विशेष : आजकल आपको अधिकांश बड़े शहरों में ध्यान केंद्र और ध्यान गुरु मिलेंगे ,लेखी। ये ध्यान के नाम पर अपनी दुकान चला रहे है।ध्यान की स्थिति तक पहुंचने से पहले साधक को किस किस स्थिति से गुजरना होता है ,ये नहीं बताया जाता।
ये लेख माला 7 भागों में है ,जो वैदिक विद्वानों के लेख और विचारों पर आधारित है। जनहित में आपके सम्मुख प्रस्तुत करना मेरा उद्देश्य है , कृपया ज्ञानप्रसारण के लिए शेयर करें और अपने विचार बताए।
डॉ डी के गर्ग
६– योग का छठा अंग – धारणा
अष्टाङ्ग योग के पूर्वकथित यमादि पांच अङ्ग योग का बहिरङ्ग है,भूमिका मात्र है,वास्तविक योग नहीं है।योग का आरम्भ धारणा से होता है।धारणा का अर्थ है-मन को एकाग्र करना,मन को किसी एक विषय पर केन्द्रित करना। महर्षि पतंजलि लिखते हैं- देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। -यो० द० विभूति० १ चित्त को किसी देश-स्थान विशेष में,शरीर के भीतर या बाहर बांधने-लगाने का नाम धारणा है। नाभिचक्र, हृदय, भ्रूमध्य, नासिकाग्र या ब्रह्मरन्ध आदि किसी स्थान पर चित्त को ठहरा रखने का नाम धारणा है।
अपने मन को अपनी इच्छा से, अपने ही शरीर के अन्दर, किसी एक स्थान में बांधने, रोकने या टिका देने को धारणा कहते हैं।वैसे तो, शरीर में मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं, परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच, जो गड्डा होता है, उससे है।
जहां धारणा की जाती है, वहीं ध्यान करने का विधान है। ध्यान के बाद समाधि के माध्यम से आत्मा प्रभु का दर्शन करता है और दर्शन वहीं हो सकता है, जहां, आत्मा और प्रभु दोनों उपस्थित हों। प्रभु तो शरीर के अन्दर भी है और बाहर भी परन्तु आत्मा केवल शरीर के अन्दर ही विद्यमान हैं। इसलिए शरीर से बाहर धारणा नहीं करनी चाहिए।
निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक एक स्थान पर नहीं टिका पाते –
मन जड़ है, को भूले रहना
भोजन में सात्विकता की कमी
संसारिक पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना
ईश्वर कण – कण में व्याप्त है, को भूले रहना
बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना
मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना
बहुत से योग-साधक बिना धारणा बनाए, ध्यान करते रहते हैं। जिससे, मन की स्थिरता नहीं बन पाने से भी भटकाव अधिक होने लगता है।
जितनी मात्रा में हमने योग के पहले पांच अंगों को सिद्ध किया होता है, उसी अनुपात में हमें धारणा में सफलता मिलती है। उदाहरण के लिए जिस तरह किसी लक्ष्य पर बन्दूक से निशाना साधने के लिए बन्दूक की स्थिरता परमावश्यक है। ठीक उसी तरह ईश्वर पर निशाना लगाने अर्थात् ईश्वर को पाने के लिए हमारे मन का एक स्थान पर टिका होना अति आवश्यक है।
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