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विशेष : ये लेख माला ५ भागों में है वैदिक विद्वानों के लेख और विचारों पर आधारित है। जनहित में आपके सम्मुख प्रस्तुत करना मेरा उद्देश्य है , इसलिए कृपया शेयर करें।
डॉ डी के गर्ग
योग का दूसरा अंग–नियम
यम की तरह ‘नियम’ भी दुखों को छुड़ाने वाला है।
पहले यम व नियम में अन्तर भी समझ ले। यम का संबंध मुख्य रूप से अन्यों के साथ है और नियम का संबंध मुख्य रूप से व्यक्ति के जीवन के साथ है। विशेष रूप से स्वयं के दुखों से छुड़ाने वाला होने से इसे नियम कहते हैं।
नियम के पाँच विभाग हैं:-
१ शौच, 2. संतोष, 3. तप, 4. स्वाध्याय, 5. ईश्वर-प्रणिधान
1. शौच
शरीर व मन की शुद्धि को शौच कहा जाता है। स्नान, वस्त्र, खान-पान आदि से शरीर को स्वच्छ रखा जाता है। विद्या, ज्ञान, सत्संग, संयम, धर्म आदि और धनोपार्जन को पवित्र रखने के उपायों से मन की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि शरीर की शुद्धि से अधिक महत्त्वपूर्ण है, परन्तु मानव जीवन के अधिक साधन- समय, धन आदि शरीर की शुद्धि में ही लगाए जा रहें हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश की शुद्धि से मनुष्य की शुद्धि और इनकी अशुद्धि से मनुष्य की अशुद्धि होती है। सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि बड़ी मानी गई है। इसलिए, यहीं से शुद्धि का प्रारम्भ करना चाहिए। जिस मनुष्य का धन अशुद्ध है, उसका आहार, ज्ञान व कर्म भी अशुद्ध ही होगा। उसके जीवन में तपस्या नहीं होगी व उसे समय की महत्ता का बोध नहीं होगा।
आन्तरिक शुद्धि का पालन करने से अहिंसा बलवान बनती है, जिससे शुद्धि का पालन करने वाले व्यक्ति के साथ उठने-बैठने व अन्य प्रकार के व्यवहारों में सबको प्रसन्नता मिलती है।
2. संतोष — अपनी योग्यता व अधिकार के अनुरूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य, ज्ञान-विज्ञान तथा उपलब्ध साधनों द्वारा पूर्ण पुरुषार्थ करने से प्राप्त फल में प्रसन्न रहने को संतोष कहते हैं। असंतोष का मूल लोभ है। यदि व्यक्ति संतोष का पालन करता है, यानि अपनी तृष्णा को, लोभ को समाप्त कर देता है, तो जो सुख मिलता है उसके सामने संसार का सारा का सारा सुख सोलहवां भाग भी नहीं होता। सन्तोष की भावना को हमें केवल प्राकृतिक पदार्थों तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसे हमें अपने सम्बन्धों पर भी घटाना चाहिए।
जितना पास है या किसी परिस्थिति से जितना मिलता है, उससे अधिक की इच्छा न करना संतोष नहीं। अपने द्वारा निर्धारित फल को प्राप्त न करने पर हताश-निराश न होकर, हाय-हाय न कहते हुए अपनी योग्यता, सामर्थ्य, बल, ज्ञान-विज्ञान व साधनों को और अधिक बढ़ाकर और अधिक पुरुषार्थ करके अधिक फल को प्राप्त करने की चेष्टा सतत् करनी चाहिए। अनेक बार व्यक्ति अपने सामर्थ्य व योग्यताओं को न पहचानते हुए कम पुरुषार्थ करके संतोष कर लेता है, इसे तुष्टि-दोष कहा जाता है। यह आत्म दर्शन में अत्यन्त बाधक है।
संतोष के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि व्यक्ति ईश्वर के न्याय पर पूर्ण विश्वास करे। उसे यह निश्चिंतता होनी चाहिए कि उसके कर्मों का न न्यून न अधिक फल मिलता रहा है और मिलता रहेगा।
3. तप — योग मार्ग में जिसने तप नहीं किया है उसका योग कभी सिद्ध नहीं होता है । स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग: ।। 1। योग सूत्र
सूत्रार्थ :- सुख-दुःख, मान- अपमान व लाभ- हानि आदि सभी द्वन्द्वों को आसानी से सहन करना, गायत्री आदि मंत्रों का जप व मोक्ष प्रदान करवाने वाले ग्रन्थों का अध्ययन करना व अपने समस्त कर्मों को बिना किसी तरह के फल की इच्छा के ईश्वर में समर्पित कर देना ही क्रियायोग कहलाता है ।
जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हानि-लाभ, सुख-दुख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्दों को शान्ति व धैर्य से सहन करने को तप कहते हैं।इस सूत्र के अनुसार क्रियायोग एक योग साधना मार्ग है । जिसके तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान तीन अंग हैं । जिनका वर्णन इस प्रकार है –
तप क्रियायोग का पहला अंग है। तप का अर्थ है सभी प्रकार के द्वन्द्वों को सहजता से सहन करना ।यहाँ द्वन्द्व का अर्थ है विपरीत परिस्थितियों का आना, जैसे – सर्दी- गर्मी, भूख- प्यास, लाभ – हानि, जय- पराजय, सुख- दुःख व मान- अपमान आदि परिस्थितियों का आना । जब एक योगी साधक साधना करता है तो उसे इस प्रकार के द्वन्द्व परेशान करते हैं।साधनाकाल में इन सभी द्वन्द्वों को सहजता पूर्वक सहन करना ही तप कहलाता है ।
अर्थात सुख को देखकर इतराना नहीं, दुःख को देखकर घबराना नहीं, मान- सम्मान मिलने पर घमण्ड न करना और अपमान होने पर अपमानित महसूस न करना ही तप कहलाता है ।सभी अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आप को सम बनाएं रखना । जब तक स्वर्ण ( सोना ) आदि धातुओं को अग्नि में नहीं तपाया जाएगा, तब तक उनके दोष दूर नहीं हो सकते । ठीक उसी प्रकार जब तक तप रूपी भठ्ठी में साधक को न तपाया जाए, तब तक वह साधक साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता ।
कुछ व्यक्तियों का मानना है कि तप का अर्थ है अपने शरीर को तकलीफ या कष्ट देना । जैसे- चारों तरफ अग्नि जलाकर उसके बीच में बैठना या एक पैर पर कई महीनों तक खड़े रहना आदि- आदि । लेकिन यह तप का निकृष्ट ( निचला ) स्तर है । गीता में भी तप को बताते हुए इस प्रकार के कष्टकारी तप को तामसिक तप कहा है।
योगदर्शन में तप के पालन की बात करते हुए कहा है कि तप में जो तपस्या होती है वह चित्त को प्रसन्न करने वाली होनी चाहिए न कि दुःखी करने वाली।
4 स्वाध्याय :- स्वाध्याय का सामान्य अर्थ है स्वयं का अध्ययन या अवलोकन करना । यहाँ पर स्वाध्याय का अर्थ है गायत्री आदि वैदिक मंत्रों का अर्थ सहित जप करना । व जो भी मोक्ष प्रदान करवाने वाले ग्रन्थ जैसे वेद, उपनिषद आदि हैं उनका अध्ययन करना ही स्वाध्याय कहलाता है । स्वाध्याय करने से साधक को सही – गलत का ज्ञान हो जाता है । स्वाध्याय से ही साधक को पता चलता है कि कौन से कर्म करने योग्य हैं और कौन से करने योग्य नहीं हैं ? इसलिए स्वाध्याय शील व्यक्ति हमेशा जीवन में उन्नति करता है ।
इस विषय में याद रहे कि भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से कोई भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकता है। अत: दोनों का समन्वय होना अति आवश्यक है।
वेदों में दोनों- भौतिक विद्या व अध्यात्मिक विद्या हैं। कुछ विद्वान केवल वैदिक ग्रंथों जैसे कि व्याकरण, निरुक्त आदि, दर्शन शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिष्द आदि के अध्ययन को ही स्वाध्याय मानते हैं। स्वाध्याय का पालन करने से मूर्खतारूपी अविद्या से युक्त होकर की जाने वाली हिंसा का अन्त होता है और हमें मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने में सहायता मिलती है।
5 ईश्वरप्रणिधान :- ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है अपने सभी अच्छे व बुरे कर्मों का समर्पण ईश्वर में कर देना व उसके बदले किसी भी प्रकार के फल की आशा न करना ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता है ।
इसमें भगवान के प्रति अनन्य (उच्चतम) भक्ति का परिचय दिया गया है ।जब साधक पूरी सृष्टि का संचालक उस ईश्वर को मानने लगता है तब वह समस्त कर्मों, पदार्थों, धन – धान्य व प्राकृतिक पदार्थों को ईश्वर प्रदत्त ( ईश्वर द्वारा दिया गया ) मानकर उन सभी का समर्पण ईश्वर में ही कर देता है । तब भक्ति की यह उच्च अवस्था ईश्वर प्रणिधान कहलाती है ।
अतपस्वी व्यक्ति को योग की सिद्धि नहीं होती अर्थात वह ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता। परन्तु, इतना त्याग न करें कि आपका उद्देश्य धरा का धरा रह जाये। तपस्या करो लेकिन चित्त की प्रसन्नता बनी रहे।
लोक में हम माता – पिता, अध्यापक, अधिकारी आदि के प्रति समर्पण की भावना की बात करते हैं। इसका अर्थ यहीं लिया जाता है कि जैसा माता-पिता, अध्यापक, अधिकारी आदि कहें, वैसा ही करना। जिसके प्रति आप समर्पित हो रहे हैं, उसकी आज्ञा का पालन करना ही समर्पण है। इसलिए, ईश्वर प्रणिधान के लिए यह आवश्यक है कि हम ईश्वरीय आज्ञायों के बारे में जानें। ईश्वर की आज्ञा के अनुसार चलना होगा, तो हम हर वक्त ईश्वर को सामने रखेंगे और अपनी वाणी, सोच व कर्मों को अच्छी ओर लगाएंगे। परन्तु, ईश्वरीय आज्ञाओं का पालन करने में उनसे मिलने वाले फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
फल को न चाहने का अर्थ क्या है? जड़ पदार्थ आदि, जो कुछ भी कार्य करने पर मिलता है, उसको ही अंतिम फल समझ कर कार्य किया जाए, तो उससे आत्मा को पूर्ण तृप्ति नहीं मिलती। फल ऐसा चाहो, जिससे आत्मा की अभिलाषा की पूर्ति हो सके। उसकी पूर्ति होती है, ईश्वरीय आनन्द को पाने से। कर्मों को जड़ पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा से न करके, ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त करने की इच्छा से करना चाहिए। श्रीमदभगवद् गीता में वर्णित निष्काम भाव से कर्म करने का भी यहीं अभिप्राय है।
ईश्वर-प्रणिधान के अन्तर्गत अपना सब कुछ- बल, धन, योग्यता, ज्ञान आदि ईश्वर को समर्पित कर दें। व्यक्ति जब ऐसा करने लगता है, तो वह सोच में पड़ जाता है की यदि मैं सब कुछ समर्पित कर दूँ, तो मेरे लिए कुछ बचेगा ही नहीं। ईश्वर-प्रणिधान करने पर भी समस्त धन रहेगा तो आपके पास ही, लेकिन उसे ईश्वर की आज्ञा के अनुरूप प्रयोग करना होगा।
जैसे , उदाहरण के लिए, एक मकान में एक किराएदार रहता है। वह किराएदार उस मकान का अधिक से अधिक प्रयोग करता है और उसका अधिक से अधिक सुख लेने का प्रयत्न करता है, लेकिन अपनी नहीं मानता। मकान उसी के पास है, वह ही प्रयोग करता है, परन्तु उसे अपना नहीं मानता, उसके बारे में उसको कोई चिन्ता नहीं रहती। किसी कारण से बिगड़ भी जाए तो उसको दुख बिलकुल भी नहीं होता। क्योंकि उसने उसे अपना तो कभी माना ही नहीं था।
अपने जीवन में यह भाव लाने से कि मेरा सब कुछ प्रभु का दिया हुआ है, एक बहुत बड़ा लाभ होगा कि जैसा, वो हमको कहेगा हम वैसा, अपने साधनों का प्रयोग करेंगे। जिम्मेदारी अपनी नहीं रहेगी।
जब हम ईश्वर-समर्पण करेंगे अथवा उसकी आज्ञा पालन करने में तत्पर रहेंगे, तो मुक्ति-पथ पर हमारी प्रगति बड़ी तेज़ होगी।
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