कुल में शरीर के ऊपर बड़े-बड़े लोम वा बाल हों। पांचवां जिस कुल में बवासीर हो। छठा जिस कुल में क्षय रोग हो। सातवां जिस कुल में अग्निमन्दता से आमाशय रोग हो। आठवां जिस कुल में मृगी रोग हो। नववां जिस कुल में श्वेतकुष्ठ हो और दसवां जिस कुल में गलितकुष्ठ आदि रोग हों। स्वामी जी कहते हैं कि ऐसे कुल यदि गाय आदि पशु, धन और धान्य से कितने ही बड़े हों तथापि उन कुलों की कन्या व वरों का परस्पर विवाह नहीं होना चाहिये। संस्कार विधि में स्वामी जी ने आठ प्रकार के विवाहों पर भी प्रकाश डाला है।

स्वामी दयानन्द चार वेदों के विद्वान व ऋषि थे। इसके साथ ही उन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार भी किया हुआ था। विवाह विषय पर वह कहते हैं कि यदि माता-पिता कन्या का विवाह करना चाहें तो अति उत्कृष्ट शुभगुण-कर्म-स्वभाव वाले, कन्या के सदृश रूपलावण्यादि गुणयुक्त वर ही को, चाहें वह कन्या माता की छह पीढ़ी के भीतर भी हो, तथापि उसी को कन्या देना अन्य को कभी न देना कि जिससे दोनों अति प्रसन्न होकर गृहाश्रम की उन्नति और उत्तम सन्तानों की उत्पत्ति करें। चाहे मरण-पर्यन्त कन्या पिता के घर में बिना विवाह के बैठी भी रहे, परन्तु गुणहीन असदृश, दुष्ट पुरुष के साथ कन्या का विवाह कभी न करंे और वर-कन्या भी अपने-आप स्वसदृश के साथ ही विवाह करें। स्वामी जी ने इस प्रश्न का उत्तर भी संस्कार विधि में दिया है कि अपने गोत्र वा भाई-बहिनों का परस्पर विवाह क्यों नहीं होता। इसके साथ ही स्वामी जी ने इस प्रश्न पर भी अपने विचार दिये हैं कि विवाह अपने-अपने वर्ण में होना चाहिये वा अन्य वर्ण में भी। स्वामी जी ने विवाह संस्कार की विस्तृत विधि भी लिखी है जो उनके समय में विद्यमान नहीं थी। उन दिनों लोग विवाह के यथार्थ महत्व व उद्देश्य से अनभिज्ञ थे। स्वामी जी द्वारा लिखित विवाह विधि से आर्यसमाज द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं जिन्हें कुछ समझदार पौराणिक भी उत्तम मानकर अपनाते हैं।

आजकल हिन्दू समाज में विवाह संस्कार में अनेक अनावश्यक परम्परायें जोड़ दी गई हैं जिससे विवाह अतीव व्यय साध्य हो गया है। निर्धन लोग तो अपनी सन्तानों का विवाह करा ही नहीं सकते। दहेज जैसा महारोग हिन्दू समाज में है। वस्त्रों व आभूषणों पर ही लाखों रुपये फूंके जाते हैं। विवाह प्रायः रात्रि में किये जाते हैं। पचासों प्रकार के भोजन बनाये जाते हैं। लोग एक ही समय में आईसक्रीम और काफी साथ साथ पीते हैं। तले हुए पदार्थों की अधिकता होती है। इतने पकवान बनते हैं कि सबको व अधिकांश को खाने पर पेट पर बुरा प्रभाव पड़ता है जो रोग के रूप में सामने आता है। होटल व वैडिंग प्वाइण्ट पर भी लाखों रूपये व्यय किये जाते हैं। आजकल शहरों में काकटेल मदिरा मांस पार्टी नाम का महारोग भी चला है। इसमें मांस व शराब परोसी जाती है। यह कुप्रथा तत्काल बन्द होनी चाहिये परन्तु हम देख रहे हैं कि समाज के मार्गदर्शक हमारे धर्मगुरू, पण्डे व पुजारी तथा मठाधीश आदि सब मौन हैं। ऋषि दयानन्द जी के जीवन चरित में एक घटना आती है जब उन्होंने अपने एक भक्त को अपने पुत्र का महंगा विवाह करने पर मीठे शब्दों में उसे फटकारा था। हमें लगता है कि वर्तमान की विवाह प्रथा हिन्दू समाज को कमजोर व रोगी बना रही है। शिक्षित सम्पन्न व्यक्तियों की बुद्धि भी अपने परिवारों के सदस्यों के विवाह के अवसर पर उचित निर्णय करने मं असमर्थ देखी जाती है। यह लोग किसी निर्धन व भूखे व्यक्ति को दो रोटियां आदर के साथ नहीं खिला सकते और विवाह में लाखों रुपया पानी की तरह बहाते हैं। इतने रूपये से कितने ही बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध हो सकता है और कितनी ही गरीब कन्याओं के सादगी से युक्त विवाह कराये जा सकते हैं। समाज के ठेकेदारों को इस समस्या पर विचार करना चाहिये। यदि नहीं करेंगे तो समाज का अहित नहीं रोका जा सकता। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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